*सनातन धर्म का प्रत्येक कार्य शुभ कर्म करके तब प्रारंभ करने की परंपरा रही है | विगत चार महीनों से सभी शुभ कार्य चातुर्मास्य के कारण बंद पड़े थे , आज देवोत्थानी एकादशी के दिन भगवान श्री हरि विष्णु के जागृत होने पर सभी शुभ कार्य प्रारंभ हो जाएंगे | शुभ कार्य प्रारंभ होने से पहले मनुष्य के द्वारा कुछ अलौकिक दिव्य कर्म करने की परंपरा हमारे सनातन धर्म में बनाई गई है | विवाह आदि प्रारंभ होने के पहले कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन सर्वप्रथम महारानी तुलसी एवं भगवान शालिग्राम का विवाह संपन्न किया जाता है | इनका विवाह होते ही संसार में वैवाहिक कार्यक्रम प्रारंभ हो जाते हैं | आज के दिन भगवती तुलसी का विधिवत पूजन कर उनको एक चौकी पर स्थापित कर के बगल में भगवान शालिग्राम को रखकर मांगलिक वस्त्र (चुनरी साड़ी) आदि चढ़ा करके , सौभाग्य द्रव्य अर्थात सिंदूर चूड़ी आदि समर्पित करके रक्षा सूत्र से भगवान शालिग्राम के साथ गठबंधन करके औपचारिक रूप से इनका विवाह संपन्न कराया जाता है | जहां एक और पूरे विश्व में प्रकृति के साथ खिलवाड़ हो रहा है वही सनातन धर्म में प्रकृति के समस्त अवयवों की पूजा समय-समय पर की जाती रही है , क्योंकि हमारे मनीषियों का मानना था कि यदि प्रकृति सुरक्षित है तो मनुष्य सुरक्षित रहेगा अन्यथा मनुष्य का जीवन सुरक्षित नहीं है | तुलसी पूजन जहां एक और पौराणिक महत्त्व स्वयं में समेटे है वही वैज्ञानिक भी इससे इंकार नहीं कर सकते | नानागत रोगों से बचाने में तुलसी सिद्ध औषधि है , इसलिए प्रत्येक सनातन धर्मी के आंगन में या गमले में तुलसी का पौधा अवश्य होना चाहिए | वैसे तो वर्ष भर तुलसी की पूजा एवं दीपदान चलता रहता है परंतु कार्तिक मास में विशेष रुप से तुलसी की पूजा कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से प्रारंभ करके एकादशी तक करनी चाहिए , और एकादशी के दिन भगवती तुलसी का शालिग्राम के साथ विवाह संपन्न कराकर मनुष्यों के वैवाहिक कार्यक्रमों का शंखनाद कर देना चाहिए |*
*आज जहां एक और तुलसी विवाह की धूम मची हुई है वही धर्म नगरी अयोध्या की पंचकोसी परिक्रमा भी चल रही है | परिक्रमा के विषय में वैसे तो पूर्व में भी बताया जा चुका है परंतु समय-समय पर की जाने वाली भिन्न-भिन्न परिक्रमायें भिन्न-भिन्न महत्व रखती हैं ` सनातन धर्म में परिक्रमा या प्रदक्षिणा षोडषोपचार पूजन का एक विशेष अंग है | परिक्रमा क्या है ? इसको हमारी शास्त्रों में बताया गया है "प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं" अर्थात अपने दाहिनी ओर को चलना प्रदक्षिणा कहलाता है | प्रदक्षिणा या परिक्रमा में एक बात सदैव ध्यान रखनी चाहिए कि दाहिना अंग सदैव देवता की ओर होना चाहिए | पंचकोसी परिक्रमा के विषय में मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि जैसे चौरासीकोसी परिक्रमा करके मनुष्य लखचौरासी से मुक्ति कामना करता है , चौदहकोसी परिक्रमा करके चौदह लोकों को भ्रमण से मुक्ति की कामना करता है वैसे ही पंच तत्वों से निर्मित इस मानव शरीर के पंचतत्व जनित विकारों का हरण करने के लिए उनका विनाश करने के लिए पंचकोसी परिक्रमा की जाती है | पंचकोशी परिक्रमा के अनेक कारणों में एक कारण यह भी है कि पूर्वकाल से भक्तजन , संत - संयासी , महापुरुषों की यह मान्यता थी कि जिन परमात्मा की कृपा से हमें यह पंचतत्व निर्मित मानव शरीर प्राप्त हुआ है वे जगदीश्वर जब अपनी निद्रा का त्याग करें तो हम उनका पूजन तो विधिवत (गृहस्थी या संसार के प्रपंचों के कारण) नहीं कर सकते तो कम से कम उनका भजन , नाम संकीर्तन करते हुए अपने पंचतत्व जनित विकारों का शमन करते हुए उनकी परिक्रमा करते रहें | वैसे यदि ध्यान दिया जाय तो सारी सृष्टि परिक्रमा ही कर रही है पृथ्वी अपनी परिक्रमा कर रही है , सूर्य परिक्रमा कर रहा है , चंद्रमा एवं तारे अपनी परिक्रमा कर रहे हैं | कहने का तात्पर्य है जब सृष्टि के मूल तत्व सतत् परिक्रमा में रत है तो मनुष्य को भी निरन्तर नहीं तो कम से कम समय-समय पर परिक्रमा करके अपने जीवन के मल को धोने का प्रयास अवश्य करना चाहिए |*
तुलसी विवाह हो चाहे पंचकोशी परिक्रमा इन सब का उद्देश्य एक ही है की व्यस्ततम जीवन से कुछ समय निकालकर अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा समर्पित करते रहना चाहिए |