गुरु पूर्णिमा
व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय
नमो नम:॥
ब्रह्मज्ञान के भण्डार, महर्षि वशिष्ठ के वंशज साक्षात भगवान विष्णु के स्वरूप
महर्षि व्यास को हम नमन करते हैं और उन्हीं के साथ भगवान विष्णु को भी नमन करते
हैं जो महर्षि व्यास का ही रूप हैं | शनिवार 24 जुलाई को आषाढ़ पूर्णिमा यानी गुरु
पूर्णिमा – जिसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है - का पावन पर्व है... सर्वप्रथम सभी
गुरुजनों को नमन... कल 23 जुलाई को प्रातः दस बजकर तैंतालीस मिनट के लगभग आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा तिथि
का उदय होगा जो शनिवार को प्रातः आठ बजकर छह मिनट तक रहेगी | जो लोग पूर्णिमा का
व्रत रखते हैं उन्हें कल ही व्रत करना होगा – क्योंकि पारायण के समय पूर्णिमा तिथि
का होना आवश्यक है | किन्तु सूर्योदय काल में पूर्णिमा तिथि 24 को होने के कारण व्यास पूजा शनिवार को
ही की जाएगी |
पंचम वेद “महाभारत” के रचयिता कृष्ण द्वैपायन
वेदव्यास का जन्मदिन इसी दिन मनाया जाता है | महर्षि
वेदव्यास को ही आदि गुरु भी माना जाता है इसीलिए व्यास पूर्णिमा और गुरु पूर्णिमा एक
दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं | भगवान वेदव्यास
ने वेदों का संकलन किया, पुराणों और उप
पुराणों की रचना की, ऋषियों के अनुभवों को सरल बना कर
व्यवस्थित किया, पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना की तथा विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र
का लेखन किया । इस सबसे प्रभावित होकर देवताओं ने महर्षि वेदव्यास को “गुरुदेव” की
संज्ञा प्रदान की तथा उनका पूजन किया । तभी से व्यास पूर्णिमा को “गुरु पूर्णिमा” के
रूप में मनाने की प्रथा चली आ रही है |
आषाढ़ मास की पूर्णिमा का महत्त्व
बौद्ध समाज में भी गुरु पूर्णिमा के रूप में ही है | बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार
ज्ञान प्राप्ति के पाँच सप्ताह बाद भगवान बुद्ध ने भी सारनाथ पहुँच कर आषाढ़ पूर्णिमा
के दिन ही अपने प्रथम पाँच शिष्यों को उपदेश दिया था | इसलिये
बौद्ध धर्मावलम्बी भी इसी दिन गुरु पूजन का आयोजन करते हैं | साथ
ही आषाढ़ मास की पूर्णिमा होने के कारण इसे आषाढ़ी पूर्णिमा भी कहा जाता है |
चातुर्मास का आरम्भ भी इसी दिन से हो
जाता है | जैन मतावलम्बियों के लिए चातुर्मास का विशेष महत्त्व है | सभी जानते हैं
कि अहिंसा का पालन जैन धर्म का प्राण है | क्योंकि इन चार महीनों में बरसात होने के कारण अनेक ऐसे जीव जन्तु भी सक्रिय
हो जाते हैं जो आँखों से दिखाई देते | ऐसे में मनुष्य के अधिक चलने फिरने के कारण
इन जीवों की हत्या अहो सकती है | इसीलिए जैन साधू इन चार महीनों में एक ही स्थान
पर निवास करते हैं और स्वाध्याय आदि करते हुए अपना समय व्यतीत करते हैं |
मातृवत् लालयित्री च, पितृवत्
मार्गदर्शिका,
नमोऽस्तु गुरुसत्तायै, श्रद्धाप्रज्ञायुता
च या ||
वास्तव में ऐसी श्रद्धा और प्रज्ञा से
युत होती है गुरु की सत्ता – गुरु की प्रकृति – जो माता के सामान ममत्व का
भाव रखती है तो पिता के सामान उचित मार्गदर्शन भी करती है | अर्थात
गुरु अपने ज्ञान रूपी अमृत जल से शिष्य के व्यक्तित्व की नींव को सींच कर उसे
दृढ़ता प्रदान करता है और उसका रक्षण तथा विकास करता है | तो सर्वप्रथम
तो समस्त गुरुजनों को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए सभी को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक
बधाई और शुभकामनाएँ |
हमारे देश में पौराणिक काल से ही आषाढ़
शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूजा के रूप में मनाया जाता है | इस अवसर
पर न केवल गुरुओं का स्वागत सत्कार किया जाता था, बल्कि
माता पिता तथा अन्य गुरुजनों की भी गुरु के समान ही पूजा अर्चना की जाती थी | वैसे
भी व्यक्ति के प्रथम गुरु तो उसके माता पिता ही होते हैं |
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा से प्रायः वर्षा
आरम्भ हो जाती है और उस समय तो चार चार महीनों तक इन्द्रदेव धरती पर अमृत रस
बरसाते रहते थे | आवागमन के साधन इतने थे नहीं, इसलिए
उन चार महीनों तक अर्थात चातुर्मास की अवधि में सभी ऋषि मुनि एक ही स्थान पर निवास
करते थे | और इस प्रकार इन चार महीनों तक प्रतिदिन गुरु के सान्निध्य का सुअवसर
शिष्य को प्राप्त हो जाता था और उसकी शिक्षा निरवरोध चलती रहती थी | क्योंकि
विद्या अधिकाँश में गुरुमुखी होती थी, अर्थात लिखा हुआ
पढ़कर कण्ठस्थ करने का विधान उस युग में नहीं था, बल्कि
गुरु के मुख से सुनकर विद्या को ग्रहण किया जाता था | गुरु
के मुख से सुनकर उस विद्या का व्यावहारिक पक्ष भी विद्यार्थियों को समझ आता था और
वह विद्या जीवनपर्यन्त शिष्य को न केवल स्मरण रहती थी, बल्कि
उसके जीवन का अभिन्न अंग ही बन जाया करती थी | इस
समय मौसम भी अनुकूल होता था – न अधिक गर्मी न सर्दी | तो
जिस प्रकार सूर्य से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता तथा फसल उपजाने की सामर्थ्य प्राप्त
होती है उसी प्रकार गुरुचरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञानार्जन की सामर्थ्य
प्राप्त होती थी और उनके व्यक्तित्व की नींव दृढ़ होती थी जो उसके व्यक्तित्व के
विकास में सहायक होती थी |
एक शिक्षक पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ जाता है देश के भविष्य को
आकार देने का | शिक्षक ज्ञान का वह धरातल है जिससे ज्ञान और संस्कार का बीज
प्रस्फुटित होकर संपूर्णता की सुवास से ओत-प्रोत वृक्ष बनता है | शिक्षक ज्ञान से मस्तिष्क की क्षुधा का
शमन करते हैं - फिर चाहे वो प्रथम गुरु माता हों या पिता अथवा विद्या दान करने
वाले शिक्षक | एक उत्तम शिक्षक सही ग़लत का
भेद बताकर शिष्य के व्यक्तित्व को सँवारता है | क्योंकि ज्ञान के प्रकाश के बिना किसी भी जीव का जीवन अपूर्ण
है | यही कारण है कि शिक्षक
बच्चों के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं | उन्नति के पथ पर ज्ञान का प्रकाश प्रसारित कर अज्ञान के मार्ग
की ठोकरों से शिक्षक बचाता है तो मार्ग भटक जाने पर प्रताड़ना भी देता है और स्नेह
की वर्षा कर संघर्षों की धूप से थकित मन को शीतलता भी प्रदान करता है | वह शून्य को शून्य से परिचित कराकर शून्य
को समस्त के साथ जुड़ना सिखाता है ताकि वह शून्य विस्तार पा सके और उसके मनःपटल पर
ज्ञान विज्ञान की विविध शाखाओं के तारक दल झिलमिला उठें |
आज बहुत सी समस्याएँ हैं शिक्षकों के सामने | महँगाई बढ़ती जा
रही है, स्कूल कॉलेजेज में फीस तो बढ़ाई
जाती है लेकिन उसमें से शिक्षाओं का वेतन कितना प्रतिशत बढ़ता है हमें नहीं मालूम |
अभिभावक बढ़ी हुई फीस के विरोध में अपने स्वर मुखर कर रहे हैं | हमें याद है हमारे
घर में पिताजी के पास और बाद में हमारे पास भी विद्यार्थी घर पर पढ़ने के लिए आया
करते थे, क्योंकि हम लोगों ने सबको
बोला हुआ था कि कुछ भी पूछना हो तो हमारे घर के दरवाज़े आपके लिए हर समय खुले हैं |
लेकिन हम लोग, और उस समय के अधिकाँश
शिक्षक – घर पर आने वाले स्टूडेंट्स से किसी प्रकार की फीस नहीं लिया करते थे |
साथ में उन्हें चाय नाश्ता कराते थे सो अलग | इस तरह एक परिवार जैसा प्रतीत होता
था छात्रों को भी और शिक्षकों को भी | इन्हीं सारी उदात्त भावनाओं के कारण
शिक्षकों का सम्मान भी बहुत था |
आज समय बहुत बदल गया है | समय तो परिवर्तनशील है | किन्तु हमें
अपने मूल्यों को नहीं खोना चाहिए... उन्हें नहीं भुला देना चाहिए... बस यही
प्रार्थना समस्त शिक्षक वर्ग से भी और छात्र वेग से भी तथा उनके अभिभावकों से भी
हमारी है... क्योंकि गुरु कभी चाणक्य बन नन्द वंश के अहंकारी राजा घनानन्द से मगध
की मुक्ति के लिए चंदगुप्त सरीखा अनुशासित शिष्य विकसित करता है तो कभी किंकर्तव्यविमूढ़
अर्जुन को गीता का उपदेश भी देता है... किन्तु इसके लिए शिष्य को भी चन्द्रगुप्त
और अर्जुन के समान होना होगा... गुरु की ऊर्जा वास्तव में अन्तहीन आकाश के समान है
और उत्तुंग पर्वत शिखरों से भी ऊँची है गुरु की गरिमा... तभी तो एक पत्थर को
प्रतिपल गढ़ते रहकर आकर्षक और ज्ञान विज्ञान से युक्त भव्य मूर्ति का निर्माण कर
देते हैं...
गुरु केवल शिष्य को उसका लक्ष्य बताकर उस तक पहुँचने का मार्ग ही नहीं
प्रशस्त करता अपितु उसकी चेतना को अपनी चेतना के साथ समाहित करके लक्ष्य प्राप्ति
की यात्रा में उसका साथ भी देता है | गुरु और शिष्य की आत्माएँ जहाँ एक हो जाती
हैं वहाँ फिर अज्ञान के अन्धकार के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता | और गुरु के
द्वारा प्रदत्त यही ज्ञान कबीर के अनुसार गोविन्द यानी ईश्वर प्राप्ति यानी अपनी
अन्तरात्मा के दर्शन का मार्ग है… इसलिए गुरु की सत्ता ईश्वर से भी महान है…
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय |
बलिहारी गुरु आपने जिन गोबिंद दियो बताए ||
तो, समस्त शिक्षकों
को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए एक बार पुनः सभी को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक
शुभकामनाएँ... हम सभी समस्त गुरुजनों के चरणकमलों में सादर अभिवादन करके उनका
आशीर्वाद प्राप्त करें... जय गुरुदेव…
____________________कात्यायनी...