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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *बीसवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*उन्नीसवें भाग* में आपने पढ़ा :
*महावीर विक्रम बजरंगी*
अब आगे :-----
*कुमति निवार सुमति के संगी*
*कुमति*
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*कुमति* का अर्थ होता *दुष्टबुद्धि* ! जिस प्रकार *माया* दो प्रकार की होती , *विद्या* दो प्रकार की होती है उसी प्रकार *मति* अर्थात *बुद्धि* भी दो प्रकार की कही गयी है | *सुमति* (सुबुद्धि ) *कुमति* (कुबुद्धि) | *मति* (बुद्धि) तो एक ही होती है परंतु जब बह दुर्भावनाओं से युक्त रजोगुण मिश्रित तभावेष्ठित हो जाती है तो उसे *कुमति* कहा जाता है तथा जब वही *बुद्धि* सद्भावनाओं की वृत्तियों के सहयोगी , सत्त्वगुण सम्पन्न होती है तो *सुमति* कहलाती है | *कुमति* के कारण ही सम्पूर्ण विश्व में उत्पात , कलह , ईर्ष्या - द्वेष , दुर्भावनायें आदि मूल बनकर अनेक प्रकार के संकटों को जन्म देती हैं | ध्यान देने की बात यह है कि *कुमति* के कारण जितने उपद्रव होते हैं उनको अलग - अलग शान्त करके समाधान नहीं किया जा सकता है , न ही इनका अंत आ सकता है | *कुमति* की प्रत्येक इकाई संकट का स्वरूप धारण करके नित नये नये रूप में उपस्थित होकर मनुष्य को पागल बनाये रहती हैं | एक - एक का समाधान करते - करते जीवन समाप्त हो जाता है तथा जीव जीवन भर दीन हीन बना रहता है | *कुमति* के कारण अनेक विपत्तियां आती रहती हैं यथा :- *जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना* | इस लिए गोस्वामी जी कहते हैं कि *हे हनुमान जी* आप कृपा करते ही सर्वप्रथम *कुमति* का निवारण करते हैं | जब *कुमति* समाप्त हो गयी तो विपत्ति स्वयं समाप्त हो जायेगी |
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*निवार*
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जिस प्रकार समस्या का भी निवारण किया जाता है , शंका का भी निवारण है समाधान किया जाता है , उसी प्रकार *हनुमान जी* से प्रार्थना है कि *कुमति* का निवारण कर दीजिए | निवारण करना क्या होता है ? जब द्वैध में से निस्तारण कर एक को अलग कर दिया जाता है तो *निवारण* शब्द काम में आता है | यहां *निवार* शब्द बहुत मार्मिक है | निवारण का अर्थ है निवारणा निवार का अर्थ है निवारण करके अर्थात निवारण की क्रिया के बाद मिश्रित पदार्थों में से एक को अलग कर देना | अब कुछ लोग कह सकते हैं कि समस्या में अलग क्या किया जा सकता है ? समस्या में भी द्वन्द होता है कि क्या किया जाए या ना किया जाए ? उन्हीं विभिन्न कार्यों में से कर्तव्य कर्म को अलग करके निश्चित कर देना ही *निवारण* करना या समाधान करना है | इसी प्रकार शंका में भी यही स्थिति होती है कि इसे मानें या उसे मानें | एक का निश्चय कर ग्रहण कर लेना ही शंका का समाधान हो जाता है | यहां *निवार* शब्द इसलिए लिखा गया क्योंकि *कुमति एवं सुमति* एक साथ रहती हैं | सभी के हृदय में रहती हैं | यदि विचार व सात्त्विक बुद्धि बल से इसे अलग न किया जाय तो मिश्रित पदार्थों के मिश्रित फल की भांति ही परिणाम होता है | त्रिगुणात्मक प्रपंच में गुण - अवगुण मिश्रित रूप से ही रहते हैं इनको अलग करना आसान नहीं है | कोई सात्त्विक बुद्धि वाला सन्त ही इसे अलग कर हंस की तरह गुणों को ग्रहण करता है | यथा :--
*विधि प्रपंच गुन अवगुन साना*
या फिर
*संत हंस गुन गहहिं पय , परिहरि वारि विकार*
इसी प्रकार *हनुमान जी* के लिए कहा गया है कि *हे हनुमान जी* आप भी सन्त हैं | *सुमति और कुमति* के मिश्रण युक्त प्रपंच से *कुमति* को अलग कर *सुमति* को संग रखते हैं अथवा आप हमारी भी *कुमति निवार* सुमति प्रदान कीजिए | *सुमति एवं कुमति* सबके ही हृदय में रहती है जिसमें से *कुमति* को निरंतर *निवारिये* तो *सुमति* ही शेष संग रह जाएगी |
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*सुमति के संगी*
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*हनुमान जी* आप उन्हीं के संगी साथी हैं जो *कुमति* का त्याग कर *सुमति* धारण करते हैं | सृष्टि के मिश्रित प्रपंच में आप केवल *सुमति* के ही साथ रहते हैं , मिश्रित को साथ नहीं रखते उसमें से *कुमति* रहित *सुमति* के ही आप साथी हैं | *कुमति* निवार रहित *सुमति* ही आपके साथ रह सकती है | विधि प्रपंच में भले ही दोनों साथ रहे परंतु आपके साथ आकर के *कुमति* स्वमेव अंतर्ध्यान हो जाती है | *तुलसीदास जी* ने यहां पर *हनुमान जी* के सन्त होने व कर्तव्य कर्म में सहयोग देने तथा *कुमति* अकार्य प्रेरक बुद्धि को *निवार* अर्थात हटा देने की सहज प्रक्रिया स्वभाव का वर्णन किया है |
*महावीर* के साथ ही रोमांचित साहस पूर्ण कार्यों को सहज ही कर देने के कारण आप *विक्रम* भी कहे जाते हैं | आपकी देह *वज्र* की बनी हुई है अर्थात *वज्र* यथा अखंडनीय कठोरतम पदार्थ है | इसी प्रकार आपकी देह इतनी बलवती है कि *वज्र* की भांति इस पर शत्रुओं के किसी अस्त्र-शस्त्र के प्रहार का कोई प्रभाव नहीं होता है | जब आप का प्रहार शत्रु पर होता है तो *वज्राघात* से कम नहीं होता | युद्ध में जिनको *वज्र प्रहार* से भय नहीं आता था वह भी आपकी मुष्टिका प्रहार से भय खाते थे | रावण का पुत्र मेघनाद इंद्रजीत कहलाता था , वह इंद्र के *वज्राघात* से भी भय नहीं खाता था परंतु उसे भी हनुमानजी के प्रहार से भयभीत होकर दूर भागने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं दिखाई पड़ा | जैसा कि बाबा जी ने *मानस* में लिखा है :--
*बार-बार पचार हनुमाना !*
*निकट न आव मरम सो जाना !!*
यद्यपि अस्त्र में आपके पास *बज्र* की गदा शोभित है किंतु युद्ध में भी गदा के स्थान पर मुष्टिका ही *वज्रांग* होने से पर्याप्त रहती है | सिंहिका , लंकिनी , मेघनाथ , कुंभकरण एवं यहां तक कि रावण को भी अपने मुष्टिका प्रहार से ही धराशायी कर दिया था |
इस प्रकार हनुमान जी को *विक्रम बजरंगी* कहा गया है | यद्यपि हाथ में *वज्र* ( गदा ) धारण करने के कारण भी *बजरंगी* कहा जा सकता है | जिस प्रकार भगवान शंकर के हाथ में मृत्युंजय स्वरूप में खाट का पाया होने के कारण ही उन्हें *खट्वांग* कहा जाता है , किंतु यहां देश की वलिष्ठता ही *वज्र* कही गई है | हाथ में धारण करने की बात इसी *चालीसा स्तुति)* में आगे कहीं गई है | यथा :- *( हाथ वज्र अरु ध्वजा विराजे )* अतः यहां शरीर की *वज्रता* को ही प्रतिपादित किया गया है |
देह की *वज्रता* दैहिक कर्म में भी स्पष्ट है जिनमें :- मुष्टिका प्रहार , पर्वतों को उठाना ही नहीं बल्कि पाद प्रहार से धरती में धंसा देना भी सम्मिलित है | एक कथा भी प्राप्त होती है कि :- एक बार अति शैशवकाल में माँ अंजनी की गोद से लुढ़ककर पर्वत की चट्टान पर *हनुमानजी* जी के गिर जाने से वह चट्टान टूट गई थी |
इस प्रकार आपके शरीर को *वज्र* के समान मानते हुए बाबा तुलसीदास जी ने *महावीर विक्रम बजरंगी* लिख दिया |
*शेष अगले भाग में :-----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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