जीवित हो अगर, तो जियो जीभरकर...
जीते तो सभी हैं पर सभी का जीवन जीना सार्थक नहीं है। कुछ लोग तो जिये जा रहे हैं बस यों ही… उन्हें खुद को नहीं पता है कि वे क्यों जी रहे हैं? क्या उनका जीवन जीना सही मायनें में जीवन है। आओ सबसे पहले हम जीवन को समझे और इसकी आवश्यकता को। जिससे कि हम कह सकें कि जीवित हो अगर तो जिओ जमकर…
जीवन जिंदादिली का नाम है मुरदादिल क्या खाक जीते हैं...।आओ इसे समझने के लिए आगे बढ़ते हैं।
वैसे तो गौतम बुद्ध से जुड़ी हुई कई कथाएं हैं, जो हमें जीवन के बहुत गहरे संदेश देती हैं। ऐसी ही एक कथा है बुद्ध और गौतमी की। बुद्ध के समय में श्रावस्ती नगरी में एक कृशा गौतमी नामक महिला रहती थी। उसका एक बेटा था, जो अचानक बीमार होकर मर गया। कुछ समय पहले ही उसके पति का भी देहांत हुआ था। उस पर जैसे दुख का पहाड़ टूट पड़ा। पति की मृत्यु के बाद वह बेटे के आसरे ही जी रही थी।
गौतम बुद्ध उसी नगर के पास रुके हुए थे। लोगों ने महिला को समझाया – रोओ मत, इतना दुखी मत हो।
तुम बच्चे को बुद्ध के पास क्यों नहीं ले जाती। वे बहुत दयालु हैं। वह इसे फिर से जीवित कर देंगे।
महिला बच्चे के शव के साथ भागी-भागी बुद्ध के पास पहुंची।
बुद्ध ने महिला की ओर देखा। उन्होंने उसे बच्चे को अपने सामने ही लिटाने को कहा।
‘हां, मैं इसे जीवित कर दूंगा, लेकिन तुम्हें एक शर्त पूरी करनी होगी,’ बुद्ध बोले।
महिला बोली – ‘बच्चे के लिए मैं अपनी जान भी देने को तैयार हूं।’
बुद्ध बोले – ‘यह एक छोटी-सी शर्त है। मैं कभी बड़ी मांग नहीं करता। तुम बस बगल के गांव में जाओ और कहीं से सरसों के कुछ दाने ले आओ। बस एक बात याद रखना। सरसों के दाने ऐसे घर से आने चाहिए, जहां कभी किसी की मृत्यु नहीं हुई हो।’
महिला अपने बच्चे के दुख में पगलाई हुई थी। वह बुद्ध की बात को समझ नहीं पाई कि कोई ऐसा घर नहीं हो सकता, जहां कभी किसी की मृत्यु ही नहीं हुई हो।
वह दौड़ी-दौड़ी गांव पहुंची। वह जानती थी कि हर घर में सरसों थी, क्योंकि गांव के सभी लोगों ने फसल के रूप में उसी की खेती की थी।
उसने कई द्वार खटखटाए। लोगों ने उसकी कहानी सुनकर कहा – ‘बस सरसों के कुछ दाने? हम बैलगाड़ी भरकर सरसों दे सकते हैं, लेकिन तुम्हारी शर्त पूरी नहीं हो सकती। हमारे घर में कई लोगों की मृत्यु हुई है, हमारे सरसों के दाने तुम्हारे किसी काम के नहीं।’
जब रात हुई, तो महिला को होश आया। उसने हर घर का दरवाजा खटखटाया था। धीरे-धीरे उसे समझ आया कि मृत्यु तो होनी ही है। सभी को मरना पड़ता है। इससे बचने का कोई रास्ता नहीं।
जब वह बुद्ध के पास लौटकर आई, तो वह पूरी तरह बदल चुकी थी।
बुद्ध के पास उसका बच्चा जमीन पर लेटा हुआ था और बुद्ध इंतजार कर रहे थे।
बुद्ध ने महिला से पूछा – ‘सरसों के दाने कहां हैं।’
महिला हंसी और बुद्ध के चरणों में गिर गई।
‘मुझे भी अपने रास्ते पर ले चलो, क्योंकि मैं तुम्हारा संदेश समझ चुकी हूं। हर व्यक्ति को मरना होता है। आज मेरा बेटा मरा है। कुछ समय पहले मेरे पति का देहांत हुआ था। कल मैं भी नहीं रहूंगी। मैं मरने से पहले मृत्यु के पार निकलना चाहती हूं। अब मैं अपने बेटे को दोबारा जीवित नहीं करना चाहती। मैं अब खुद कभी नष्ट नहीं होने वाले जीवन का साक्षात्कार करना चाहती हूं।’
बुद्ध बोले – ‘तुम्हें भेजने का उद्देश्य ही यही था कि तुम जाग जाओ।’
और बुद्ध ने कुशा गौतमी को दीक्षित करना स्वीकार किया।
बुद्ध और गौतमी की कथा हमें अपनी मृत्यु को याद करने का मौका देती है। वह हमें याद दिलाती है कि हम भी इस पृथ्वी पर हमेशा के लिए जीवित नहीं रहने वाले। यह जो चारों ओर प्रकृति की सुंदर छटा बिखरी हुई है, पक्षियों का संगीत फैला हुआ है, सूर्योदय और सूर्यास्त के रंग दिखने को मिलते हैं और यह जो रिश्तों का प्रेम है, मां के प्यार की खुशबू, बच्चों का स्नेह, दोस्तों की यारी, यह सब एक दिन खोने वाला है। इसीलिए क्या अच्छा न होगा कि हम अपने जीवन के हर पल को जागते हुए जिएं, सब कुछ महसूस करते हुए जिएं। बेहोशी में जीवन न गुजार दें। अपने अभिमान, अहंकार, पद, पैसे और ताकत की दौड़ में ही न रहें। प्रेम, दया और करुणा से भरकर हर पल को पूरी गहराई में जीते हुए इस कीमती जीवन को गुजारें। मृत्यु से भयभीत होने की जरूरत नहीं। जिसे आना ही है, उससे भयभीत क्यों होना। लेकिन जीवन तो हमें ठीक से जीना आना चाहिए। याद रखें कि जीवन हमेशा मौजूदा पल में घटित होता है, इसलिए ज्यादा से ज्यादा इस पल में रहने का अभ्यास करें। यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही कठिन, क्योंकि मन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं। बुद्ध ने इसी मन को साधने के लिए छह साल तक ध्यान किया था। लेकिन ज्ञान पाने के बाद उन्होंने किसी भी अति को गलत बताया। जीवन अतियों के बीच के रास्ते पर है। हम अगर रोज थोड़ा-थोड़ा समय ध्यान और योग को दें, तो वह भी पर्याप्त होगा। वह धीरे-धीरे हमारे जीवन को रूपांतरित कर देगा।
बेशक जीवन को रूपांतरित कर देगा पर इसके लिए हमें समय के साथ चलना होगा। जैसे कि वर्तमान समय में कोरोना महामारी का विश्वव्यापी प्रकोप है और ऐसे में बचाव के जो भी सुझाव दिए जा रहे हैं हमें न सिर्फ उनका जीवन में स्वागत करना है बल्कि आत्मसात भी करना है। जैसे हिदायत दी गई कि मास्क पहनना है, सोसियल डिस्टेंसिंग को अपनाना है, हाथ को साबुन से नियमित रूप से धोना है, सेनिटाइजर का प्रयोग करना है और अनावश्यक लोंगों के सम्पर्क में आने से बचना है। यही तो समय के साथ जीवन जीने का सही तरीका है। इससे ही हमारा जीवन लाभान्वित होता है और विकास की ओर उन्मुख होता है।
समझदार और विद्वान जनों ने कहा है कि "जैसी चले बयार पीठि तब तैसी दीजै…" अर्थात समय की नजाकत को देखते हुए हमें आवश्यक परिवर्तन को स्वीकार करना चाहिए।
➖ प्रा. अशोक सिंह