आने वाला वक्त अगर, दोहराएगा बीते लम्हें ,
उन्हें पकड़ के रख लूंगा ,जो छूट गए पीछे लम्हें ।
रफ्ता-रफ्ता उमींदों की, चादर जब बुन जायेगी ,
थोडा रूककर के सुस्तायेंगे ,यादों के मीठे लम्हें ।
माँ की उंगली पकड़ ठुमक कर ,चला करेंगे इतराके ,
आयेंगे कल बचपन की ,चंचलता के नीचे लम्हें ।
अभी वक्त है ठहर जरा तू,बतिया ले मन की बातें ,
ना जाने फिर चुप्पी ओढ़े ,आ जाएँ पीछे लम्हें ।
नवयोवन की भाषा सचमुच ,इतनी ज्यादा बदल गई ,
समझ नहीं पाते माँ-बाबा ,बच्चों के खीचे लम्हें ।
नैतिकता औ संस्कार को ,निगल रहा है परिवर्तन ,
हमने जो अरमानो से ,जी भर कर के सींचे लम्हें ।
अवधेश सिंह भदौरिया 'अनुराग'
01 नवम्बर 2015आदरणीय अर्चना जी आपकी सकारात्मक प्रितिक्रिया हमारा उत्त्साह बढ़ातीं है ,धन्यवाद!