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कानपुर में औद्योगिक क्रांति और प्रौद्योगिकी शिक्षा का अद्भुत समन्वय

17 अगस्त 2015

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featured imageकानपुर नगर ने न केवल राष्ट्रीय स्वाधीनता-संग्राम में वरन आर्थिक स्वाधीनता के संघर्ष में भी अग्रणी भूमिका निभाई है I १८५७ के स्वाधीनता संघर्ष के लगभग छ: दशकों के अन्तराल में कानपुर ने प्रौद्योगिकी शिक्षा के क्षेत्र में भी उत्तरी भारत का नेतृत्व ग्रहण किया और धर्म उद्योग तथा वस्त्र उद्योगों ने आधुनिक तकनीकी को अपनाकर देश को आत्मनिर्भर बनाने के क्षेत्र में पहल की I दो विश्व युद्धों के मध्य कानपुर में इन दो उद्योगों का न केवल व्यापक विस्तार ही हुआ अपितु इनकी प्रौद्योगिकी की शिक्षा को भी नए आयाम प्राप्त हुए I १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्तरी भारत में कानपुर नगर ने सूती वस्त्र व चमड़ा उद्योग में ख्याति प्राप्त की I एक ओर जहाँ बम्बई, कलकत्ता अहमदाबाद में इसी समय भारतीय उद्योगपति, उद्योगों में आगे आ रहे थे, वहीं दूसरी ओर कानपुर के औद्योगीकरण का श्रेय पूर्ण रूप से ब्रिटिश निवेशकों को है I चमड़े के उद्योग का विकास मूलतः सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ब्रिटिश आर्टिलरी ऑफिसर कैप्टन जॉन स्टीवर्ट ने किया जिन्होंने इसकी शुरुआत १८६३ में गवर्मेंट हार्नैस एंड सैडलरी फैक्ट्री की स्थापना द्वारा की I कानपुर नगर में सूती वस्त्र उद्योगों का विकास यहाँ उपलब्ध कच्चे माल की सुगमता के कारण हुआ जिसकी महत्ता को ईस्ट इंडिया रेलवे दूरदर्शी स्टेशन मास्टर मिस्टर ब्यूस्ट ने कानपुर कॉटन कमेटी की स्थापना कर व्यवस्थित रूप प्रदान किया I इसी संस्था के प्रयासों से कालांतर में एल्गिन स्पिन्निंग वीविंग कारपोरेशन की स्थापना की जिसे कानपुर में प्रथम औद्योगिक प्रतिष्ठान होने का श्रेय प्राप्त है I इस प्रकार ब्रिटिश अफसरों और निवेशकों के प्रयासों से २०वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक कानपुर सम्पूर्ण भारत में ही नहीं वरन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर औद्योगिक नगर के रूप में स्थापित हो गया I परन्तु औद्योगिक क्षेत्र में यह सम्पन्नता विदेशी तकनीक व भारतीय पूंजी पर निर्भर थी I कानपुर की मिलों व फक्ट्रियों में फोरमैन सुपरवाईज़र तथा इन्जीनियर के पद केवल अंग्रेजों को ही प्राप्त थे I भारतीय जनमानस अकुशल श्रमिक के रूप में छोटे पदों पर ही अपनी सेवाएँ प्रदान कर पा रहे थे I भारतीय श्रमिकों में कौशल का अभाव उनकी अशिक्षा तथा पश्चिमी ज्ञान-विज्ञानं के प्रति उदासीनता का परिणाम थी I एक ओर जहाँ विदेशी निवेशकों ने फक्ट्रियों व मिलों से भारी मुनाफा ग्रहण किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने भारतीय श्रमिकों के प्रशिक्षण के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाए I ब्रिटिश उद्योगपतियों की समस्याओं और आवश्यकताओं से सरकार को समय-समय पर अवगत कराने वाले ब्रिटिश उद्योगपतियों के समूह अपर इंडिया चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स ने भी इस क्षेत्र में लम्बे समय तक उदासीनता बनाए रखी I कानपुर में तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में प्रथम प्रस्ताव नैनीताल में १९०७ में संपन्न हुए इंडस्ट्रियल कांफ्रेंस में प्रस्तुत किया गया I इस प्रस्ताव के अनुसार कानपुर में स्थानीय उद्योगों यथा सूती वस्त्र, चमड़ा व शर्करा की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए इंस्टीटयूट की स्थापना का प्रस्ताव प्रस्तुत हुआ I परन्तु ब्रिटिश सरकार ने इस प्रस्ताव को धन की अनुपलब्धता होने के कारण अस्वीकार कर दिया I यही प्रस्ताव १२ वर्षों बाद १९२० में हरकोर्ट बटलर टेक्नोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के रूप में मूर्त रूप में परिणित हुआ जब प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारत के औद्योगिक पिछड़ेपन ने ब्रिटिश सरकार को तकनीकी शिक्षा के विकास के लिए तत्पर कर दिया I कानपुर में प्रथम इंडस्ट्रियल स्कूल १९१४ में गवर्नमेंट डाईंग एंड प्रिंटिंग स्कूल के रूप में स्थापित हुआ I यह स्कूल भारतीय विद्यार्थियों को अर्टिसन तथा फोरमैन (Dyer) जैसे पदों के लिए सर्टिफिकेट स्तर का प्रशिक्षण प्रदान करता था I यद्यपि यह स्कूल आधुनिक तकनीकी शिक्षा प्रदान करता था तथापि इनमें सीमित संख्या में मिलों व फक्ट्रियों के द्वारा ही प्रवेश प्रदान किया जाएगा I इसी श्रृंखला में कानपुर में १९१६ में लेदर वर्किंग स्कूल की स्थापना की गयी I इस स्कूल के प्रथम प्रधानाचार्य कश्मीरी पंडित श्री डी.एन. राजदान थे I ब्रिटिश सरकार की भारतीयों के साथ भेदभाव नीतियों के कारण राजदान को अपने वेतन तथा असिस्टेंट हेड मास्टर से हेड मास्टर पदोन्नति के लिए लम्बे समय तक संघर्ष करना पड़ा I श्री राजदान ने सीमित संसाधनों के बावजूद चमड़े के उत्पादों को बनाने का प्रशिक्षण प्रदान करना प्रारंभ किया I इस विद्यालय में यद्यपि एक मिस्त्री की भी नियुक्ति की गयी जो विद्यार्थियों को चर्म उत्पादों में प्रशिक्षण प्रदान करता था I तत्कालीन सामाजिक मान्यताओं के कारण मुस्लिम तथा छोटी जाति के हिन्दू विद्यार्थी ही प्रवेश के लिए आगे आए I ब्रिटिश सरकार की कृपणता के कारण इस विद्यालय में द्वितीय विश्वयद्ध के प्रारंभ तक विद्यार्थियों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं की गई I वर्ष १९२३ में कानपुर को गवर्नमेंट टेक्सटाइल स्कूल के रूप में एक और औद्योगिक स्कूल प्राप्त हुआ जो मूल रूप से थॉमसन इन्जीनीरिंग कॉलेज रूडकी की टेक्सटाइल क्लासेज़ को स्थानांतरित कर बनाया गया था I यह स्कूल कॉटन, कार्डिंग, स्पिन्निंग एंड वीविंग की ट्रेनिंग आधुनिक मशीनों पर प्रदान करता था I सन १९३७ में इस स्कूल तथा डाईंग एंड प्रिंटिंग स्कूल को संयोजित कर गवर्नमेंट सेंट्रल टेक्सटाइल इंस्टिट्यूट की स्थापना की गयी I इस प्रकार कानपुर में तकनीकी शिक्षा का विकास जो ब्रिटिश शासन काल में प्रारंभ हुआ, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी अनवरत गति से चलता रहा तथा भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान (कानपुर) की स्थापना से कानपुर को अखिल भारतीय स्टार पर तकनीकी शिक्षा प्रदान करने का गौरव प्राप्त हुआ I परन्तु ब्रिटिश काल में स्थापित लेदर वर्किंग स्कूल जो वर्तमान समय में राजकीय चर्म संस्थान के नाम से विख्यात है, हरकोर्ट बटलर टेक्नोलोजिकल इंस्टिट्यूट तथा गवर्नमेंट टेक्सटाइल इंस्टिट्यूट जो अपने आप में तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखते हैं, आधारभूत सुविधाओं तथा आधुनिकीकरण के अभाव में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त न कर सके I कानपुर में शनै: शनै: उद्योगों के ह्रास ने भी इन इंस्टीट्यूट्स के विद्यार्थियों के लिए स्थानीय स्तर पर ट्रेनिंग संभावनाओं को समाप्त कर दिया I अतः यहाँ के विद्यार्थियों ने कानपुर के औद्योगिक विकास की तुलना में देश व विदेश के औद्योगिक विकास को अधिक लाभान्वित किया I —प्रकृति भार्गव असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, सेंट्रल यूनिवर्सिटी, हिमांचल प्रदेश, धर्मशाला कांगड़ा (हि०प्र०)
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