चंद्रकांता।
देवकीनंदन खत्री की कलम का विजयी शंखनाद।
बाबू देवकीनंदन खत्री का जन्म 29 जून 1861 को मुजफ्फरपुर जिला अंतर्गत पूसा (बिहार) में हुआ था। उनके पिता का नाम लाला ईश्वरदास था। बाबू देवकीनंदन खत्री की प्रारम्भिक शिक्षा उर्दू-फारसी में हुई थी। बाद में उन्होंने हिंदी, संस्कृत एवं अंग्रेजी का भी अध्ययन किया। आरंभिक शिक्षा लेने के बाद वे गया के टेकारी इस्टेट पहुंचकर वहां के राजा के यहां नौकरी कर ली।
देवकी बाबू का काशी नरेश ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह से अच्छा सम्बंध था। जिसके फलस्वरूप उन्होंने चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठेका मिल गया था। इस कारण से खत्री जी का युवावस्था ज्यादातर उक्त जंगलों में ही बीती थी। खत्री जी बचपन से ही घूमने के बहुत शौकीन थे। इस ठेकेदारी के कार्य से उन्हें पर्याप्त आय होने के साथ-साथ घूमने-फिरने का शौक भी पूरा होता रहा। वे लगातार कई-कई महीनों तक चकिया एवं नौगढ़ के बीहड़ जंगलों, पहाडि़यों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की खाक छानते रहते थे। बाद में जब उनसे जंगलों के ठेके वापिस ले लिए गये तब इन्हीं जंगलों, पहाडि़यों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की पृष्ठभूमि में अपनी तिलिस्म तथा ऐयारी के कारनामों की कल्पनाओं को संजोकर उन्होंने चंद्रकांता उपन्यास की रचना की।
बाबू देवकीनंदन खत्री जी ने जब उपन्यास लिखना शुरू किया था उस समय अधिकांश लोग उर्दू भाषा-भाषी ही थे। ऐसी परिस्थिति में खत्री जी का मुख्य लक्ष्य ऐसी रचना करना था जिससे देवनागरी हिन्दी का प्रचार-प्रसार हो। ऐसा करना सरल नहीं था परन्तु उन्होंने ऐसा कर दिखाया। चंद्रकांता उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि जो लोग हिन्दी लिखना-पढ़ना नहीं जानते थे, उन्होंने भी ‘चंद्रकांता’ उपन्यास को पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी। ‘चंद्रकांता’ उपन्यास की बढ़ती लोकप्रियता से उत्साहित होकर खत्री जी ने ‘चंद्रकांता संतति’ लिखना आरंभ कर दिया जिसके कुल 24 भाग हैं। इन उपन्यासों को पढ़ते समय पाठक खाना-पीना भी भूल जाते हैं।
बाबू देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों में कई एयारों और पात्रों के जो नाम आए हैं वे सब उनके मित्रमंडली में से ही चुने गए थे और इस प्रकार उन्होंने अपने अनेक घनिष्ट मित्रों और संगी-साथियों को भी अपनी रचनाओं के द्वारा अमर बना दिया।
देवकी बाबू 52 वर्ष की अवस्था में 1 अगस्त, 1913 को परलोकवासी हो गए।
चंद्रकांता संतति लोकप्रिय साहित्यकार बाबू देवकीनंदन खत्री का विश्वप्रसिद्ध ऐय्यारी उपन्यास है। खत्री जी ने पहले चन्द्रकान्ता लिखा फिर उसकी लोकप्रियता और सफलता को देख कर उन्होंने कहानी को आगे बढ़ाया और 'चन्द्रकान्ता संतति' की रचना की। हिन्दी के प्रचार प्रसार में यह उपन्यास मील का पत्थर है।
हिंदी भाषा के अभिनय विजय की यात्रा एक ऐसी अविस्मरणीय घटना जिसने अहिन्दीभाषियों को विवश कर दिया हिंदी सीखने के विवश कर दिया।
पूरे अखण्डभारत में ये पुस्तक बड़े चाव प्रेम से चर्चा का विषय बनी।
अद्भुत रहस्य से परिपूर्ण सम्पूर्ण भारतीय परिवेश व भारत का परिचय।
लोकप्रियता ऐसी की जिसने सुना ख़रीद कर पढ़ने की एक गाथा बन गयी।
पहली बार एक पुस्तक हिंदी भाषा में प्रकाशन की प्रतीक्षा में खण्ड डर खण्ड 8 खंडों का बिक्री का इतिहास रच दिया।
हिंदी भाषा का प्रचार प्रसार करने की व विरोध की जितनी भी योजनायें व षड्यंत्र आंदोलन हुए सब विफ़ल सिद्ध हो गए।
चन्द्रकांता संतति को पढ़ने के लिये अहिन्दीभाषी भारतीयों ने भी हिंदी भाषा को सीखा यहीं इसके लेखक व पुस्तक की विजय यात्रा व परिचय है।
देवकीनंदन खत्री जी को तत्कालीन भारत सरकार से इस अनूठे हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार के योगदान के लिए पुरुस्कार मिलना चाहिए था।
राष्ट्रीय भाषा के लिये ऐसा अविस्मरणीय अविश्वसनीय योगदान विश्व में कहीं नही मिलता।
दूरदर्शन ने इस पुस्तक की कथा को लेकर एक धारावाहिक कार्यक्रम चंद्रकांता भी बनाया नीरजा गुलेरी द्वारा।
वह भी सफल हुआ।
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