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महाभारत के वीर

17 सितम्बर 2015

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महाभारत की कथा जितनी बड़ी है, उतनी ही रोचक भी है। शास्त्रों में महाभारत को पांचवां वेद भी कहा गया है। इसके रचयिता महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास हैं। महर्षि वेदव्यास ने इस ग्रंथ के बारे में स्वयं कहा है- यन्नेहास्ति न कुत्रचित्। अर्थात जिस विषय की चर्चा इस ग्रंथ में नहीं है, उसकी चर्चा कहीं भी उपलब्ध नहीं है। इस ग्रंथ में कुल एक लाख श्लोक हैं, इसलिए इसे शतसाहस्त्री संहिता भी कहते हैं। आज हम आपको इस ग्रंथ को कुछ रोचक बातें बता रहे हैं, जो बहुत कम लोग जानते हैं। ये रोचक बातें इस प्रकार हैं- महाभारत के युद्ध में कितने योद्धा मारे गए थे? महाभारत के स्त्री पर्व के एक प्रसंग में धृतराष्ट्र युधिष्ठिर से युद्ध में मारे गए योद्धाओं की संख्या पूछते हैं, तब युधिष्ठर कहते हैं कि इस युद्ध में 1 अरब 66 करोड़ 20 हजार वीर मारे गए हैं। इनके अलावा 24 हजार 165 वीरों का पता नहीं है। युधिष्ठिर बताते हैं कि जो वीर क्षत्रिय धर्म निभाते हुए मारे गए हैं, वे ब्रह्मलोक में गए हैं। जो युद्ध से भागते हुए मारे गए हैं, वे यक्षलोक में गए हैं। जो वीर ईमानदारी से लड़ते हुए मारे गए हैं, वे अन्य पुण्यलोकों में गए हैं। जब धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर से पूछा कि तुम्हारे पास ऐसी कौन सी शक्ति है, जिससे तुम ये सब बातें जानते हो, तो युधिष्ठिर ने बताया कि वनवास के दौरान देवर्षि लोमश ने मुझे जो दिव्य दृष्टि दी थी, उसी की सहायता से यह गुप्त बातें मुझे पता चली हैं। पांडवों की ओर से लड़ा था धृतराष्ट्र का एक पुत्र- जब महाभारत का युद्ध शुरू होने वाला था, तब युधिष्ठिर ने अपने रथ पर खड़े होकर कहा कि कौरव सेना में जो वीर हमारा साथ देना चाहे, मैं उसका स्वागत करने को तैयार हूं। युधिष्ठिर के ऐसा कहने धृतराष्ट्र का पुत्र युयुत्सु बड़ा प्रसन्न हुआ और कौरव सेना को छोड़ पांडव सेना में शामिल हो गया। युयुत्सु को अपनी सेना में आते देख युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि महाराज धृतराष्ट्र का वंश तुमसे ही चलेगा और तुमसे ही उन्हें पिंड मिलेगा। दरअसल जिस समय गांधारी गर्भवती थी, उस समय एक वैश्य कन्या धृतराष्ट्र की सेवा कर रही थी, युयुत्सु उसी का पुत्र था। युद्ध के बाद धृतराष्ट्र का सिर्फ यही एक पुत्र जीवित बचा था। राजा बनने के बाद युधिष्ठिर ने युयुत्सु को धृतराष्ट्र की सेवा करने की जिम्मेदारी सौंपी थी। महाभारत के महाप्रास्थानिक पर्व के अनुसार, अंत समय में जब पांडवों ने हस्तिनापुर का त्याग किया तब उन्होंने परीक्षित को राजा बनाकर युयुत्सु को ही संपूर्ण राज्य की देख-भाल करने के लिए कहा था। दुर्योधन क्यों करना चाहता था आत्महत्या, जानिए- वनवास के दौरान पांडव काम्यक वन में रह रहे थे। जब यह बात दुर्योधन को पता चली तो शिकार करने के बहाने उसने भी वहीं अपना शिविर बनवा लिया ताकि अपने ठाट-बाट दिखाकर पांडवों को जला सके। यहां किसी बात पर दुर्योधन का गंधर्वों से युद्ध हो गया। गंधर्व दुर्योधन को बंदी बना लेते हैं। गंधर्वों को हराकर पांडव दुर्योधन को छुड़ा लाते हैं। इस घटना से दुर्योधन स्वयं को बहुत अपमानित महसूस करता है और आत्महत्या करने की सोचता है। आत्महत्या का मन बनाकर दुर्योधन साधुओं के वस्त्र पहन लेता है और अन्न-जल त्याग कर उपवास के नियमों का पालन करने लगता है। यह बात जब पातालवासी दैत्यों को पता चलती है तो वे दुर्योधन को बताते हैं कि तुम्हारी सहायता के लिए अनेक दानव पृथ्वी पर आ चुके हैं। दैत्यों की बात मान कर दुर्योधन आत्महत्या करने का विचार छोड़ देता है और प्रतिज्ञा करता है कि अज्ञातवास समाप्त होते ही वह पांडवों का विनाश कर देगा। युधिष्ठिर का वध करना चाहते थे अर्जुन, जानिए क्यों- महाभारत के कर्ण पर्व के अनुसार, युद्ध के दौरान जब कर्ण कौरव सेना का सेनापति था, उस समय कर्ण और युधिष्ठिर में भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में कर्ण ने युधिष्ठिर को घायल कर दिया। घायल युधिष्ठिर अपने शिविर में आराम कर रहे थे, उसी समय अर्जुन व श्रीकृष्ण उनसे मिलने पहुंचे। युधिष्ठिर को लगा कि अर्जुन ने कर्ण का वध कर दिया है। इसलिए वह मुझसे मिलने आया है, लेकिन जब उन्हें पता लगा कि कर्ण जीवित है, तो उन्होंने अर्जुन को खूब खरी-खोटी सुनाई और अपने शस्त्र दूसरे को देने के लिए कहा। अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई मुझसे शस्त्र दूसरे को देने के लिए कहेगा, मैं उसका वध कर दूंगा। प्रतिज्ञा का पालन करते हुए अर्जुन ने युधिष्ठिर का वध करने के लिए जैसे ही अपनी तलवार उठाई, श्रीकृष्ण ने उन्हें रोक लिया। श्रीकृष्ण ने कहा कि अपने से बड़ों को यदि अपशब्द कहे जाएं तो वह भी उनका वध करने जैसा ही होता है। श्रीकृष्ण की बात मान कर अर्जुन ने युधिष्ठिर को अपशब्द कहे। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर और अर्जुन को समझा कर यह विवाद समाप्त करवाया। महाभारत के युद्ध में कौन-कौन से नियम बनाए गए थे? युद्ध से पहले कौरवों व पांडवों ने मिलकर युद्ध के कुछ नियम बनाए थे। भीष्म पर्व के अनुसार, वो नियम इस प्रकार थे- 1. रोज युद्ध समाप्त होने के बाद दोनों पक्ष के योद्धा प्रेमपूर्ण व्यवहार करेंगे। कोई किसी के साथ छल-कपट नहीं करेगा। 2. जो वाग्युद्ध (अत्यधिक क्रोधपूर्ण बातें) कर रहे हों, उनका मुकाबला वाग्युद्ध से ही किया जाए। जो सेना से बाहर निकल गए हों, उनके ऊपर प्रहार न किया जाए। 3. रथ सवार- रथ सवार के साथ, हाथी सवार- हाथी सवार के साथ, घुड़सवार- घुड़सवार के साथ व पैदल- पैदल के साथ ही लड़ाई करेंगे। 4. जो जिसके योग्य हो, जिसके साथ युद्ध करने की उसकी इच्छा हो, वह उसी के साथ युद्ध करे। दुश्मन को पुकारकर, सावधान करके उस पर प्रहार किया जाए। 5. जो किसी एक के साथ युद्ध कर रहा हो, उस पर दूसरा कोई वार न करे। जो युद्ध छोड़कर भाग रहा हो या जिसके अस्त्र-शस्त्र और कवच नष्ट हो गए हों, ऐसे निहत्थों पर वार न किया जाए। 6. भार ढोने वाले, शस्त्र पहुंचाने वाले और शंख बजाने वालों पर प्रहार न किया जाए। कौरवों की ओर से लड़े थे नकुल-सहदेव के मामा- राजा शल्य महाराज पांडु की दूसरी पत्नी माद्री के भाई थे। इस रिश्ते से वे नकुल-सहदेव के मामा थे। जब उन्हें युद्ध के बारे में पता चला तो वे अपनी विशाल सेना लेकर पांडवों की सहायता के लिए निकल पड़े। दुर्योधन को जब यह पता चला तो उसने राजा शल्य के मार्ग में विशाल सभा भवन बनवा दिए और साथ ही उनके मनोरंजन के लिए भी प्रबंध कर दिया। जहां भी राजा शल्य की सेना पड़ाव डालती, वहां दुर्योधन के मंत्री उनके खाने-पीने की उचित व्यवस्था कर देते। इतनी अच्छी व्यवस्था देखकर राजा शल्य बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें लगा कि ये प्रबंध युधिष्ठिर ने करवाया है। राजा शल्य को प्रसन्न देखकर दुर्योधन उनके सामने आ गया और युद्ध में सहायता करने का निवेदन किया। राजा शल्य ने उन्हें हां कह दिया। युधिष्ठिर के पास जाकर राजा शल्य ने उन्हें सारी बात बता दी। युधिष्ठिर ने कहा कि आपने दुर्योधन को जो वचन दिया है उसे पूरा कीजिए। युद्ध के समय आप कर्ण के सारथि बनकर उसे भला-बुरा कहिएगा ताकि उसका गर्व नष्ट हो जाए और उसे मारना आसान हो जाए। राजा शल्य ने ऐसा ही किया। युद्ध से पहले ऐसी थी ग्रहों की दशा- महाभारत का युद्ध शुरू होने से पहले ग्रहों की दशाएं भी किसी भयंकर अपशकुन होने का संकेत कर रही थीं। महाभारत के उद्योग पर्व के अनुसार, जब महर्षि वेदव्यास राजा धृतराष्ट्र के पास पहुंचे और उन्होंने बताया कि इस समय भयंकर अपशकुन हो रहे हैं और ग्रह-नक्षत्र भी अमंगल की सूचना दे रहे हैं। महर्षि वेदव्यास ने बताया कि इस समय शनिदेव रोहिणी नक्षत्र को पीड़ा दे रहे हैं। राहु सूर्य पर आक्रमण कर रहा है। केतु चित्रा नक्षत्र पर स्थित है। धूमकेतु पुष्य नक्षत्र में स्थित है। यह महान ग्रह दोनों सेनाओं का घोर अमंगल करेगा। मंगल वक्री होकर मघा नक्षत्र पर स्थित है। गुरु श्रवण नक्षत्र पर तथा शुक्र पूर्वा भाद्रपद पर स्थित है। इस बार तो एक ही महीने के दोनों पक्षों में त्रयोदशी को ही सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण हो गए हैं। इस प्रकार बिना पर्व का ग्रहण होने से ये दोनों ग्रह अवश्य ही प्रजा का संहार करेंगे। इतना कहकर महर्षि वेदव्यास वहां से चले गए। धरती से ऊपर चलता था युधिष्ठिर का रथ, इसलिए आ गया नीचे- महाभारत के द्रोण पर्व के अनुसार, जब गुरु द्रोणाचार्य पांडव सेना का सफाया कर रहे थे। तब श्रीकृष्ण ने पांडवों को गुरु द्रोण की मृत्यु का उपाय सूझाया। इसके अनुसार, भीम ने अपनी ही सेना के अश्वत्थामा नामक हाथी को मार डाला और द्रोणाचार्य के सामने जाकर जोर-जोर से चिल्लाने लगे कि अश्वत्थामा मारा गया। अपने पुत्र की मौत की खबर सुनकर आचार्य द्रोण को विश्वास नहीं हुआ। तब उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर से इसके बारे में पूछा। युधिष्ठिर ने ऊंचे स्वर में कहा कि अश्वत्थामा मारा गया और उसके बाद धीरे से बोले, किंतु हाथी। इसके पहले युधिष्ठिर का रथ पृथ्वी से चार अंगुल ऊंचा रहता था, लेकिन उस दिन असत्य मुंह से निकलते ही उनका रथ जमीन से सट गया। स्वर्गारोहण पर्व के अनुसार, इसी झूठ के कारण युधिष्ठिर को थोड़ी देर के लिए नरक भी देखना पड़ा था। मर कर फिर से जीवित हो गए थे अर्जुन- युद्ध समाप्त होने के बाद पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ किया। उस यज्ञ के घोड़े का रक्षक अर्जुन को बनाया गया। यज्ञ का घोड़ा घूमते-घूमते मणिपुर पहुंच गया। यहां की राजकुमारी चित्रांगदा से अर्जुन को बभ्रुवाहन नाम का पुत्र था। बभ्रुवाहन अपने पिता का स्वागत करना चाहता था, लेकिन अर्जुन ने उसे युद्ध करने के लिए कहा। उसी समय नागकन्या उलूपी भी वहां आ गई। उलूपी भी अर्जुन की पत्नी थी। अर्जुन व बभ्रुवाहन में युद्ध होने लगा। बभ्रुवाहन के तीरों से घायल होकर अर्जुन बेहोश होकर धरती पर गिर पड़े। तभी वहां बभ्रुवाहन की माता चित्रांगदा भी आ गई। चित्रांगदा ने देखा कि अर्जुन जीवित नहीं है। बभ्रुवाहन ने भी जब देखा कि उसने अपने पिता की हत्या कर दी है तो वह भी शोक करने लगा। जब नागकन्या उलूपी ने बभ्रुवाहन को संजीवन मणि दी और उसे अर्जुन की छाती पर रखने के लिए कहा। मणि छाती पर रखते ही अर्जुन जीवित हो उठे। उलूपी ने बताया कि छल पूर्वक भीष्म का वध करने के कारण वसु (एक प्रकार के देवता) आपको श्राप देना चाहते थे। आपको वसुओं के श्राप से बचाने के लिए ही मैंने ही यह माया दिखलाई थी। जानिए महाभारत में कौन, किसका अवतार था? पांचवे वेद के रूप में प्रसिद्ध महाभारत ग्रंथ के अधिकांश पात्र देवता व असुरों के अवतार थे। जानिए महाभारत में कौन किसका अवतार था- भीष्म द्यौ नामक वसु के अवतार थे। भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में तथा शेषनाग ने बलराम के रूप में अवतार लिया था। देवगुरु बृहस्पति के अंश से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। अश्वत्थामा महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से उत्पन्न हुए। रुद्र के एक गण ने कृपाचार्य के रूप में अवतार लिया। द्वापर युग के अंश से शकुनि का जन्म हुआ। यमराज ही विदुर के नाम से प्रसिद्ध हुए। कर्ण, सूर्य का अवतार था। युधिष्ठिर धर्म के, भीम वायु के, अर्जुन इंद्र के तथा नकुल व सहदेव अश्विनी-कुमारों के अंश से उत्पन्न हुए थे। रुक्मिणी के रूप में लक्ष्मीजी व द्रौपदी के रूप में इंद्राणी उत्पन्न हुई थीं। दुर्योधन कलियुग का तथा उसके सौ भाई पुलस्त्य वंश के राक्षस के अंश थे। अभिमन्यु, चंद्रमा के पुत्र वर्चा का अंश था। धृतराष्ट्र व पाण्डु गंधर्वों के अवतार थे। कुंती और माद्री के रूप में सिद्धि और घृतिका का जन्म हुआ था। मति का जन्म गांधारी के रूप में हुआ था। शुक्राचार्य का पेट फाड़ कर निकल आए थे कच- महाभारत के आदिपर्व के अनुसार स्वर्ग पर अधिकार के लिए देवता व असुरों में निरंतर युद्ध होता रहता था। असुरों के गुरु शुक्राचार्य संजीवनी विद्या जानते थे। इसलिए वे मरे हुए असुरों को पुनर्जीवित कर थे, लेकिन देवताओं के गुरु बृहस्पति के पास वह विद्या नहीं थी। तब देवताओं के कहने पर बृहस्पति के पुत्र कच शुक्राचार्य के शिष्य बन गए। जब असुरों को पता चला कि कच का उद्देश्य शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखना है, तो उन्होंने कच को मार कर उसका शव भेड़ियों को खिला दिया। शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या से उसे पुनर्जीवित कर दिया। तब असुरों ने कच को जलाकर उसकी राख शराब में मिला कर शुक्राचार्य को पिला दी।जब शुक्राचार्य को इस बात का पता चला तो उन्होंने पेट में ही कच को संजीवनी विद्या का ज्ञान दिया और पुनर्जीवित कर दिया। कच, शुक्राचार्य का पेट फाड़ कर बाहर आ गए और संजीवनी विद्या से उन्हें पुनर्जीवित कर दिया।

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