सकारात्मक सोच
अपने द्वारा निर्धारित लक्ष्य पर पहुँचने के मनुष्य यदि लिए कटिबद्ध हो गया हो तब उसे नकारात्मक लोगों की निराशाजनक बातों की ओर कदापि ध्यान नहीं देना चाहिए। उनके सामने उसे बहरा अथवा मूर्ख बन जाने का ढोंग करना चाहिए। तब फिर उन्हें अनदेखा करके उसे अपने लक्ष्य का संधान कर लेना चाहिए।
ये निराशावादी लोग कभी किसी को प्रोत्साहित कर ही नहीं सकते। इनके हर कार्य के साथ किन्तु, परन्तु जुड़ा रहता है। हर कार्य में सफलता या लाभ के विषय में न सोचकर ये हर समय असफलताओं की लम्बी लिस्ट लेकर बैठ जाते हैं। ये लोग हर समय रोते-झींकते रहते हैं। परेशानियों के साथ इनका चोली-दामन का साथ रहता है जिसे छोड़ना नहीं चाहते, बल्कि जबरदस्ती गले गलाते हैं।
इसीलिए न ये स्वयं कोई साहसिक कार्य कर सकते हैं और न किसी दूसरे को करने देना चाहते हैं। सबको हतोत्साहित करके बस अपने दायित्व को पूरा कर लेते हैं। यही कारण है कि जीवन में सफलता इनके आगे-आगे भागती रहती है और ये उसे पाने के लिए उसके पीछे भरसक दौड़ लगाते रहते हैं।
साहसी मनुष्य को चाहिए कि जब भी वह किसी कार्य करने के बारे में ठोस योजना बनाए तब सकारात्मक विचार वाले सज्जनों से परामर्श ले। उनकी मूल्यवान सोच कभी उसे डूबने नहीं देगी। वे सदा ऐसी सलाह देंगे जिससे दूसरों की उन्नति होती रहे।
एक बोध कथा की यहाँ चर्चा करना चाहती हूँ। एक मेंढक ने पेड़ की चोटी पर चढ़ने के विषय में विचार किया और फिर वह आगे बढ़ने लगता है। उसे उस पेड़ पर चढ़ता देखकर बाकी के सारे मेंढक शोर मचाने लगते हैं- "ये असम्भव कार्य है आज तक कोई भी मेंढक पेड़ पर नहीं चढ़ सका। यह नहीं हो सकता है, तुम पेड़ पर नहीं चढ़ पाओगे। इसलिए अच्छा यही है कि तुम लौटकर वापिस आ जाओ।"
मेंढक का संकल्प और दृढ़ निश्चय रंग लाया और आखिरकार वह पेड़ की चोटी पर पहुँच ही जाता है।
इसका कारण यही है कि वह मेंढक बहरा होता है और अपने साथियों की बात नहीं सुन सका। सारे मेंढकों को चिल्लाते हुए देखकर उसने अपने मन में यही सोचा कि आज वह एक आश्चर्यजनक और ऐतिहासिक कार्य करने जा रहा है। उसके सभी साथी उसका उत्साह बढ़ा रहे हैं। इससे वह और अधिक जोश से भर जाता है और अन्ततः अथक संघर्ष करते हुए असम्भव कार्य को कर गुजरता है।
यह बोधकथा हमें यही सिखाती है कि मनुष्य चाहे तो क्या नहीं कर सकता? उसकी संकल्पशक्ति दृढ होनी चाहिए जो किसी भी परिस्थिति में डाँवाडोल नहीं होनी चाहिए। इस दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर वह अनेकानेक साहसिक कार्य कर लेता है।
वे कार्य कोई भी हो सकते हैं- चाहे आकाश को नापना हो, ग्रह-नक्षत्रों आदि की जानकारी जुटाना हो, ऊँचे पर्वतों का सीना चीरकर सुविधाजनक यातायात के लिए रेल या सड़क मार्ग बनाना हो, समुद्र पर पुल बनाना या जहाज चलाना हो, हिमालय की चढ़ाई करनी हो अथवा फिर खूँखार जंगली जानवरों को वश में करना हो।
कैसा भी कठिन या असम्भव कार्य हो वे मानो चुटकी बजाते ही कर लेते हैं। वे मुसीबतों से कभी घबराते नहीं हैं। तभी तो सच्चे पराक्रमी कहलाते हैं। सकारात्मक सोच वाले यही लोग इतिहास रचते हैं और उन हैरतअँगेज कारनामों को आने वाली पीढ़ियाँ पढ़ती हैं। उनमें से भी कुछ लोग उन्हीं के पदचिह्नों का अनुगमन करते हुए धारा के विपरीत चलते हुए इतिहास में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं।
इसीलिए मनीषियों का सद्परामर्श सभी सकारात्मक सोच वालों के लिए है कि यत्नपूर्वक नकारात्मक सोच वालों से किनारा कर लेना चाहिए। उनके विचारों को सुनने की यदि मजबूरी सामने आ जाए तो उसे अनसुना करते हुए आगे बढ़ते चलो। जीवन में मनुष्य को अपनी तुलना कभी किसी दूसरे से नहीं करनी चाहिए। उसे इस बात को अपने मन में गहरे बिठा लेनी चाहिए कि वह ईश्वर की एक रचना है। इसलिए वह जैसा भी है सर्वश्रेष्ठ है। ईश्वर के हर कार्य में अच्छाई होती है। उसे भी मालिक ने कुछ सोचकर ही इस संसार मे भेजा है।
उस प्रभु की हर रचना अपने आप में सर्वोत्तम और अद् भुत होती हैं। किसी भी इन्सान में इतनी सामर्थ्य नही है कि उसे समझ सके अथवा उसमें से कोई कमी नहीं निकालकर स्वयं को सर्व शक्तिमान सिद्ध सके। इसलिए अपने में विद्यमान कमियों अथवा आने वाली परेशानियों को देखते हुए सदा ही अपने आप को कोसते रहना उचित नहीं है। उस मालिक पर पूर्ण आस्था रखनी चाहिए।
यहाँ एक उदाहरण लेते हैं। हम एक बीज बोते हैं और उससे एक बहुत बड़ा वृक्ष उत्पन्न होता है। पर जब हम उस बीज को खोलकर देखते हैं तो हमें कुछ भी ऐसा भी नहीं दिखाई देता। उस समय हम समझ ही नहीं पाते कि यह नन्हा-सा बीज महान वृक्ष का कारक होगा।
एक छोटे से बीज में इतना बड़ा वट वृक्ष समाया होता है। उसी प्रकार मनुष्य के अन्तस् में भी अनन्त सम्भावनाएँ विद्यमान रहती हैं। आवश्यकता होती है तो बस उन्हें तलाशने की। अपनी आन्तरिक सामर्थ्य को पहचानकर उसके अनुसार कार्य करने वाले को जीवन में कभी हार का स्वाद नहीं चखना पड़ता।
मनुष्य को यह सोचकर कभी दुखी नहीं होना चाहिए कि उसके पास कुछ नहीं है। उसके पास यह नहीं है या वह नहीं है, सोचने के स्थान पर उसे पुनः पुनः यह मनन करना चाहिए कि सीमित समय के लिए मिले हुए इस मानव जीवन में उसके पास क्या-क्या है? उसे अपने जीवन में क्या-क्या करना चाहिए? क्या वह अपने जीवन में कुछ नए मानकों की स्थापना कर सकता है?
मनुष्य को यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि दुनिया की कोई भी शक्ति उसे तब तक नहीं हरा सकती जब तक वह स्वयं ही हार न माने। अपना मनोबल उच्च रखते हुए मनुष्य को संसार सागर में छलाँग लगा लेनी चाहिए। यह निश्चित मानिए कि वह इसे पार करने की सामर्थ्य रखता है। चाहे तो सफलता अवश्य ही उसके कदम चूमेगी।
इसमें कोई दोराय नहीं है कि यदि मनुष्य सही है, उसने कोई गलती नहीं की तो उसे क्रोध नहीं करना चाहिए। अपने बेगुनाह होने की बात को दृढ़तापूर्वक सबके समक्ष रखना चाहिए।
इसके विपरीत यदि मनुष्य ने गलती की हैं तो उसे गुस्सा करने का हक बिल्कुल नहीं है। तब तो यह चोरी और सीनाजोरी वाली बात हो जाएगी जिसकी सराहना किसी तरह नहीं की जा सकती। उस समय क्षमा याचना करने से उसे परहेज नहीं करना चाहिए। अपनी गलती के लिए क्षमा याचना करने वाला कभी छोटा नहीं हो जाता बल्कि उसे महत्त्व दिया जाता है।
घर-परिवार के लोग तथा बन्धु-बान्धव सभी यही चाहते हैं कि उनका प्रियजन अपने जीवनकाल में कुछ अच्छा करे। लेकिन इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि वे कभी नहीं चाहते कि उनका वह प्रियजन उनसे बेहतर करें। जहाँ पर वह उनसे आगे बढ़ने लगता है, सभी उसकी टाँग खींचने में लग जाते हैं। उसे नीचा दिखाकर आत्मतुष्टि करते हैं।
यदि मनुष्य अपने पूर्व निर्धारित दृष्टिकोण में किञ्चित मात्र परिवर्तन कर ले तो उसका काया कल्प सम्भव हो सकता है। इसलिए हर समय को उपयुक्त समय मानते हुए ही मनुष्य को सदा उत्साह और लग्न से अपने दायित्वों का निर्वहण करते रहना चाहिए।
नकारात्मक विचारों का परित्याग करते हुए, अपनी सोच का दायरा विस्तृत करके उसे सकारात्मक बनाते हुए, दुनिया के साथ कदम ताल करते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद