मजा तब शुरू होता जब सबसे छोटे बापू मामा गर्मी की छुट्टियों में गांव आते साथ में देवगांव के प्रसिद्ध पेडे जरूर लाते ।उनके आते ही हवेली कि रौनक बढ़ जाती ,क्योंकि मामा भले ही मैथ्स के लेक्चरर रहे हो, बचपना नहीं छोड़ते थे।चलते फिरते किसी भी बच्चे को परेशान करना उनका शगल था।सभी लोग बोलते रहते थे,"नको न रे बापू काय पोरांचे नांव घेत राहतों।"मामा आए कि सारे बच्चे दिनु दादा,प्रमोद दादा, विजु दादा,विनोद ,केश्या,गलू मामा और आनंदा कोली, सभी बापू मामा के साथ दूसरी मंजिल पे नाना की तस्वीर के नीचे बैठ कर ताश की महफिल जमा लेते।हालांकि वो पैसे दांव पे नहीं लगाते थे,लेकिन उसकी जगह आम की गुठलियों तथा चिब्बियों (कोल्ड्रिंक्स की बॉटल्स के ढक्कन) से काम चलाते।क्या जोर जोर से आवाजें करते थे पुछों मत। बापू मामा जब भी हारने लगते सारे पत्ते घुटमित कर विजु या दिनू की पीठ पे धौल जमाते हुए नीचे चल देते। और जब जितने का दौर होता तो इतने रम जाते कि खाने के लिए नानी को आवाज देनी पड़ती। नानी का बुलाने का तरीका पहले राजा बापू,फिर बापू रे बापू और आखिर में बाप्या रे बाप्या और तुरंत गेम खत्म बापू मामा सीधे थाली पे।मझले बालू मामा से बच्चे डरते थे,उनके आते ही शोर थोड़ा कम हो जाता।मामा की कॉलर पे हमेशा एक रुमाल होता था,जो उसे गंदा होने व फटने से बचाता था।आते ही उनका सफाई अभियान चालू हो जाता ।बाद में अंदर बैठ कर नानी के साथ खेती का हिसाब बतियाते। शांत प्रवृत्ति के हमारे बालू मामा सभी बच्चों से सिर पे हाथ फेरते हुए पढ़ाई की जानकारी लेते रहते। वाघुर नदी के किनारे काफी ऊंचाई पर ये गांव बसा है,फिर भी बारिश में बाढ़ का पानी गांव में घुस जाता था। अब तो ये हाल है कि बारिश में भी नदी तंदुरुस्त नहीं दिखती ,उफान पर आने की तो बात ही नहीं होती।
हां तो मैं बता रहा था कि ऐसी बाढ़ में भी बापू मामा तैर कर तरबूज ले आते थे।उनका ये बचपना आज भी कभी कभी नजर आता है।पेमा मामा (प्रेमचंद) की बात ही अलग थी ।पूरे गांव के लोग सलाह लेने आते थे आखिर लीडर जो ठहरे।लेकिन मेरी नानी याने उनकी काकी और उनकी कभी पटरी नहीं बैठती थी।मेरी मम्मी (आई),जिन्हें लोग माई कहते थे,पेमा मामा से अक्सर सलाह लेती रहती।वो हमेशा हमारी मदद के लिए तैयार रहते थे।
शाम को चुपचाप चंद्रा मामी की खरी खरी बातों को सुनते हुए भोजन का आनंद ले सीधे बाहर बिछी अपनी खाट पे दस्तक दे देते।सुबह बोलने वाला व्यक्ति शाम को इतना शांत रहता ,इस बात का रहस्य मुझे बड़े होने के बाद पता चला।
कभी कभी एक साथ बालू मामा के तीनों बच्चे राजश्री,मिलिंद् व संगीता तथा बड़े अरविंद मामा के बच्चे सुनीता,विनोद व कविता भी गांव पहुंच जाते। उधर बापू मामा के बच्चे हेमंत (चिमु) व सीमा(माई) सारे के सारे एक साथ इकट्ठे जो जाते।मै बीच वाले कैडर में रहता,बड़े मुझे खिलाते नहीं थे । मैं अपने हम उम्र तथा छोटे भाई बहनों को लेकर मनोरंजन के झंडे फहराते रहता था।
ऊपर रात को सारे बच्चे धाबे (छत) पर मस्ती करते ,किस्से कहानी सुनते सुनाते ठंडी हवा के झोंके आते ही गहरी नींद में एक एक कर विकेट गिरा देते।
कभी कपास के ढेर पे कूदना,कभी प्याज एक दूसरे पर फेंकना,कभी केले या आम कच्चे पक्के निकाल के खाना।इतना स्वर्णिम आनंद अब नई पीढ़ी को शायद ही मिले।खेत में कभी पैदल तो कभी बैलगाड़ी पर जाते ।वहां पहुंचते ही सारी थकान मिट जाती थी।केले के बगीचे में घुस कर आवाज देना,कपास के पौधों में छिप जाना, कच्चे आम तोड़ना,पड़ोस वाले खेत से ककड़ी (खीरा) ले आना,इन सब कामों में अथाह आनंद की अनुभूति होती थी।दोपहर में सारे नानी के आसपास इकठ्ठा हो जाते और खाने की व्यवस्था जमाते ।मिर्च, लहसुन ,मूंगफली के दानों की चटनी और कलने की भाकरी ,प्याज , ककड़ी,टमाटर, कैरी (कच्चे आम)के साथ खाने का वो मजा मिलता जो किसी फाइव स्टर होटल के खाने में न मिलता।(कलने की भाकरी::ज्वार,मेथीदाना,तिल्ली,खड़े उड़द के मिश्रित आटे से बनी मोटी रोटी,एक बार खा लो तो बार बार खाने की इच्छा होगी।)
आगे जारी है भाग 4 में।