मार्क्स का चिंतन भारतीय विद्वानों के लिए एक अनबुझ पहेली है। भारतीय समाज और राज्य पर हम उस चिंतन को सही ढंग से प्रयोग करने की बजाये हम इस बात पर जोर देते हैं कि दूसरे देशों में मार्क्सवाद की क्या गति रही।
जबकि सबसे बड़ी बात तो ईमानदारी से चिंतन की है क्योंकि जब भी हमें किसी व्यवहारिक सिद्धान्त की तलाश में हमें बार बार मार्क्स के पास जाना पड़ेगा। आज के दौर में हमें उनको पूजने की बजाए, जैसा कि भारत में तथाकथित मार्क्सवादियों ने किया, मार्क्स की तरह सोचने की आवश्यकता है।
"हमारे देश में जो कुछ हो रहा है और जो कुछ हुआ है उसे समझने और इस प्रकार अपने विकल्प का निर्माण करने में मार्क्सवाद हमारे लोगों की मदद कर सकता है। निश्चित रूप से इस वक्त वाम और जन आंदोलनों के नेताओं को वैसे सोचना और करना चाहिए जैसे उनकी जगह होने पर मार्क्स ने सोचा और किया होगा।"
आजकल जो बर्बरतापूर्ण रूप पूँजीवाद का रूप भारत में हमें दिखाई दे रहा है उसके अनुरूप संघर्ष ही हमें अपने भविष्य निर्माण में मदद दे सकता है। मार्क्स का दर्शन वास्तव में "मानव के असली आस्तित्व" से मिलाने का दर्शन है।
डॉ. देशराज सिरसवाल
21 मई 2020सोच का फर्क है