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शिक्षकों का ‘अकाल’ फिर भी शिक्षा का अधिकार

2 सितम्बर 2015

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गिरिजा नंद झा सबके लिए जरूरी होनी चाहिए शिक्षा। समझने में लगे साठ साल से ज़्यादा का वक़्त। मगर, मुसीबत अब भी अपनी जगह बरकरार। वज़ह, इन साठ सालों में हमने लोगों को पढ़ाया ही कितना कि पढ़ाने वाले को तैयार कर पाते। एक तो सबको शिक्षा मिली नहीं। जिन्हें मिली, उसमें से ज़्यादातर नाम पता लिखने के काबिल मात्र ही बन पाए। जो पढ़-लिख सके, उन्होंने मास्टरी को ‘पेशा’ बनाने को राजी नहीं हुए। ना तो केंद्र की सरकार और ना ही राज्य सरकार ने कभी इस बात पर ग़ौर किया कि पढ़ाई-लिखाई अच्छी हो, इसके लिए पढ़ाने वालों को तैयार किया जाए। बिडंबना देखिए। शिक्षा देने का काम सरकार का है मगर, अब यह निजी हाथों में है। शिक्षा तभी दी जा सकती है जब शिक्षण संस्थानों तक की पहुंच आसान हो, मगर, अब भी यह कोसों दूर है। जहां स्कूल हैं, वहां शिक्षकों का अकाल है। जहां हैं उनमें से ज़्यादातर अनपढ़ हैं। और ऐसा भी नहीं है कि जो निजी स्कूल और काॅलेज हैं, वहां के ‘मास्टर’ ज़्यादा ‘स्मार्ट’ हैं। सिवाय इसके कि अभिभावक मोटी फीस भरते हैं और इस वज़ह से ऐसे स्कूलों की साज-सज्जा और बनावट राहत देने वाली दिख जाती है। सरकारी स्कूल इस मायने में भी अनाथ है। ऐसा नहीं है कि उसे सुधारा नहीं जा सकता मगर, सरकार को राजनीति से फुर्सत मिले तो बात आगे बढ़े। एक तो पढ़ने वालों की उम्र के बच्चों की जो संख्या है, उसके हिसाब से हमारे पास स्कूल-काॅलेज नहीं है। जो हैं भी, उनमें मास्टरों का अकाल है। ताजा स्थिति के अनुसार हमारे पास 12 लाख के करीब मास्टरों की जरूरत है। अलग-अलग राज्य के स्कूलों में। प्रामइरी स्तर पर ही 3.5 लाख के करीब मास्टरों की हमें जरूरत है। मास्टर बनने के लिए जो योग्यता रखी गई है, उस मापदंड को पूरा करने वालों की संख्या इससे 10 गुणा ज़्यादा है। प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के लिए। कुल मिला कर, अगर, शिक्षा देने के मामले में सजगता बरती जाए, तो फिलहाल यह बड़ी समस्या नहीं होनी चाहिए थी। स्थितियां थोड़ी तो बेहतर की ही जा सकती है मगर, इस पर जैसी गंभीरता दिखनी चाहिए, वैसी कहीं नज़र नहीं आ रही। स्थितियों पर ग़ौर किया जाए तो कम से कम हम अपने बच्चों को ‘साक्षर’ तो बना ही सकते हैं। स्थिति कितनी विकट है, इसकी भी पड़ताल हो ही जाए। मास्टर बनने के लिए देश में जो लोग कतार में खड़े हैं, उनके पास डिग्रियां तो हैं मगर, ज़्यादातर पढ़ाने के काबिल नहीं हैं। इस पर यकीन करने के लिए बहुत माथापच्ची की जरूरत नहीं है। ‘सीटेट’ नामक परीक्षा को पास करने वाले उम्मीदवारों की संख्या 10 से 15 प्रतिशत के बीच ही है। यह हालत तब है जब यह कोई प्रतियोगिता परीक्षा इस लिहाज़ से भी नहीं है क्योंकि कोई भी उम्मीदवार जो 60 प्रतिशत अंक हासिल कर लेता है, वह टीचर बनने के लायक माना जाता है। जितने उम्मीदवारों को इतने अंक मिल जाएंगे, सभी पात्रता हासिल कर लेंगे। मतलब, यह किसी तरह की प्रतियोगिता नहीं है। स्थिति की भयावहता को देखते हुए कुछ राज्यों ने तो इसकी जरूरत को ही खत्म कर दिया है। बावजूद इसके, स्कूलों में शिक्षकों के कमी को पाटा नहीं जा सका है। प्राथमिक स्तर का शिक्षा हम दे नहीं पा रहे हैं। माध्यमिक और उच्च स्तरीय शिक्षा हम कहां से दे पाएंगे? रही बात, स्कूलों में नामांकन बढ़ने की तो यह कितना फर्जी है, इससे हम सभी वाकि़फ है। सरकारी स्कूलों में किताब काॅपी तो बच्चों को नसीब होते नहीं हैं। किताब काॅपी उनके हाथों में साल गुजरने के बाद भी संयोग से ही पहुंच पाते हैं, फिर वे क्या पढ़ते होंगे और किस पर लिखते होंगे-इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। अधिकांश बच्चे तो स्कूल सिर्फ जाते इसलिए हैं कि लंगर की शैली में मिलने वाले एक वक़्त का भोजन उन्हें नसीब हो जाए। बावजूद इसके, आंकड़ों की सच्चाई को स्वीकार भी कर लें, तब भी स्थिति उतनी सामान्य नहीं है, जितनी हमें अपेक्षा करनी चाहिए। जिस देश में शिक्षक बनने की चाहत रखना, वैकल्पिक व्यवस्थाओं में शामिल हो, वहां पर शिक्षा के स्तर में सुधार संभव है, यह सोचना असंभव है।
गिरिजा नन्द झा

गिरिजा नन्द झा

बिलकुल मुझे ऐतराज नहीं है. हो सके तो एक प्रतिलिपि मुझे भी भेज दीजियेगा अच्छा लगेगा. मेरा नंबर है ९८१८२३१२९२. धन्यवाद

23 सितम्बर 2015

देवेश प्रताप सिंह गहरवार

देवेश प्रताप सिंह गहरवार

बहुत सुन्दर लेख है ,क्या इसका उपयोग मै अपने साप्ताहिक समाचार पत्र "व्यूह रचना "के लिए कर सकता हूँ ।...

22 सितम्बर 2015

गिरिजा नन्द झा

गिरिजा नन्द झा

आपके समर्थन के लिए धन्यवाद

4 सितम्बर 2015

वर्तिका

वर्तिका

सार्थक लेखन के लिए बधाई! आपका, ये लेख वर्तमान शिक्षा-प्रणाली की वास्तविकता से परिचय कराता है|

3 सितम्बर 2015

गिरिजा नन्द झा

गिरिजा नन्द झा

धन्यवाद आपका

2 सितम्बर 2015

ओम प्रकाश शर्मा

ओम प्रकाश शर्मा

जिस देश में शिक्षक बनने की चाहत रखना, वैकल्पिक व्यवस्थाओं में शामिल हो, वहां पर शिक्षा के स्तर में सुधार संभव है, यह सोचना असंभव है...अत्यंत सटीक एवं सार्थक लिखा है आपने गिरिजा जी !

2 सितम्बर 2015

मनोज

मनोज

सच के करीब आपकी बात ...

2 सितम्बर 2015

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