*इस धरा धाम पर आने के बाद मनुष्य अनेकों प्रकार के कर्म करता रहता है क्योंकि ईश्वर ने उसे कर्म करने का अधिकार प्रदान कर रखा है | कर्म करना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है परंतु यहां एक प्रश्न मस्तिष्क में उठता है कि जब कर्म करना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है और मनुष्य उसे कर भी रहा है तो पाप कर्म एवं पुण्य कर्म , भला - बुरा आदि का भ्रम क्यों हो जाता है ? या फिर पाप कर्म क्या है ? और पुण्य कर्म क्या है ? कभी-कभी मनुष्य यह भी विचार करता है कि जब ईश्वर की इच्छा के बिना इस संसार में पत्ता तक नहीं हिल सकता तो पाप हो या पुण्य सब तो ईश्वर की मर्जी से ही हो रहा है , परंतु ऐसा नहीं है | संसार के प्रत्येक कर्म मनुष्य द्वारा जो किए जाते हैं वह पाप और पुण्य में मनुष्य की मनोवृति एवं उसके करने के विधान पर निर्भर करते है | इस संसार में कोई भी कर्म बुरा नहीं है परंतु उसके करने की व्यवस्था में भेद आ जाने से यह पाप और पुण्य में परिवर्तित हो जाता है | जैसे दान देना एक कर्म है परंतु जब दान किसी सुपात्र को दिया जाता है तो वह पुण्य बन जाता है परंतु वही दान जब कुपात्र के हाथ में चला जाता है तो वह पाप हो जाता है | इस संसार में ईश्वर ने सृष्टि को चलायमान करने के लिए मैथुनी सृष्टि की | मैथुन एक कर्म है परंतु यह कर्म अपनी पत्नी के साथ करने पर यह पुण्य हो जाता है और यही मैथुन कर्म जब किसी परस्त्री के साथ किया जाता है तो पाप हो जाता है | हिंसा भी एक कर्म है परंतु जब किसी आततायी ,अत्याचारी या हिंसक प्राणी को मारा जाता है तो पाप नहीं लगता परंतु यही हिंसा जब निरपराध के साथ होती है तो यह पाप में परिवर्तित हो जाता है | कहने का तात्पर्य यह है कि एक ही कर्म करने के विधान में जब भेद हो जाता है तो यही कर्म पाप एवं पुण्य में परिवर्तित होकर मनुष्य को फल प्रदान करता है | यदि गंभीरता पूर्वक विचार किया जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी कर्म भला या बुरा नहीं होता है परंतु उनका प्रयोग किस रूप में किया गया है उसी के अनुरूप वे पाप एवं पुण्य में परिवर्तित हो जाते हैं |*
*आज के आधुनिक में जहां मनुष्य पाप एवं पुण्य का विचार किए बिना नित्य कर्म कुकर्म कर रहा है वहीं पर इस समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें अपने कर्मों का ध्यान होता है | जो पाप एवं पुण्य पर विचार करते हैं तथा यह भी सोचते रहते हैं कि जब सारी सत्ता ईश्वर के हाथ में है तो पाप एवं पुण्य का भागी जीव को क्यों बनाया जाता है ? ऐसे सभी लोगों से मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यही कहना चाहूंगा कि ईश्वर ने कर्म करने का अधिकार दिया है आप कर्म कैसे करते हैं यह आपके हाथ में होता है | ईश्वर ने किसी को भी पाप एवं पुण्य करने का आदेश नहीं दिया है | पाप एवं पुण्य मनुष्य के मन के अनुसार होता है ! रही बात ईश्वर की तो कोई भी कर्म करने के पहले मनुष्य के मस्तिष्क में दो प्रकार के विचार उठते हैं पहला सकारात्मक तो दूसरा नकारात्मक | जब मनुष्य कोई बुरा कर्म करने का विचार करता है तो सबसे पहले उसके मस्तिष्क में उठ रहे सकारात्मक भाव उसको ऐसा करने से मना करते हैं परंतु नकारात्मक भाव प्रभावी हो करके मनुष्य से वह बुरा कर्म करवाता है | इस प्रकार यदि विचार किया जाय तो सकारात्मक भाव के रूप में ईश्वर मनुष्य को पाप कर्म करने से रोकता है परंतु मन के अधीन मनुष्य ईश्वर के इशारे को नहीं समझ पाता और पाप कर्म करता रहता है | अब विचार किया जाय कि जब मनुष्य पाप कर्म करने के बाद उसके फल को भोगता है तो ईश्वर को दोष देता है कि ईश्वर ने ऐसे कर्म बनाए ही क्यों ? परंतु उस कर्म को करते समय जिस सकारात्मक भाव ने उसको रोका होता है वह उस पर विचार नहीं कर पाता कि ईश्वर ने तो हमें रोका परंतु दोषी हम हैं | मनुष्य की मनोवृत्ति ऐसी है कि वह अपने दोष को देख ही नहीं पाता है और मिथ्या आरोप दूसरों पर लगाता रहता है | ईश्वर ने मनुष्य को विवेक रूपी ऐसा अस्त्र दिया है जिसके माध्यम से वह भले बुरे का विचार कर सकता है परंतु मनुष्य विवेक का प्रयोग ना करके ऐसे कर्मों में संलग्न रहता है | कहने का तात्पर्य है कि पाप एवं पुण्य मनुष्य के मन के भाव होते हैं एक ही कर्म को मनुष्य का मन जिस भाव से देखता है वह कर्म उसी भाव में मनुष्य के द्वारा किया जाता है इसमें ईश्वर का कोई दोष नहीं होता |*
*कभी-कभी मनुष्य पुण्य कर्म करते हुए भी पाप कर्मों का फल पा जाता है इसका कारण यही है कि अपने सगे संबंधियों के द्वारा किए गए पाप कर्मों का कुछ अंश मनुष्य को भोगना पड़ता है | दूसरे के कर्मों का फल भी मनुष्य को मिल जाता है और ज्ञान के अभाव में मनुष्य इनके रहस्य को नहीं समझ पाता |*