गीता और
देहान्तरप्राप्ति
श्राद्ध पक्ष में श्रद्धा के प्रतीक श्राद्ध पर्व का
आयोजन प्रायः हर हिन्दू परिवार में होता है | पितृविसर्जनी
अमावस्या के साथ इसका समापन होता है और तभी से माँ दुर्गा की उपासना के साथ त्यौहारों
की श्रृंखला आरम्भ हो जाती है – नवरात्र पर्व, विजयादशमी,
शरद पूर्णिमा आदि करते करते माँ लक्ष्मी के पूजन का पर्व दीपावली और
फिर भाई दूज तथा छठ पूजा आदि पर्व आ जाते है | सभी जानते हैं
कि श्राद्ध पर्व दिवंगत स्वजनों की शाश्वत और नित्य आत्माओं के लिये श्रद्धा सुमन
अर्पित करने का पर्व है | और इन श्राद्धों के तुरन्त बाद
उत्सवों का आरम्भ हो जाता है – क्योंकि यही है प्रकृति का नियम – परिवर्तनशीलता का
क्रम – समय का परिवर्तन, ऋतुओं का परिवर्तन, सुख और दुःख का चक्रवत परिवर्तन तथा देही के स्वरूपों का निरन्तर होता
परिवर्तन – शरीर कभी बालरूप में रहता है, कभी युवावास्था को
प्राप्त हो जाता है, बाद में वृद्धावस्था का भोग करते हुए
अन्त में चतुर्थ अवस्था – देहान्तरप्राप्ति की अवस्था को प्राप्त होता है |
वनस्पतियों को ही ले लीजिये, अँकुरित होती हैं
– अर्थात जन्म लेती हैं, पल्लवित-पुष्पित होती हैं –
युवावस्था को प्राप्त होती हैं, पतझर के साथ फूल पत्ते सब
सूख जाते हैं – वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाते हैं, और अन्त
में पृथिवी पर झर कर मिट्टी में विलीन हो जाते हैं – मृत्यु को प्राप्त होते हैं |
किन्तु वही पंचतत्व में विलीन वनस्पतियाँ समय आने पर पुनः अँकुरित
होती हैं और वही क्रम पुनः चल पड़ता है |
यही है वास्तव में प्रकृति का नियम – एक चिरन्तन सत्य –
आत्मा की जन्म लेने से लेकर देहान्तरप्राप्ति तक की यात्रा और इस यात्रा का चक्रवत
अनवरत क्रम | इसीलिये जब अर्जुन
मोहग्रस्त होते हैं कि अपने पूज्यनीय भीष्म और द्रोणाचार्य आदि के साथ किस प्रकार
युद्ध कर सकते हैं ? साथ ही जय पराजय किसी की भी हो –
अन्ततोगत्वा नाश तो स्वजनों का ही होगा | ऐसी विजय का मैं
क्या करूँगा ? तब कृष्ण उन्हें समझाते हुए कहते हैं “न
त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:, न चैव न भविष्यामः
सर्वे वयमत: परम् | देहिनोsस्मिन्यथा
देहे कौमारं यौवनं जरा, तथा देहान्तरप्राप्ति: धीरस्तत्र न
मुह्यति ||” (गीता 2/12,13) अर्थात हे
अर्जुन न तो कभी ऐसा समय था जब न मैं था, न तू था, न ये राजा लोग थे, और न ही भविष्य में कभी ऐसा समय
आने वाला है जब हम सब नहीं होंगे | क्योंकि जीवात्मा नित्य
है और शरीर सम्बन्ध अनित्य | जीवात्मा के जन्म के साथ जिस
प्रकार शरीर की तीन अवस्थाएँ होती हैं – बाल्यावस्था, युवावस्था
और वृद्धावस्था उसी प्रकार एक चतुर्थ अवस्था भी होती है – देहान्तरप्राप्ति की
अवस्था | क्योंकि आत्मा कभी मरती नहीं | इसलिये जीवों के नाश पर शोक नहीं करना चाहिये | क्योंकि
“न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः | अजो
नित्यः शाश्वतोsयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||”
(2/20) यह अनादि अनन्त जीवात्मा न कभी जन्म लेता है, न मृत्यु को प्राप्त होता है, न इसका कोई भूत और
भविष्य होता है, यह अजन्मा अर्थात अनादि नित्य शाश्वत
चेष्टाशील सनातन तत्व है |
यही है श्राद्ध पर्व का महात्म्य कि मरता तो शरीर है,
आत्मा नहीं, आत्मा तो स्थिर है, अचल है, इसलिये उस आत्मा के प्रति श्रद्धावान होना
है | आत्मा एक ऐसा परमाणु है जो अनादि अनन्त शक्ति स्वयं में
समेटे हुए है | इसकी चेतना सुप्त हो सकती है, किन्तु लुप्त नहीं हो सकती | इसीलिये इसमें कोई
विकार अर्थात परिवर्तन नहीं होता | इसीलिये इसके विषय में
शोक करना उचित नहीं “अव्यक्तोsयमचिन्त्योsयमविकार्योsयमुच्यते, तस्मादेवं
विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ||” क्योंकि “जातस्य हि ध्रुवो
मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च, तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं
शोचितुमर्हसि ||” (2/5,27) जीवित की मृत्यु निश्चित है,
इसलिये इस विषय में शोक नहीं करना चाहिये | यह
आत्मा बुद्धि आदि करणों का विषय नहीं होने के कारण व्यक्त नहीं होता – अर्थात इसे जाना नहीं जा सकता, इसीलिए यह अव्यक्त है | इसीलिए यह अचिन्त्य
भी है – क्योंकि जो पदार्थ इन्द्रियगोचर वही चिन्तन का विषय होता है, आत्मा इन्द्रियगोचर न होने के कारण अचिन्त्य है | यह आत्मा अविकारी है
तथा अवयवरहित - निराकार – होने के कारण भी आत्मा अविक्रिय है - क्योंकि कोई भी
निराकार पदार्थ विकारवान् नहीं हो सकता | विकार आकार अथवा अवयव में होता है | अतः विकार
रहित होने के कारण यह आत्मा अविकारी कहा जाता है | अतः इस आत्मा के विषय में तुझे यह शोक नहीं करना चाहिये कि मैंने इसका वध कर
दिया | जिसने जन्म लिया है उसका मरण निश्चित है और जो मर गया है उसका पुनः जन्म
निश्चित है | इसलिये यह जन्ममरणरूप भाव अपरिहार्य है अर्थात् किसी प्रकार भी इसका
प्रतिकार नहीं किया जा सकता | अतः इस अपरिहार्य विषय के निमित्त तुझे शोक करना
उचित नहीं |
तथापि स्वजनों के निधन पर शोक तो होता ही है |
इसलिये प्रयास करना चाहिये कि जीवित रहते हुए ही हर प्रकार की इच्छा
और क्रोधादि से मुक्त हो जाया जाए तथा ईश्वारार्पण बुद्धि से अपना प्रत्येक कर्म
किया जाए | ऐसा व्यक्ति योगी कहलाता है और ऐसे व्यक्ति की
मृत्यु पर शोक न करके उसके प्रति केवल श्रद्धा व्यक्त करनी चाहिये | इस प्रकार गीता में सांख्य और योग दोनों के अनुसार बात कही गयी है |
किसी लक्ष्य का स्वरूप बताना सांख्य शास्त्र है और उस लक्ष्य तक
पहुँचने का साधन योग बताता है | काम क्रोधादि विकारों से
रहित मन बनाने का लक्ष्य सांख्य द्वारा बताया गया है और स्वाध्याय तथा तप आदि से
ऐसा मन बनता है यह साधन योग बताता है | और ऐसा
मन-बुद्धि-युक्त मनुष्य कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है |
बड़ा विशद विवेचन देहान्तरप्राप्ति अर्थात सामान्य
शब्दों में मृत्यु के विषय में गीता में उपलब्ध होता है |
सबका आशय यही है कि व्यक्ति सत्कर्मों में प्रवृत्त हो ताकि
देहान्तर प्राप्ति के समय उसका मन स्थिर हो और वह परम तत्व को प्राप्त कर सके |
क्योंकि सत्वगुण सम्पन्न व्यक्ति परमात्मतत्व का अधिकारी होता है |
“अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्, य:
प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः | प्रयाणकाले मनसाsचलेंन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव, भ्रुवोर्मध्ये
प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् || (8/5,10) अर्थात जो कोई पुरुष अन्तकाल में उस ईश्वर का ही स्मरण करता हुआ शरीर को
त्याग कर जाता है, वह उसी के को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं | जो अन्त समय – मृत्युकाल में भक्ति और योग बल - समाधिजनित
संस्कारों के संग्रह से उत्पन्न हुई चित्त की स्थिरता - से युक्त हुआ तथा चञ्चलता
से रहित अर्थात स्थिर मन से भृकुटी के मध्य में प्राणों को स्थापित करके भली
प्रकार सावधान हुआ परमात्मस्वरूप का चिन्तन करता है | ऐसा बुद्धिमान योगी कविं
पुराणम् इत्यादि लक्षणों वाले उस दिव्य -- चेतनात्मक परम पुरुष को प्राप्त होता है
|
मनुष्य की मानसिक अवस्था सदा एक सी नहीं रहती |
कभी सत्व गुण की प्रधानता रहती है, कभी रजस की
तो कभी तमस की | जब इस देह में हर द्वार में ज्ञान के प्रकाश
का अनुभव हो तब समझना चाहिये कि सत्व गुण की वृद्धि हो रही है | रजोगुण की वृद्धि होने पर लोभ, निरन्तर कर्मशील रहने
की भावना, प्रबल इच्छाशक्ति, महत्त्वाकांक्षा
तथा अशान्ति आदि गुणों में वृद्धि होती है | व्यावहारिक रूप
में देखा जाए तो सांसारिक व्यक्ति के लिये इन दोनों की ही अत्यन्त आवश्यकता है,
क्योंकि तभी वह कर्मशील रह पाएगा | कर्म किस
प्रकार के होंगे यह निर्भर करेगा कि सत्व और रजस गुणों में कौन सा गुण अधिक बली हो
रहा है | किन्तु सोचने पर भी तत्व का प्रकाश न होना, कार्य करने में प्रवृत्ति का अभाव, लापरवाही,
मूढ़ता आदि तम के बढ़ने के द्योतक हैं | तमस
के बढ़ने से तो कार्यनाश, सत्व और बल का नाश ही होता है |
“सर्वद्वारेषु देहेsस्मिन् प्रकाशः उपजायते
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्वमित्युत || लोभः
प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा, रजस्येतानि जायन्ते
विवृद्धे भरतर्षभ || अप्रकाशोsप्रवृत्तिश्च
प्रमादो मोह एव च, तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ||”
(14/11,13) अर्थात, जिस समय जो गुण बढ़ा हुआ
रहता है उस समय उसके शरीर के समस्त द्वारों में यानी आत्मा की उपलब्धि के द्वारभूत
जो श्रोत्रादि सब इन्द्रियाँ हैं उनमें प्रकाश अर्थात अन्तःकरण यानी बुद्धि की
वृत्ति ही ज्ञान है | यह ज्ञान नामक प्रकाश जब शरीर के समस्त द्वारों में उत्पन्न
हो -- तब इस ज्ञान के प्रकाश रूप चिह्न से ही समझना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा है |
और सत्व गुण सम्पन्न व्यक्ति परमात्मतत्व को प्राप्त
होता है | ऐसी आत्मा उत्तम कुल में
पहुँचती है, अर्थात उत्तम विद्वान् कुल में जन्म लेती है |
रजस गुणसम्पन्न व्यक्ति रजस गुणों के साथ जन्म लेता है और पुरुषार्थ
में प्रवृत्त होता है | तथा तमस गुण वाला व्यक्ति
इन्द्रियशून्य जन्म लेता है | “इसलिये व्यक्ति को इन सब
बातों का विचार करके ही आचरण करना चाहिये | क्योंकि नए जन्म
का बीजप्रद पिता मनुष्य स्वयं है, ब्रह्म तो जन्म देने वाली
माता के समान है | और इस प्रकार मृत्यु और आत्मा की
देहान्तरप्राप्ति निश्चित रूप से चिरन्तन सत्य है | “यदा
सत्त्वे प्रवृद्धे तू प्रलयं यान्ति देहभृत्, तदोत्तमविदां
लोकानमलान्प्रतिपद्यते | रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते,
तथा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते || (14/14,15)
अस्तु, सोच विचार कर
कर्माकर्म का भेद करके व्यवहार करते हुए जीवन यापन करना इस देहान्तरप्राप्ति के
सिद्धान्त की मूल भावना है... हम सभी कर्म और अकर्म तथा विकर्म में भेद को समझते
हुए जीवन यापन करते रहें, यही कामना है...