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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *चौंतीसवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*तैंतीसवें भाग* में आपने पढ़ा :
*लाय संजीवनि लखन जियाये !*
*श्री रघुवीर हृषि उर लाये !!*
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अब आगे :---
*रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई !*
*तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई !!*
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तुलसीदास जी महाराज ने भगवान *श्री रामचंद्र जी* को अनेकों नामों से संबोधित किया है | यहां पर उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के लिए *रघुपति* शब्द लिखा है | रघु प्राणी को भी कहा जाता है | *रघुपति अर्थात प्राणी मात्र के स्वामी* होते हुए भी उन्होंने *हनुमान जी* की बहुत बड़ाई की | यह भगवान की महत्ता है कि वह अपने भक्तों को बड़ाई देते हैं , और जब स्वयं *रघुपति* ने *हनुमान जी* की बहुत बड़ाई की तो *हनुमान जी* वास्तव में बड़ाई के पात्र तो हैं ही |
*विचार किया जाय की बड़ाई क्या किया ?*
इसके आगे तुलसीदास जी लिखते हैं *तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई* अर्थात श्री राम जी कहते हैं कि *हनुमान* तुम मुझे *भरत* के समान प्रिय हो |
*यहाँ पर जिज्ञासा हो सकती है कि आखिर इस ने बड़ाई क्या हुई ?*
इस पर र थोड़ा चिंतन कर लिया जाय*
भगवान श्री राम *हनुमान जी* को प्रियता में भाई *भरत* के समान बताया | *भरत जी क्या हैं ?*
*भरत जी* स्वयं भगवान के विग्रह अवतार इन के ही समान बता कर के *हनुमान जी* की बड़ाई भगवान श्रीराम ने की | बड़ाई का अभिप्राय बड़ापन बताना व राम आदि चारों भाइयों में रामजी से बड़ा तो कोई था नहीं दूसरे स्थान पर अन्य दो भाइयों से बड़े *भरत* जी ही थे | पहले इनके समान कोई नहीं था परंतु अब *हनुमान जी* को भरत के समान कहके उन्होंने *हनुमान जी* को यश प्रदान किया |
*एक अन्य भाव:----*
भगवान श्रीराम ने कहा कि तुम मेरे विशिष्ट प्रिय हो *तुम मम प्रिय* व भरत के समान भाई प्रिय *भरतहिं सम भाई* अर्थात तुम मेरे भाइयों से भी अधिक प्रिय *भरत सम भाई* कहकर भाइयों को तो सभी को एवं स्वयं को समाहित करते हुए *हनुमान जी* को सब के समान कहते हुए विशेष प्रिय कर दिया `
*एक अन्य भाव:---*
भगवान श्रीराम ने कहा कि तुम मेरे ही नहीं बल्कि *भरत* के भी भाइयों के समान मम भाई हो क्योंकि संजीवनी लाते समय रास्ते में *भरत* से जो मिल कर आए हो तो *भरत* को भी तुम्हारे बल पौरुष और मेरे स्नेह संबंध का पता लग गया |
*एक अन्य भाव:---*
*भरत* से यद्यपि तुम मिल कर आए हो किंतु *भरत सम भाई* अर्थात भरत को सभी भाई समान प्रिय है पर मेरे तुम विशेष प्रिय हुए क्योंकि तुम लक्ष्मण को जीवन देने वाले हो |
*यह विचार करने की बात है कि लक्ष्मण के समान ना कह कर के हनुमान जी को श्री राम ने भरत के समान क्यों कहा*
*इसका भाव देखा जाय*
लक्ष्मण सामने होने से सौजन्य वश लक्ष्मण से उपमा देना लक्ष्मण की बड़ाई होती जो कि शालीनता के विरुद्ध थी | लक्ष्मण को पंचवटी में सीता की रखवाली पर छोड़ा तो सीता जी को खो दिया व *हनुमान जी* ने सीता का पता लगाया | लक्ष्मण युद्ध में मूर्छित हुए तो तुमने उन्हें जीवनदान दिया | सेवा की सफलता से अधिक मान सम्मान दिया | *भरत लाल जी* लक्ष्मण से बड़े हैं बड़ाई के लिए *भरत जी* की उपमा दी |
*एक अन्य भाव:--*
लक्ष्मण जी शेषनाग के अवतार माने जाते हैं (कल्पभेद से ) शेषनाग भगवान विष्णु जी की शैय्या के रूप में व भगवान शंकर के गले के हार बनकर रहते हैं | भगवान विष्णु और शिव तत्व से एक ही है | भगवान विष्णु के अवतार *भरत लाल जी* हैं :-- *विश्व भरण पोषण कर जोई ! ताकर नाम भरत अस होई !!* व *हनुमान जी* शंकर के अवतार हैं :-- *रुद्र देह तजि नेह बस वानर भे हनुमान*
*भरत सम भाई* कहकर श्पीराम ने *हनुमान जी* का यशोगान किया |
*एक अन्य भाव :---*
अयोध्या में बैठे हुए भगवान राम का चिंतन एवं मर्यादा की रक्षा करने वाले *भरत जी* धनुष कला बल पर *हनुमान जी* को संजीवनी सहित रण क्षेत्र में भेजने में समर्थ परंतु वही उतनी अवधि में संजीवनी को लेकर *हनुमान जी* आ गए | अत: बल स्नेह और पौरुष में *हनुमान जी* को *भरत जी* के समान जानकर कि श्री राम ने *हनुमान जी* को भरत के समान उपमा दी | भगवान श्री राम ने विचार किया अयोध्या में मेरे दायित्वों का निर्वाह भरत कर रहे हैं व लंका युद्ध में तुम कर रहे हो | दोनों समान प्रिय हो | अयोध्या की राज्यश्री की पुनः प्राप्ति *भरत* के कारण होगी वह यहां युद्ध में श्री अर्थात सीता की पुनर्प्राप्ति तुम्हारे कारण होगी अतः *हनुमान* तुम दोनों मुझे सामान प्रेम करते हो , हमें सामान प्रिय हो | भगवान श्रीराम को भरत से अधिक कोई और प्रिय नहीं था इसलिए *हनुमान जी* को भरत के समान उपमा दी |
*एक विचार और कर लिया जाय*
श्री रामचरितमानस किष्किंधा कांड में जब *हनुमान जी* एवं श्री राम का प्रथम मिलन होता है तब भगवान श्री राम ने हनुमान जी से कहा था :- *सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना ! तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना !!* अर्थात लक्ष्मण से दूना प्रिय कहा और यहां पर भरत के समान क्यों कहा ?
यहां पर भी भगवान श्री राम लक्ष्मण के समान प्रिय न कह कर लक्ष्मण से दूना प्रिय कहा था और लक्ष्मण से दूना प्रिय *भरत जी* ही हैं इसलिए तुलसीदास जी ने लिख दिया *तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई*
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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