मैंने देखा, और मैं देखती रही / मैंने सुना, और मैं सुनती रही
मैंने सोचा, और मैं सोचती रही / द्वार खोलूँ या ना खोलूँ...
प्रेम खटखटाता रहा मेरा द्वार / और भ्रमित मैं बनी रही जड़
खोई रही अपने ऊहापोह में...
तभी कहा किसी ने / सम्भवतः मेरी अन्तरात्मा ने
तुम द्वार खोलो या ना खोलो / द्वार टूटेगा,
और प्रेम आएगा भीतर
कब, इसका भान भी नहीं हो पाएगा
तुम्हें...
हाँ, यदि करती रही प्रयास इसे पाने
का
गणनाएँ और मोल भाव
तो लौटना होगा रिक्त हस्त
क्योंकि रह
जाएगा वह बाहर ही द्वार के…
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