अपनों का साथ
अपने घर-परिवार और बन्धु-बान्धवों को यत्नपूर्वक विश्वास में लेना चाहिए। यदि अपनों का साथ किसी को मिल जाए, तो समझिए उस इन्सान ने जिन्दगी की जंग जीत ली है। इस विश्वास को जीतने के लिए मनुष्य को अपने स्वार्थ को त्याग देना चाहिए। अपने साथ-साथ अपनों को भी आगे बढ़ने का मौका देना चाहिए और आवश्यकता पड़ने पर उनकी सहायता भी करनी चाहिए।
यदि मनुष्य अपनों से द्रोह करता है, तब आज नहीं तो कल बाहर वाले मूर्ख उस पर राज करने लगेंगे। अपने जब धोखा देते हैं तो बहुत कष्ट होता है। यह मुहावरा इसीलिए बना हैं कि-
'घर का भेदी लंका ढाए।'
यानी जब अपने ही अपनों की बरबादी का कारण बन जाते हैं, तो फिर कोई रक्षा नहीं कर सकता। यदि विभीषण भाई की मृत्यु का रहस्य भगवान श्रीराम को न बताता, तो शायद युद्ध का रुख बदला हुआ होता।
यह तो सर्वविदित है कि लोहा केवल लोहे से ही काटा जाता है। यदि लोहा लोहे को न काटे, तो उसे दुनिया की कोई वस्तु नहीं काट सकती। इसी तरह पेड़ों से बनने वाली माचिस की तीलियों से ही लकड़ी को आग लगाई जाती है। इसी प्रसंग में कहना चाहूँगी कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि यदि अपने प्रियजन जब शत्रुता निभाने पर आ जाएँ, तो अपने ही विनाश का कारण बन जाते हैं।
एक बोधकथा की चर्चा करते हैं जिसे आप सबने इसे पढ़ा होगा। कहते हैं कि एक बार एक कुत्ते और गधे के बीच शर्त लगी कि जो जल्दी दौड़ते हुए दो गाँव आगे रखे हुए एक सिंहासन पर पहले बैठेगा, वही उस सिंहासन का अधिकारी माना जाएगा और राज्य करेगा।
जैसा कि निश्चित हुआ था दौड़ शुरू हुई। कुत्ते को पूरा विश्वास था कि वही जीतेगा और सिंहासन पर बैठेगा, क्योंकि गधा कभी भी उससे तेज नहीं भाग सकता। उसका भाग्य किस करवट बैठने वाला है यानी उसके भाग्य में क्या लिखा है यह उस कुत्ते को ज्ञात नहीं था।
शर्त के अनुसार कुत्ता तेजी से दौड़ने लगा। ज्योंहि वह थोडा-सा ही आगे गया था कि स्वभावत: गली के कुत्ते मिलकर उसे अपनी गली से खदेड़ने के लिए लपकने तथा नोचने लगे। उन्होंने उस पर भौंकना शुरू किया। ऐसा ही व्यवहार उसके साथ हर गली, हर चौराहे पर होता रहा। जैसे तैसे कुत्ता हाँफते हुए सिंहासन के पास पहुँचा तो यह देखकर हैरान रह गया कि गधा पहले से सिंहासन पर विराजमान है। वह उससे पहले ही वहाँ पहुँच चुका था। शर्त के अनुसार बाजी जीतकर वह राजा बन चुका था।
यह सब देखकर निराश हो चुका कुत्ता बोल पड़ा कि यदि मेरे ही लोगों ने मुझे पीछे न खींचा होता, तो आज ये गधा इस सिंहासन पर न बैठा होता। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि वह बेचारा कुत्ता खुशफहमी में बर्बाद हो गया।
लोहे की चर्चा एक बार पुनः करते हैं। लोहे से उत्पन्न जंग ही बस उसे नष्ट करता है। उसी तरह मनुष्य को भी कोई और नहीं बल्कि उसके विचार ही नष्ट करने में अहं भूमिका निभाते हैं।
मनुष्य यदि सहृदय होगा और सबको साथ लेकर चलने वाला बनेगा, तो सभी उसके सहायक बनते हैं। इस तरह उसका बल बढ़ जाता है। तब कोई बाहरी शक्ति उसका अहित नहीं कर सकती। इसके विपरीत सबके साथ विपरीत व्यवहार करने वाले से उसके अपने विमुख हो जाते हैं। निश्चित मानिए कि मनुष्य उस समय मूर्खों के वश में होता है। यदि विद्वानों के संसर्ग में हो तो वे उसे ऐसी मूर्खता नहीं करने देंगे।
मनुष्य को सदा अपनी सोच का दायरा विस्तृत रखना चाहिए। तभी उसका शुभ सम्भव हो सकता है। उसे सदा आत्म मंथन करते रहना चाहिए जिससे वह अपनी उचित मार्ग पर चले और पथभ्रष्ट न हो सके।
चन्द्र प्रभा सूद