*सनातन धर्म में जितना महत्व पूजा - पाठ , साधना - उपासना का है उससे कहीं अधिक महत्त्व परिक्रमा का है | परिक्रमा करने से अनेकों जन्मों के पाप भी नष्ट हो जाते हैं | हमारे शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है :- "यानि कानि च पापानि , जन्मांतर कृतानि च ! तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदिक्षण पदे पदे !! अर्थात :- अनेको जन्मों में जाने - अनजाने में जो भी पाप कर्म हुए हैं वह सभी परिक्रमा मार्ग पर उठने वाले एक-एक पद से नष्ट होते चले जाते हैं , इतना ही नहीं परिक्रमा मार्ग पर उठने वाला एक-एक पद करोड़ों यज्ञों का फल प्रदान करता है :- "ज्यों ज्यों पग आगे बढ़े कोटिन्ह यज्ञ समान" इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए किसी भी देवी - देवता , देवालय या दिव्य पुरियों की परिक्रमा की व्यवस्था हमारे महापुरुषों ने बनाई थी | जन्मों के पाप भी नष्ट हो सकते हैं , करोड़ों यज्ञों का फल भी प्राप्त हो सकता है परंतु इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य में श्रद्धा और विश्वास का होना | बिना श्रद्धा - विश्वास के कुछ भी प्राप्त कर पाना असंभव है | जिस समय भगवान शिव ने अपने दोनों पुत्रों को आदेश दिया कि जो सबसे पहले सृष्टि की परिक्रमा करके आएगा उसका विवाह पहले होगा | उस समय इस आदेश को सुनकर कुमार कार्तिकेय जी अपने वाहन मयूर पर बैठकर सृष्टि की परिक्रमा करने चल पड़े परंतु बुद्धि के भंडार लंबोदर गणेश जी ने अपने मन में विचार किया की समस्त सृष्टि का मूल तो माता-पिता ही है , माता पिता के प्रति श्रद्धा एवं माता-पिता में ही सम्पूर्ण सृष्टि होने का विश्वास करके गणेश जी ने भगवान शिव एवं महामाया पार्वती की परिक्रमा करके स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया | कहने का तात्पर्य है कि किसी भी देवी - देवता की परिक्रमा फलदायी तभी हो सकती है जब परिक्रमार्थी के मन में ईश्वर के प्रति श्रद्धा और विश्वास हो अन्यथा परिक्रमा के नाम पर सिर्फ दौड़ने से कोई फल नहीं प्राप्त होने वाला है , इसलिए यह आवश्यक है कि मनुष्य को सबसे पहले स्वयं में श्रद्धा प्रकट करते हुए विश्वास स्थापित करना होगा जिससे कि उसके द्वारा किए गए कर्मों का यथोचित फल उसको प्राप्त हो सके |*
*आज सप्तपुरियों में प्रथम मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की जन्म स्थली श्री अयोध्या जी एवं लीला पुरुषोत्तम योगेश्वर भगवान कृष्ण की जन्मस्थली मथुरा की चौदहकोसी परिक्रमा बहुत ही धूमधाम के साथ की जा रही है , परंतु आज यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है आज की जाने वाली यह परिक्रमा अधिकतर दिखावा मात्र बनकर रह गई है | आज जिस प्रकार अपने मूल देवी - देवता अर्थात माता-पिता का निरादर करके लोग देवताओं या उनके धामों की परिक्रमा करते हैं उससे उन्हें क्या फल मिलने वाला है ? प्राय: लोग कहते हैं कि हमने अनेक साधना की , उपासना की , पूजा - पाठ किया , अनेक धामों की परिक्रमा की परंतु हमें उसका फल नहीं मिला | ऐसे सभी लोगों से मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" स्पष्ट रूप से कह देना चाहता हूं कि आज यदि उनको किसी भी धार्मिक कृत्य का यथोचित फल नहीं प्राप्त हो रहा है तो उसका एक ही कारण है कि साधक के मन की श्रद्धा और उसका विश्वास निर्बल है | श्रद्धा - विश्वास की कमी एवं आतुरता के कारण ही मनुष्य को उसके कृत्यों का यथोचित फल नहीं प्राप्त हो पा रहा है | देवी - देवता के ऊपर विश्वास करने से पहले स्वयं के ऊपर विश्वास करना चाहिए क्योंकि जब तक स्वयं पर विश्वास नहीं होगा तब तक कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती | बाबाजी मानस में बताते हैं :- बिनु विश्वास की समता आवइ" | अत: जब तक मनुष्य में समता नहीं आएगी तब तक ईश्वर की कृपा नहीं प्राप्त कर सकता है | आज परिक्रमा के पावन अवसर पर यही कहना चाहूंगा की परिक्रमा करने से फल तभी प्राप्त होगा जब मन में श्रद्धा और ईश्वर के प्रति अटूट विश्वास हो | परिक्रमा का बहुत बड़ा महत्व है और लोग परिक्रमा कर भी रहे हैं परंतु आज जिस प्रकार की परिक्रमा की जा रही है उसे देखकर बरबस ही हंसी आ जाती है | मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि परिक्रमा करनी ही नहीं चाहिए अवश्य करनी चाहिए परंतु अपने मनोभावों को विश्वास में लेकर के |*
*अनेकों यज्ञानुष्ठान , पूजा , परिक्रमा तब तक नहीं सफल होगी जब तक हमारे जन्मदाता माता - पिता के हृदय से हमारे लिए आशीर्वाद नहीं निकलेगा | जिसके माता - पिता अपने पुत्रों के कृत्यों एवं सेवा से प्रफुल्लित होकर आशीर्वाद दे रहे हैं उन्हें किसी भी पूजा परिक्रमा की आवश्यकता ही नहीं है | क्योंकि सारे देवी देवता एवं तीर्थों का निवास माता पिता में ही है |*