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रामविलास शर्मा का भाषाविज्ञान विमर्श

19 सितम्बर 2015

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-ः संक्षिप्ति:- डाॅ. रामविलास शर्मा हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार, यशस्वी आलोचक और ख्यातिप्राप्त के भाषाविद् एवं मनीषी विद्वान रहे हैं। हिंदी साहित्य के अंतर्गत बहुत कम हिंदी साहित्यकार ऐसे हैं, जिन्होंने भाषा चिंतन तथा विशेष रूप से हिंदी भाषा चिंतन पर विचार किया है। उनका चिंतन बहुमुखी था। वे विश्व के उन विशिष्ट लेखकों में से चमकते तारे की भाँति हैं, जिन्होंने साहित्य की आलोचना के साथ-साथ भाषा विज्ञान के क्षेत्र में भी अपनी नवीन स्थापनाओं के माध्यम से उसे नवीन दिशा प्रदान की। डाॅ. शर्मा ने भाषा का समाज-सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक विवेचन करके अनेक अभूतपूर्ण भाषावैज्ञानिक निष्कर्ष दिये। उनके भाषाशास्त्रीय चिंतन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह विश्व समुदाय के भाषा वैज्ञानिकों के चिंतन के समानांतर चलने वाला चिंतन है जिसकी कोई शिष्य परम्परा नहीं है लेकिन यह भारत में स्थापित सबसे सशक्त भाषावैज्ञानिक स्कूल है। इस स्कूल के संस्थापक भी वही हैं और विकासकर्ता भी वही हैं। विशेष तथ्य यह है कि परवर्ती हिंदी के भाषाशास्त्रीय चिंतकों ने डाॅ. शर्मा के चिंतन मार्कसवादी मानते हुए उसे उतना महत्व नहीं दिया जितना दिया जाना चाहिए था, लेकिन उनके चिंतन का अपने लेखन में पूर्णरूपेण उपयोग किया है। प्रस्तुत शोधालेख का मुख्य उद्देश्य डाॅ. शर्मा के भाषा विमर्श पर प्रकाश डालना है। प्रस्तावना:- भाषा साहित्य की संवाहिका है और चंूकि साहित्य के माध्यम से भाषा तथा भाषा के माध्यम से साहित्य समाज के समक्ष प्रस्तुत होते हैं इसलिए साहित्य का समाज का दर्पण कहा जाता है। डाॅ. रामविलाश शर्मा ने जहां एक ओर उच्च कोटि का साहित्य रचा वहीं भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भाषा संबंधी विवेचन भी अभूतपूर्व ढंग से प्रस्तुत कर भाषा और साहित्य के अंतःसंबंध तथा दोनों की समाज से अभिन्नता को सिद्ध किया। सर्वविदित है कि डाॅ.शर्मा अंग्रेजी के अध्यापक रहे परंतु हिंदी के प्रति विशेष लगाव ने ही उन्हें हिंदी का ऐसा प्रेमी बना दिया जिसने प्रेमांध होकर बिना की परवाह किए हुए अपने हिंदी प्रेम को संसार के समक्ष रखा। तीन खंडों में प्रकाशित डाॅ. शर्मा की आत्मकथा ‘अपनी धरती अपने लोग’ में उनके हिंदी प्रेम की झलक अनेक स्थलों में विद्यमान है। सन् 1935 में अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा- ‘‘कुछ भी हो, मैं यह छिपाना नहीं चाहता कि मेरे जीवन का ध्येय हिंदी साहित्य की सेवा ही है। आज जब दूसरे प्रांतों के लोग भारत के कोने-कोने में हिंदी प्रचार का बीड़ा उठाते हैं, तब क्या हमारे लिए लाज की बात नहीं कि हिंदी में उंचे दर्जे की पुस्तकें नहीं हंै, जिससे हिंदी भाषा सीखने का अन्य प्रांतवासियों को लाभ हो सके। होना तो यही चाहिए था कि आज संसार के किसी भी भाषा के साहित्य के सामने हिंदी को नीचा देखना न पड़ता। परंतु अपने ही देश की भाषाओं के सामने वह सर नहीं उठा सकती। हिंदुस्तान की उन्नति के लिए हिंदी साहित्य की उन्नति अनिवार्य है।’’ 1 डाॅ. शर्मा बहुआयामी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार थे। उन्होंने साहित्य की प्रायः कई विधाओं में लेखन परिचय दिया। अपने लेखन का प्रारंभ उन्होंने कविता और नाट्य लेखन से किया। उनकी बहुविधावादी प्रवृत्ति के संबंध में कांतिकुमार जैन का कथन उल्लेखनीय है-‘‘ रामविलास कवि था, गद्यकार भी था। उसने कुछ कहानियां भी लिखीं थीं, यात्रा विवरण लिखने में वह माहिर था। समीक्षक भी था।‘‘2 नाटककार के रूप में तो नहीं लेकिन कवि के रूप में उनकी पहचान बनी। उनका पहला कविता संग्रह ‘रूपतंरग’ 1956 में प्रकाशित हुआ। 1960 में बुल्गारिया के कवि वप्सारोव की कविताओं का हिंदी अनुवाद किया जो ‘कविताएं’ नाम से प्रकाशित हुआ। ‘सदियों से सोए उठे’ कविता संग्रह 1988 में प्रकाशित हुआ। पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त ‘तारसप्तक’ में सहयोगी कवि के रूप में उनकी कविताएॅं प्रकाश में आई। 1996 में उनकी आरंभिक कविताएॅं ‘बुद्ध वैराग्य अन्य कविताएॅं’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। डाॅ. शर्मा ने एक उपन्यास की भी रचना की जो 1936 में प्रकाशित हुआ। उनके द्वारा लिखे कई नाटक समय-समय पर मंचों पर खेले गए। ‘सूर्यास्त’, ‘पाप के पुजारी’, ‘तुलसीदास’, ‘जमींदार कुलबोरन सिंह’ और ‘कानपुर के हत्यारे’ आदि नाटकों का उल्लेख डाॅ. विजयमोहन शर्मा ने अपने एक लेख में किया है। इनका एक प्रहसन ‘महाराज कठपुतली सिंह’ 1946 में प्रकाशित हुआ। सन् 1934 में ‘चाॅंद’ के लिए अपना पहला आलोचनात्मक लेख लिखकर हिंदी समालोचना के क्षेत्र में पदार्पण किया। उनकी विद्वता, भाषाधिकार प्रमाणिक तथ्य उद्घाटित करने की प्रवृत्ति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, निष्पक्षता आदि गुणों ने उन्हें सफल आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित किया। निष्पक्षता के गुण ने कारण जहाँ एक ओर उनसे बेहिचक स्थापित लेखकों की आलोचना कराई है वहीं दूसरी ओर छोटे-छोटे एवं अस्थापित लेखकों को यथोचित सम्मान भी दिलवाया। आलोचना के क्षेत्र में प्रायः देखा जाता है कि जाने माने विद्वान नवोदित साहित्यकारों की उपेक्षा करते हैं या उनके प्रति नकारात्मक सा भाव रखते हैं किंतु उन्होंने सदा ही रचना की गुणवत्ता के आधार पर नए रचनाकारों के उद्धरण बड़ी उदारता से अपनी रचनाओं में दिए। यह उनकी निष्पक्षता ही रही, जो वे एक ओर पंत और राहुल सांकृत्यायन जैसे ख्यातिलब्ध साहित्यकारों को नहीं बख़्शते दूसरी ओर नए रचनाकारों की बांछनीय सराहना करते। श्री नारायणजी ने उनके प्रगतिशील आलोचनात्मक लेखन को केंद्र में रखते हुए उन्हें आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पश्चात् आलोचना का महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माना है। रामविलास शर्मा ने हिंदी में संत साहित्य, भारतेंदु युग, छायावाद, प्रेमचंद, निराला आदि पर अत्यंत सुलझे हुए विचार व्यक्त किए है। संत कवियों के विषय में उन्होंने लिखा हैं कि ‘सदियों के सामंती शासन की शिला के नीचे जन साधारण की सहृदयता का जल सिमट रहा था, संत कवियों की वाणी के रूप में यह अचानक फूट पड़ा और उसने समूचे भारत को रस सिक्त कर दिया। प्रेमचंद की जनवादी चेतना की उन्होंने मुक्त कंठ से प्रशंसा की। प्रेमचंद की समीक्षा संबंधी ‘प्रेमचंद और उनका युग’ पुस्तक 1951-52 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में वे लिखते हैं कि-‘‘हिंदुस्तान के किसानों को प्रेमचंद की रचनाओं में जो अभिव्यंजना मिली, वह भारतीय साहित्य में बेजोड है।‘‘ 3 ‘निराला’ के काव्य चिंतन का उन पर अच्छा प्रभाव रहा। सन् 1946 में ‘निराला की साहित्य साधना’ उनकी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई। ‘नई कविता और अस्तित्ववाद‘ पर भी उन्होंने एक ग्रंथ की रचना की। भारतेंदु युग की नव्य चेतना और नवजागरण से भी डाॅ. शर्मा प्रभावित हुए। इस युग की संवेदना और प्रगतिशील चेतना को पहचानते हुए ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएॅं’ तथा ‘‘भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास परंपरा‘‘ समीक्षात्मक पुस्तकों की रचना की। हिंदी भाषाशास्त्रीय चिंतन की परंपरा पर दृष्टिपात करें तो कहा जा सकता कि हिंदी भाषाशास्त्र के क्षेत्र में अधिकतर भाषाशास्त्रियों का कार्य प्रमुख रूप से अकादमिक स्तर पर अधिक रहा है। एक-दो लोगों को छोड़कर लगभग सभी ने हिंदी भाषाशास्त्र के वैशिष्टय का प्रचार-प्रसार तथा पाश्चात्य भाषाशास्त्रीय पद्धति के अनुप्रयोग को ही अपने लेखन का आधार बनाया है। बीसवीं सदी के आरंभ से लेकर अंत तक हिंदी भाषाशास्त्र की परंपरा में कुछ मौलिक और नवीन चीज जोड़ने का प्रयत्न बहुत कम भाषावैज्ञानिकों द्वारा किया गया, जिन लोगों ने किया भी है उनका लेखन पाश्चात्य भाषाशास्त्रीय चिंतन का अनुकरण अथवा संस्कृत भाषाशास्त्र की व्याख्या बनकर अधिक रह गया। ऐसे में डाॅ. रामविलास शर्मा भाषा चिंतन के आकाश में वो दैदीप्यमान सितारा हैं जिसकी चमक अपनी पहचान स्पष्ट रूप से छोड़ती है। डाॅ. शर्मा का भाषा विषयक गहन चिंतन और विवेचन ही हिंदी साहित्य को सबसे बड़ी देन है। वे हिंदी के प्रबल समर्थक थे तथा उनका समर्थन तथ्यों एवं तर्कों पर आधारित था। भाषा और समाज का घनिष्ठ संबंध मानते हुए उन्होंने भारत की भाषा समस्या और राष्ट्रभाषा हिंदी की स्थिति पर व्यापक रूप से चितंन किया। उनका हिंदी के प्रति मोह इसी चिंतन का परिणाम है। सन् 1961 में प्रकाशित ‘भाषा और समाज’ ग्रंथ सामाजिक संदर्भ में हिंदी के अध्ययन और अनुशीलन का पहला ऐतिहासिक प्रयास था। सन् 1965 में प्रकाशित ‘भारत की भाषा समस्या और राष्ट्रीय विघटन’ नामक शीर्षक लेख में उन्होंने अंग्रेजी के स्थान पर राजभाषा के रूप में हिंदी का पक्ष लेते हुए लिखा है - ‘‘जब तक केंद्र की राजभाषा अंग्रेजी है, तब तक प्रदेशों की भाषाएं राजभाषा नहीं बन सकती।’’ राजभाषा के संबंध में राजनीतिक दलों पर भी चोट करते हुए वे लिखते हैं- ‘‘मेरी मांग भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी के नेताओं से है कि आप सारा प्रादेशिक काम भारतीय भाषाओं में ही कीजिए एक महीने के अंदर प्रदेशों में अंग्रेजी की जड़ काट दीजिए। अंग्रेजी भारत में साम्राज्य ढंग से प्रतिष्ठित है। वह प्रत्येक प्रदेश में वहाॅं की भाषा के अधिकार को छीनती है। उसे उच्चशिक्षा का माध्यम बनने से रोकती है। राजकाज में, उच्च न्यायालयों में, वहाॅं की भारतीय भाषा को अपदस्थ करती है। हमें दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि अंग्रेजी अनिश्चित काल के लिए एक मात्र या राष्ट्रीय सहभाषा नहीं रहेगी। निश्चित और सीमित अवधि में उसे अपना स्थान छोड़ना होगा।’’4 उनकी पुस्तक ‘भारत की भाषा समस्या’ से यह स्पष्ट होता है कि वे भाषा के प्रति बहुत सजग थे। उन्होंने कहा कि ’भाषा जनता के लिए है, जनता भाषा के लिए नहीं।’ अभी तक हम हिंदी को जनता की भाषा कहते आए थे लेकिन जनता का नब्बे फीसदी भाग हमारी इस हिंदी से अपरिचित था। अब समय आ गया है कि नब्बे फीसदी जनता शिक्षित होकर अपनी भाषा को पहचाने उसका रूप सँवारने में हाथ बटाए। शिक्षा का प्रसार एक ऐसी बाढ़ होगी जो हमारी भाषा और साहित्य के उद्यान पर एक बार छा जाएगी। 5 वे राष्ट्रभाषा के स्वरूप के संबंध में स्पष्ट करते हैं कि राष्ट्रभाषा ऐसी होनी चाहिए जिसे देश की बहुसंख्यक जनता जानती हो और जो लोग उसे न जानते हों, वे उसे आसानी से सीख सकें। यह दृष्टिकोण राष्ट्रीय ही नहीं जनतांत्रिक भी है क्योंकि बहुसंख्‍यक जनता द्वारा बोली समझी जाने वाली भाषा के पक्ष में दिए जाने वाले तर्क के पीछे भावना यह है कि राष्ट्रीयता मुट्‍ठीभर अँग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों की बपौती नहीं है, उसका संबंध देश की बहुसंख्‍यक जनता से है। 6 भारत जैसे बहुभाषिक देश में एक ऐसी भाषा की आवश्यकता सदा से ही रही है जो सर्वमान्य रूप से केंद्रीय राजकाज की भाषा बन सके। डाॅ.शर्मा का मानना हैं कि वह भाषा हिंदी ही है और वह ‘पूर्ण रूप से शासन और संस्कृति की भाषा बन सकती है।’ कुछ राजनैतिक शक्तियों ने हिंदी-उर्दू विवाद भी खड़ा किया लेकिन डाॅ. शर्मा उर्दू को हिंदी की ही एक शैली मानते हैं और जोर देकर कहते हैं कि ‘हिंदी और उर्दू मूलतः एक ही भाषा हैं और आगे चलकर दोनों घुल-मिलकर एक होंगी, बोलचाल की भाषा के आधार पर एक ही साहित्यिक भाषा का विकास होगा।’ न तो हिंदी केवल हिंदुओं की भाषा है और न ही उर्दू मुसलमानों की। बुनियादी तौर पर तो ये दोनों एक ही भाषा के दो रूप हैं। दोनों का आधार भी जनसाधारण की बोलचाल की भाषा ही है। दोनों बोलचाल की एक ही भाषा की दो शैलियाँ हैं। बोलचाल के स्तर पर हिंदी-उर्दू में भेद दिखाई नहीं पड़ते। विभेद है तो सिर्फ लेखन के स्तर पर है, उनकी उच्चस्तरीय शब्दावली में है, लिपि में है। डाॅ. शर्मा अपनी भाषा के प्रति इतने सजग थे कि उन्हें हिंदी की उपेक्षा बर्दाश्त बिल्कुल सहन नहीं थी। उनके इस भाषा प्रेम के बारे में स्पष्ट करते हुए अमृतलाल नागर ने कहा कि ‘हिंदी के प्रति उर्दू हिमायतियों, ‘काले साहबों’ और दूसरी भाषाओं के ‘स्नॉबी स्कॉलरों’ की बगैर पढ़ी-समझी अन्यायपूर्ण आलोचनाओं से वे तड़प उठते हैं। सेर के जवाब में यदि वे सवा सेर फेंकते तो शायद इतने बदनाम कभी न होते, लेकिन सेर पर ढैया, पसेरी या दस सेरा बटखरा खींच मारना रामविलास का स्वभाव है।’‘अनिवार्य शिक्षा का चलन करने पर दमन जनता पर नहीं होता बल्कि उन कामचोर वर्गों पर होता है जो जनता को निरक्षर रखते हैं। राष्ट्रीयकरण में जो व्यवहार कामचोर वर्गों के साथ होता है, उसकी तुलना तो जनता को अनिवार्य शिक्षा देने से करके यशपाल जी ने जनता और शोषक वर्गों का भेद भुला दिया है। यह समझना भूल होगी कि सभी हिंदी लेखक राहुल जी या यशपाल जी की तरह सोचते हैं।‘‘7 ‘हिंदी जाति की अवधारणा’ रामविलास शर्मा की महत्वपूर्ण स्थापनाओं में से एक है। वैसे हिंदी जाति की अवधारणा नई नहीं थी। सन् 1902 में ‘सरस्वती‘ में श्री कार्तिक प्रसाद द्वारा लिखित ‘महाराष्ट्रीय जाति का अभ्युदय‘ नामक लेख प्रकाशित हुआ। भारत में जिस प्रकार मराठी भाषा का प्रयोग करने वाली महाराष्ट्रीय जाति है उसी प्रकार हिंदी का प्रयोग करने वाली हिंदी प्रदेश की हिंदी जाति है। सन् 1930 में डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा ने ‘हिंदी राष्ट्र या सूबा हिंदुस्तान‘ नामक पुस्तक की रचना की तथा इसमें उन्होंने हिंदी भाषी प्रदेश के सूबे का निर्धारिण किया। सन् 1940 में प्रकाशित ‘आर्यभाषा और हिंदी’ नामक पुस्तक में डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी द्वारा भी हिंदीभाषी जाति का उल्लेख किया गया है। फादर कामिल बुल्के ने ‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ नामक महत्त्वपूर्ण पुस्तक में रामकथा के प्रसंग में हिंदी प्रदेश का उल्लेख किया है। इसी तरह हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में राहुल जी ने हिंदी प्रदेश की सांस्कृतिक उपलब्धियों की विस्तार से चर्चा की थी। इस प्रकार हिंदी जाति और हिंदी प्रदेश का अस्तित्व लेखकों-बुद्धिजीवियों ने इस सदी की शुरुआत से ही स्वीकार किया है। उसके पश्चात् लेखकों-बुद्धिजीवियों का एक ऐसा सम्प्रदाय विकसित हुुआ जिसका केन्द्र अमेरिका और लंदन रहा। अंग्रेजी में पढ़ने-लिखने और सोचने वाले इन बुद्धिजीवियों के अनुयायी भारत में भी अच्छी मात्रा में विद्यमान रहे हैं। सन् 1983 में बेनिडिक्ट एंडरसन की पुस्तक ‘कल्पित समुदाय’, ‘इमैजिंड कम्युनिटीज’ प्रकाशित हुई और रणजीत गुहा द्वारा संपादित ‘सबलटर्न स्टडीज’ के सातवें खंड में सुदीप्तो कविराज के लेख में ‘भारत की काल्पनिक संस्थाएं - द इमैजनरी इंस्टीट्यूशन्स ऑफ इंडिया’ में इसी भावना का प्रस्फुटन हुआ है। इन दोनों रचनाओं की भावभूमि एक है, यानी राष्ट्र, राष्ट्रीयता, कौम, कौमियत अथवा जिसे जातीयता की संज्ञा दी जाती है। इन भावनात्मक जातियों की कोई वास्तविक सत्ता नहीं होती है परंतु उनकी विद्यमानता को भी नकारा नहीं जा सकता है। वे काल्पनिक सत्ताएं हैं। अब अगर राष्ट्र, जाति या कौम जैसी कोई चीज नहीं होती है तो उनका इतिहास भी नहीं होगा। फिर औपनिवेशिक देशों का राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम भी बेमानी एवं व्यर्थ होगा। अगर राष्ट्र, कौम या जाति की संकल्पना ही मिथ्या है तो साम्राज्यवादी विस्तारवाद का मुकाबला आप किस तर्क से करेंगे? डॉ. रामविलास शर्मा का हिंदी जाति एवं जातीयता संबंधी समग्र चिंतन इसी चिंता से उत्पन्न हुआ है। उनका तर्क है कि परम्परागत पूंजीवादी समाजशास्त्र जातीयताओं के विकास और उसकी विशिष्टता को दबाता ही नहीं, उसे विकृत भी करता है तो इसलिए कि विजेता और विजित के अंतर को बनाये रखा जा सके। डाॅ. शर्मा ने ‘हिंदी जाति‘ की मान्यता पर सर्वाधिक बल देने तथा इसकी स्थापना के कारण वे सर्वाधिक विवाद झेला और इसी के कारण वे प्रख्यात एवं चर्चित भी हुए। डॉ. शर्मा की ‘जाति की अवधारणा’ में जाति शब्द का प्रयोग नस्ल (कौम) या बिरादरी (जाति) के लिए न होकर कौम (राष्ट्रीयता) के अर्थ में हुआ है। ‘निराला की साहित्य साधना’ द्वितीय खण्ड में इसे स्पष्ट करते हुए रामविलास जी ने लिखा है- “भारत में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। इन भाषाओं के अपने-अपने प्रदेश हैं। इन प्रदेशों में रहने वाले लोगों को ‘जाति’ की संज्ञा दी जाती है। वर्ण-व्यवस्था वाली जाति-पाँत से इस ‘जाति’ का अर्थ बिल्कुल भिन्न है। किसी भाषा को बोलने वाली, उस भाषा क्षेत्र में बसने वाली इकाई का नाम जाति है।”8 अर्थात जाति का सीधा संबंध भाषा से है। डॉ. शर्मा हिंदी जाति के साथ-साथ तमिल, तेलगू, ओडिया, बंगाली आदि जातियों की चर्चा भी करते हैं और उनके विकास पर बल देते हैं। लेकिन इस बात पर वे खेद प्रकट करते हैं कि अन्य भाषा-भाषी क्षेत्रों में जातीयता की धारणा जितनी प्रबल है उतनी हिंदी के अंदर नहीं है, इसी कारण साम्प्रदायिकता और जातिवाद सर्वाधिक इसी क्षेत्र में देखने को मिलता है। यह क्षेत्र आज भी राजनितिक रूप से विभक्त है, इसका क्षेत्र उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तक विस्तृत है। रामविलास शर्मा भाषावार राज्यों के गठन वाले फार्मूले को हिंदी क्षेत्र में न अपनाए जाने का लगातार विरोध करते रहे। इस संबंध में पी.एन. सिंह ठीक ही लिखते हैं-“रामविलास जी को यह बात आजीवन सालती रही कि भारत में बंगाली, पंजाबी, तमिल, मराठी, गुजराती, तेलगू इत्यादि जातियों का निर्माण तो हो सका और ये राजनीतिक इकाई के रूप में विकसित हो सकीं लेकिन हिंदी प्रदेश में जातीय बोध का अभाव रहा जिसके चलते यह राजनीतिक रूप से विभक्त रहा।”9 डाॅ. शर्मा ने स्पष्ट किया कि हिंदी भाषा चिंतन एवं हिंदी प्रेम एशिया और यूरोप की अनेक भाषाओं को प्रभावित किया था। अपनी पुस्तक ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी’ में उन्होंने आर्य भाषाओं के विकासक्रम को स्पष्ट किया और यह भी दर्शाया कि भारत की द्रविड़, मुंडा आदि भाषाओं से उनका संबंध किस प्रकार का था। डाॅ. शर्मा की हिंदी जाति की अवधारणा उनके हिंदी प्रेम को उजागर करती है। सन् 1949 में ‘कम्यूनिस्ट’ नामक अंग्रेजी पत्र में अपने एक लेख में लिखा- ‘‘हिंदुस्तानी एक कौम है और वह बिहार से लेकर मध्यप्रदेश तक फैली हुई है। इसकी एक सामान्य भाषा है। जो हमारे बोली के क्षेत्र है। जैसे भोजपुरी क्षेत्र, अवधि क्षेत्र, ये स्वतंत्र जातियों के क्षेत्र नहीं है। जो लोग ऐसा कहते हैं वे गलत कहते हैं।’’10 इसी धारणा के कारण वे इस बात से सहमत थे कि हिंदी भाषी राज्यों को विभाजन करके नए राज्य बनाना अनुचित है बल्कि हिंदी भाषी राज्यों को मिलाकर एक करना उचित है। हिंदी भाषा को केंद्र में रखते हुए उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की। अपने जीवन के सांध्यकाल में ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। इसमें ऋग्वेद से लेकर कालीदास तक और विद्यापति से लेकर निराला तक भारत के विस्तृत भूभाग के सांस्कृतिक इतिहास, भाषा और साहित्य का विवेचन है। अपने जीवन के अंतिम समय तक आलोचना विधा को समृद्धि के उच्चतम शिखर तक ले जाने हेतु सतत प्रयत्नशील रहे। उन्होंने भारतीय संस्कृति और उसके आदिस्रोत ऋग्वेद का यथार्थवादी विश्लेषण किया है। ऋग्वेद पर मैक्समूलर और कीथ जैसे विश्व विख्यात विद्वानों ने भी काम किया है पर डाॅ. शर्मा का अध्ययन विवेचन अधिक प्रभावशाली एवं अतुलनीय है। माक्र्सवादियों को इस बजह से उनसे चिढ़ हुई तथा उन्हें माक्र्सवाद से ‘तड़ीपार’ घोषित किया गया। लेकिन वे सदा सत्यनिष्ठ रहे। उन्होंने आर्यो को विदेशी हमलावर बताने का सिद्धांत भी नकारा। उन्होंने भारतीय भाषा तत्वों के आयात को गलत बताया और निर्यात सिद्धांत को आगे बढ़ाया। संस्कृति और व्यापार सहित ढेर सारे उपकरण भाषा बदलते हैं। विद्वानों ने भाषा में बदलाव के अनेक कारण बताये है। डाॅ. शर्मा ने हिंदी ईरानी शाखा का विश्लेषण करते हुए लिखा कि-“विद्वानों ने हिंदी-ईरानी शाखा की कल्पना की है, पर जब भाषा एक है, तब शाखा या तो हिंदी हो सकती है या ईरानी। हिंदी-ईरानी तो नहीं हो सकती। इस शाखा का मूल रूप ऋग्वेद में है या अवेस्ता में, इसका निर्णय करना सरल है। जिस ग्रंथ में सघोष महाप्राण ध्वनियां विद्यमान हों, उसी में भाषा का मूल रूप (समस्त या अधिकांश) मान लें। अवेस्ता में जहां-तहां प्राचीनतर रूप हैं पर इससे मूल स्थापना खंडित नहीं होती। वैदिक ‘इह’ की अपेक्षा पालि ‘इध’ प्राचीन है पर इससे पालि वैदिक भाषा से अधिक प्राचीन नहीं हो जाती। प्राचीन ईरानी और वैदिक भाषा में इतनी घनिष्ठता है कि ध्वनि नियम लागू करने से ईरानी को वैदिक रूप दिया जा सकता है। इसलिए प्राचीन ईरानी भाषा के क्षेत्र को भारतीय क्षेत्र का विस्तार कहना युक्तिसंगत होगा।” डाॅ. शर्मा के अनुसार- “ध्वनि रूप बदलने से भाषा नहीं बदल जाती। भौगोलिक दृष्टि से ईरानी क्षेत्र एकदम हमारे पड़ोस में है। भाषा तत्वों के विचार से प्राचीन ईरानी संस्कृत का ही एकरूप है किंतु सघोष महाप्राण ध्वनियां उसमें भी नहीं है। तब दूर की भाषाओं में क्या होगी।” ऋग्वेद की भावप्रवण भाषा और दर्शन का प्रभाव दुनिया के अन्य देशों की भाषा, संस्कृति और सभ्यता पर पड़ा। पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद के आठवें अध्याय “अफ्रीकी एशियाई सभ्यता की प्रसार भूमि और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान’ में डाॅ. शर्मा ने ‘कैब्रिज एन्शेंन्ट हिस्ट्री’ (1986) से आलब्राइट और लैम्बिडिन के निष्कर्ष दिये है “उक्त लेखकों के अनुसार मानवजाति की प्राचीनतम ज्ञात लिखित भाषा सुमेरी है। इसके सबसे पुराने अभिलेख (इराक में प्राप्त) चतुर्थ सहस्राब्दी ई.पू. के अंतिम चरण के हैं। मिस्र की भाषा भी बहुत प्राचीन है किंतु सुमेरी ने प्रथम ज्ञात उच्च संस्कृति की भाषा होने के कारण कुल मिलाकर “पश्चिम को, मिस्र की अपेक्षा, कहीं अधिक प्रभावित किया। पश्चिम की एक भाषा है अंग्रेजी। उसमें कम से कम एक सुमेरी शब्द है ऐबिस सुमेरियों के दिव्यलोक दिलमुन् की खोज करते हुए पुरातत्वज्ञ बिबी ने लिखा है, “अंग्रेजी भाषा में ‘ऐबिस’ शायद सुमेरी से उधार लिया हुआ एकमात्र शब्द है। हजारों साल तक चालू रहने से उसका अर्थ कुछ बदल गया है। मूलतः सुमेरी शब्द अब्ज का मतलब था पृथ्वी के नीचे का जल।” डाॅ. शर्मा ने स्पष्ट किया कि “यह शब्द सीधे सुमेरी से अंग्रेजी में नहीं आया। यूनानी भाषा में इसका रूप है अबुस्साॅस् (अतल, पाताल)। सुमेरी संस्कृति के उत्तराधिकारी बैबिलोन के लोग अप्सू रूप का व्यवहार करते थे। प्रिचार्ड के ग्रंथ में अक्कदी भाषा के जो अभिलेख अनुवादित हैं, उनमें सर्वत्र अप्सू रूप से व्यवहार हुआ है। उनके अनुसार मेसोपोटामिया के लोग कल्पना करते थे कि धरती “मीठे पानी के समुद्र, अब्जु अथवा अप्सू पर तैर रही थी।” अब्जु और अप्सू दोनो एक ही शब्द के रूप हैं।”11 अपः, अप्सु जल के अर्थ में ऋग्वेद के कई प्रसंगो में भी हैं। ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ज्ञान संकलन है। ऋग्वेद और उस कालखंड की भाषा ने एक बहुत बड़े क्षेत्र को प्रभावित किया। डाॅ. शर्मा ने सिद्ध किया कि “भाषाएं एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं, इसलिए किसी भाषा परिवार को नितांत पृथक इकाई मानकर उसका अध्ययन करने के बदले सांस्कृतिक रूप से सुसंबद्ध किसी विस्तृत क्षेत्र के समस्त भाषा समुदायों का एक साथ अध्ययन करना चाहिए। भारत को भाषाई क्षेत्र मानकर उसके अनेक भाषा परिवारों का एक साथ अध्ययन करने की आवश्यकता पर अनेक विद्वान बल दे चुके हैं। इससे आगे बढ़कर अफ्रीकी एशियाई सभ्यता की प्रसार भूमि के भाषा समुदायों का एक साथ अध्ययन करना आवश्यक है।”12 डाॅ. शर्मा ने हिंदी भाषा के विघटन पर भी चिंतित रहे और वे हिंदी की उपभाषाओं और बोलियों को हिंदी से पृथक करने के पक्ष में कभी नहीं रहे। भाषा और बोली के संबंध में वे कहते हैं कि - ‘‘किसी भी भाषा या बोली की सीमाएॅं अचल और सनातन नहीं होती। जिन्हें आज हम भाषा कहते हैं, वे किन्हीं परिस्थितियों में ‘बोली’ मात्र रह सकती हैं। जिसे हम बोली कहते हैं वह कल ‘भाषा’ बन सकती है।’’13 डाॅ. शर्मा का कहना था कि देश प्रेम और भाषा प्रेम पृथक नहीं हैं - एक हैं। हमारी भाषा, हमारी राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक है। वे हिंदी प्रदेश को विभाजित करने वालों तथा हिंदी को बाॅंटने वालों के विरूद्ध थे। उनका मानना था - ‘‘हिंदी प्रदेश की एकता और उस प्रदेश में हिंदी के व्यवहार का प्रश्न, राष्ट्रीय एकता के साथ जुड़ा है।’’ 14 भाषाविज्ञान के क्षेत्र में डाॅ. शर्मा की सोच परंपरागत भाषा वैज्ञानिकों से भिन्न हैं। उन्होंने अपने भाषा वैज्ञानिक लेखन में अपने मौलिक स्थापनाएं की हैं। उन्होंने भाषाविज्ञान के क्षेत्र में माक्र्सवाद को लागू किया। उन्हीं के शब्दों में - ‘‘माक्र्सवाद के अनुसार हर चीज़ परिवर्तनशील है और भाषा का कोई स्तर ऐसा नहीं है, जो परिवर्तनशील न हो। लेकिन माक्र्सवाद के अनुसार सभी चीज़ें समान गति से परिवर्तित नहीं होती। इसी तरह भाषा में उन तत्वों को पहचानना जरूरी था, जो कम परिवर्तित होते हैं।’’ डाॅ. शर्मा की दूसरी महत्त्वपूर्ण पुस्तक है - भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी’, इसके तीनों भाग क्रमशः 1979, 1980 तथा 1981 में प्रकाशित हुए। यह पुस्तक उनके भाषा वैज्ञानिक रूप के चरम उत्थान की परिचायक है। इस पुस्तक के संबंध में प्रसिद्ध आलोचक डाॅ. नामवर सिंह लिखते हैं कि “लगभग तेरह सौ पृष्ठों के इस ग्रंथ में भाषावैज्ञानिक तर्क और तथ्य भरे पड़े हैं। सिर्फ भाषिक तथ्यों की दृष्टि से यह ग्रंथ भारत के समस्त भाषा परिवारों का अभूतपूर्व विश्वकोश है। जो कार्य भारत के इतने सारे सुविधा संपन्न भाषाविज्ञान विभाग मिलकर भी नहीं कर पाए, उसे डाॅ. शर्मा ने अकेले अपने बूते पर संपन्न कर दिखाया।’’15 डाॅ. शर्मा ने भाषा का समाज-सांस्कृतिक और ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक विवेचन करके अनेक अभूतपूर्व निष्कर्ष प्रदान किये परंतु खेदजनक है कि हिंदी के परवर्ती भाषाशास्त्रीय चिंतकों ने डाॅ. शर्मा के चिंतन को खुलकर महत्व नहीं दिया, परंतु उनके चिंतन का अपने अध्ययन एवं अध्यापन तथा लेखन में भरपूर प्रयोग किया है। डाॅ. शर्मा आलोचक के रूप में अधिक प्रसिद्ध रहे तथा भाषा विज्ञान के क्षेत्र में अपने प्रवेश को लेकर वे पर्याप्त चर्चा में रहे। अधिकतर विद्वान तो उन्हें भाषाशास्त्री मानते ही नहीं, जो मानते भी हैं उन्होंने भी उनके कार्य के महत्त्वांकन का प्रयत्न नहीं किया। नामवर सिंह सरीखे विद्वानों ने भी डाॅ. शर्मा के काम की सराहना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री की परंतु उनके भाषा चिंतन का महत्त्वांकन कर उसकी विवेचना करते तो हिंदी भाषाशास्त्रीय चिंतन की समृद्ध परंपरा में एक सशक्त अध्यायकर्ता का नाम विश्व समुदाय में स्थापित हो पाता। वर्तमान में भी डाॅ. शर्मा के काम को नजरअंदाज किया ही जा रहा है। लेकिन उनका प्रभाव प्रबुद्ध लेखक अव्यक्त रूप से जरूर ग्रहण कर रहे हैं। प्रभाव ग्रहण करने का अव्यक्त तरीका किस राजनीति रणनीति के अनुरूप है इसकाक आकलन किया जाना कठिन है। अनुमानित रूप से कहा जा सकता है कि उनके कार्याें की अवहेना का एक कारण तो यह हो सकता है कि गुपचुप तरीके से उनके चिंतन का उपयोग कर थोड़े समय के लिए चर्चा में आ जाना। और दूसरा कारण उनके मार्क्सवादी नजरिये को माना जा सकता है। तीसरा कारण यह भी हो सकता है कि डाॅ. शर्मा ने अपना चिंतन हिंदी के लिए हिंदी में लिखा है। भारत के बौद्धिक वर्ग में आज भी अनुकरण एवं स्थापना के लिए पश्चिम की ओर देखा जाना आम है। उल्लेखनीय है कि भारत में रहकर हिंदी में साहित्य लिखने वालों को महत्व बहुत देरी से प्राप्त होता है और अधिकांशतः गुमनामी के अंधेरे में लुप्त हो जाते हैं। भारतवंश का ही अप्रवासी यदि विदेश में रहकर साहित्य लिखता है तो उसे भारतीय साहित्य समाज में शामिल करने में बौद्धिक वर्ग गौरव का विषय आज भी मानता है भले ही उसका साहित्य भारतीय साहित्यकार के स्तर बहुत कम ही क्यों न हो। हिंदी में लिखा गया चिंतन दोयम दर्जे का मानने की प्रवृत्ति स्पष्ट परिलक्षित होती है। इस संदर्भ कुछ बातों का उल्लेख करना समीचीन होगा- बीसवीं शती के सातवें दशक के पूर्वाद्ध में जिस प्रकार भाषाशास्त्रीय चिंतन वैश्विक स्तर पर हो रहा था, उसी का प्रभाव डाॅ. शर्मा पर पड़ा और उन्होंने ‘भाषा और समाज‘ नामक पुस्तक की रचना जिसका प्रकाशन सन् 1961 में हुआ। भाषाविज्ञान की एक नई शाखा समाज भाषाविज्ञान का उद्भव हो रहा था। भाषा सामाजिक वसतुत है और समाज और भाषा एक दूसरे के प्रतिपूरक हैं। समाज भाषाविज्ञान वह है जो भाषा की संरचना और प्रयोग के उन सभी पक्षों एवं संदर्भों का अध्ययन करता है जिनका सम्बंध सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रकार्य के साथ होता है। इसके अध्ययन क्षेत्र में विभिन्न सामाजिक वर्गों की भाषिक अस्मिता, भाषा के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण एवं अभिवृत्ति, भाषा की सामाजिक शैलियाँ, बहुभाषिकता का सामाजिक आधार, भाषा नियोजन आदि भाषा-अध्ययन के वे सभी संदर्भ समाहित होते हैं, जिनका संबंध सामाजिक संस्थान से होता है। डाॅ. शर्मा की भाषा और समाज के संबंध में उल्लेखनीय है कि समाज भाषाविज्ञान का जितना प्रौढ़ रूप इसमें भाषित है उतना अन्य लेखकों की पुस्तकों में प्राप्त नहीं होता। इस संदर्भ में डाॅ. शर्मा ने उक्त पुस्तक के प्रकाशन से 25 वर्ष की पूर्व तक की ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की समीक्षा लिखी, जिसमें उन्होंने कई निष्कर्ष विद्वजनों के समक्ष प्रस्तुत किए। उन निष्कर्षों में यह निष्कर्ष भी शामिल था कि चॉम्सकी और उनके अनुयायियों का वाक्य-विन्यास पर बहुत अच्छा काम है पर उनकी विचारधारा में समरूपता पर ही जोर है, पृथकता या विषमरूपता पर नहीं, इसमें सामाजिक पक्ष की उपेक्षा है। जो इस समाज वैज्ञानिक चिंतन में अपूर्णता का द्योतक है। स्पष्ट है कि भाषाशास्त्रीय चिंतन की पाश्चात्य उपलब्धियों से डाॅ. शर्मा न तो बहुत ज्यदा प्रभावित थे और न ही वे उनके लिए आकर्षण का केंद्र थीं। उनकी दृष्टि तो पाश्चात्य चिंतकों की कमियों पर टिकी हुई थी। उनका तक था कि भाषाओं का अध्ययन समाज सापेक्ष दृष्टिकोण के अन्तर्गत किया जाए और इसी के अनुरूप उन्होंने भारतीय भाषाओं की समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में अपना चिंतन प्रस्तुत किया। डाॅ. शर्मा का यह कार्य विद्वानों में चर्चा का विषय बना और इस पर चिंतन प्रारंभ हुआ। पर वह चिंतन कैसा था? इसका जवाब डाॅ. शर्मा के इस कथन से इंगित होता - ‘‘भाषा और समाज को लेकर विद्वानों में जो भी चर्चा हुई और उससे अधिक जो अव्यक्त चिंतन हुआ उससे मुझसे संतोष है।16 डाॅ. शर्मा के उक्त कथन में ‘अव्यक्त चिंतन’ ध्यान देने योग्य शब्द हैं। इसका स्पष्टीकरण अग्रलिखित कथन से होता है- ‘‘मैं एक दिन कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी के दफ्तर में बैठा काम कर रहा था। मसूरी से कुछ लोग मिलने आए। उनमें एक ने कहा-मैं वहां लोक सेवा के उम्मीदवारों को भाषाविज्ञान पढ़ाता हूं। आपकी पुस्तक के आधार पर उनको भाषाविज्ञान समझाता हूं लेकिन मैं उस पुस्तक का नाम नहीं लेता। नाम लेने से लोग समझेंगे कि हमें मार्क्सवाद सिखा रहे हैं। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और कहा, आप नाम न लीजिए, आपको मेरी बातें सही लगती हैं तो अवश्य छात्रों को समझाइए। भाषा और समाज पुस्तक कुछ कम्युनिस्ट नेताओं ने पढ़ी थी। वे उसकी स्थापनाओं से सहमत थे, पर उनका अमल दूसरे ढंग का था। पुरानी समस्याएं अब और पेचीदा हो गई हैं।17 उनका यह कथन स्पष्ट करता है कि उनकी पुस्तकें पढ़ी जाती हैं और उनके निष्कर्षों का उपयोग कर राजनीतिक लाभ भी उठाये जाते हैं लेकिन न पुस्तक का नाम बताया जाता है और न ही लेखक का जिक्र किया जाता है क्योंकि वह एक मार्क्सवादी लेखक है। यह बात केवल पाठकों और अध्यापकों तक सीमित नहीं है। थोड़े फेर-बदल के साथ भाषाशास्त्रियों की भी यही धरणा है। वे डाॅ. शर्मा के चिंतन से किसी न किसी रूप में लाभ तो उठा लेते हैं लेकिन संदर्भ में उनकी और उनके पुस्तक की चर्चा नहीं करते। उनको केवल हिंदी आलोचक के रूप में मान्यता प्राप्त है। वे भाषाविद् कैसे हो सकते हैं ? इतिहासकारों की भी यही राय है। अतः इतिहास संबंधी उनका चिंतन भी कभी मुख्य धारा में नहीं आ सका। ‘भाषा और समाज’ शीर्षक पुस्तक में उन्होंने भाषा-गठन की स्वाभाविक प्रक्रिया पर विचार व्यक्त किया है। उनके अनुसार बोली के आधार पर परिनिष्ठित भाषा का विकास होता है, परिनिष्ठित भाषा से बोलियां उत्पन्न नहीं होतीं। यह विचार डा. शर्मा की वैज्ञानिक दृष्टि का परिचायक है, इतना ही नहीं भाषा अध्ययन की अमूर्तता तथा वर्णनात्मक भाषा विज्ञान की सीमाओं पर उनकी टिप्पणी भी उनकी व्यापक और सजग दृष्टि की ओर संकेत करती है। भाषा का समाज सापेक्ष अध्ययन के कारण भारतीय शिष्य के पाश्चात्य गुरुओं की श्रेणी में तुलनात्मक दृष्टि से डा. शर्मा अग्रणी दिखाई पड़ते हैं। श्भाषा और समाज’ के दूसरे संस्करण की भूमिका में उन्होंने चॉम्सकी, ब्लूमफील्ड, गुंपर्ज, फशमैन आदि के विचारों की गहरी पड़ताल की। सातवें दशक के पूर्वाद्ध में समाज भाषिकी पर पर्याप्त चिंतन आ चुका था। चॉम्सकी के विषय में उन्होंने मत दिया कि श्उनका और उनके अनुयायियों का वाक्य विन्यास पर बहुत अच्छा काम है पर उनकी विचारधारा में समरूपता पर ही जोर है, पृथकता या विषमरूपता पर नहीं। इसमें सामाजिक पक्ष की उपेक्षा भी है।18 भाषा और समाज की भूमिका में डाॅ. शर्मा ने लिखा है कि ‘‘ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की प्रचलित पद्धति के विपरीत इस पुस्तक में मैंने जिस मार्ग का अनुशरण किया है, उसकी विशेषताएं इस प्रकार हैं - कोई भी भाषा परिवार अपनी मूल विशेषताएं एकांत शून्य में विकसित नहीं करता। इसलिए किसी भी भाषा के उदभव और विकास का अध्ययन अन्य भाषा परिवारों के उदभव और विकास से अलग न करना चाहिए। किसी भी भाषा परिवार की आदिभाषा की कल्पित विशेताएं खोजने के स्थान पर उसके निर्माण में अनेक भाषा मूलों के तत्वो की प्राप्ति के लिए तैयार रहना चाहिए। एक ही परिवार के सामानय तत्वों का अध्ययन करते हुए उनमें जो तत्व असामानय हैं, उन पर भी पूरा ध्यान रखना चाहिए। प्राचाीन लिखित भाषाओं की सामग्री का उपयोग करते समय जहां भी समकालीन उपभाषाओं, बोलियों आदि की सामग्री प्राप्त हो,वहां उस पर भी ध्यान देना चाहिए। इसी तरह आधुनिक परिनिष्ठित भाषाओं की सामग्री का उपयोग करते हुए उनकी बोलियों के भाषा तत्वों पर निरंतर ध्यान देना चाहिए। प््रााचीन भाषाओं के अध्ययन में आधुनिक भाषाओं और बोलियों का अध्ययन सहायक होता है। संस्कृत के अध्ययन से यदि हिंदी की विशेषताएं पहचानी जा सकती हैं, तो हिंदी के अध्ययन से संस्कृत की भी अनेक विशेषताएं पहचानी जा सकती है। भारत भाषा तत्वों का आयात केंद्र ही नहीं रहा, वह इन तत्वों का निर्यात् केंद्र भी रहा है, इस संभावना को पहले से ही अमान्य ठहराकर विवेचन आरंभ न करना चाहिए। आधुनिक या प्राचीन भाषाओं का विश्लेषण करते समय ध्वनियों के यांत्रिक वर्गीकरण के बदले उनकी समग्रता का ध्यान रखकर भाषाओं की ध्वनि-प्रकृति का विवेचन उचित है। किसी भी भाषा में प्रयुक्त सभी ध्वनियों का शब्द में उनकी स्थिति और प्रयोग में उनकी निरंतरता के विचार से समान महत्व नहीं होता। इसलिए भाषाओं की प्रकृति पहचानने के लिए यह विवके आवश्यक हैकि किसी भाषा की व्यवस्था में कौन सी ध्वनियां अधिक महत्वपूर्ण हैं और कौन सी कम। इसी तरह वाक्य रचना, रूप विचार,शब्दनिर्माण प्रक्रिया और व्याकरण की अन्य विशेषताओं को अलग-अलग विभागों में न रखकर उनकी समग्रता में, भाषा की एक ही भाव प्रकृति के अंतर्गत , उन पर विचार करना चाहिए। ध्वनियों की तरह शब्दों में विवके करना उचित है कि शब्द भंडार का कौन सा भाग मूल और कौन सा भाग गौण है। किसी भी भाषा के मूल शब्द भंडार का विश्लेषण किए बिना उसका विवेचना अधूरा रहेगा। भाषा निरंतर परिवर्तनशील है और विकासमान है। विरोध और भिन्नता के बिना भाषा न गतिशील हो सकती है, न उसका विकास ही हो सकता है। इसलिए किसी भी भाषा की व्यवस्था में, भाषा के किसी भी सतर पर ध्वनि प्रकृति, भाव प्रकृति और शब्द भंडार किसी भ्ीा विभाग में विरोधी प्रवृतियों और विरोधी तत्वों के सहअस्तित्व की संभानाओं के लिए भाषाविज्ञानी को प्रस्तुत रहना चाहिए। इन बातों को ध्यान में रखते हुए ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान नहीं किया गया। उन्हें ध्यान में रखकर अनुसंधानकिया जाए तो नए निष्कर्ष निकल सकते हे।, पुरानी मान्यताओं की सीमाएं पहचानी जा सकतीहैं, विशेष रूप से भारत की प्राचनी भाषा संपदा पहचानने में बड़ी सहायता मिल सकती है, इसके यथेष्ठ प्रमाण इस पुस्तक में मिल सकते है।‘‘ 19 डाॅ. शर्मा के उपर्युक्त कथन ऐतिहासिक भाषा विज्ञान संबंधी मान्यताओं को नवीन रूप में निर्धारित करते हैं वहीं उनका तीसरा कथन भाषा शिक्षण में व्यतिरेकी विश्लेषण के महत्व का समर्थन करता है। भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषा शिक्षण एक मुख्य अध्ययन बिंदु रहा है। विभिन्न कारणों से एक भाषा-भाषी व्यक्ति को अपने मातृभाषा या पूर्व में परिचित भाषा के अतिरिक्त अन्य भाषा या भाषाओं को सीखने की आवश्यकता पड़ती है, और यह कार्य व्यतिरेकी भाषा विज्ञान से भलीभांति हो सकता है। डाॅ. राजमल बोरा किशोरीदास वाजपेयी और डाॅ. शर्मा के भाषाविद् रूप के प्रस्तोता माने जा सकते हैं। यहां ध्यातव्य है कि डाॅ. शर्मा की पुस्तक ‘भाषा और समाज’ 1961 में प्रकाशित हुई, भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी (तीन खंड में) 1979-81 में। इस तरह 32 वर्ष एवं 13 वर्ष के पश्चात डाॅ. बोरा शर्माजी के भाषाशास्त्रीय चिंतन पर एक पुस्तक लिखते हुए टिप्पणी स्वरूप कहते हैं कि “उनके साहित्यिक चिंतन को तो बहुत पहले मान्यता मिल गई है, किंतु उनके भाषा चिंतन को पहचानने का प्रयास अभी नहीं हुआ है। भाषाविज्ञान के क्षेत्र में उनका हस्तक्षेप भाषाविदों को ठीक नहीं लगा है।’’20 भाषाविदों को डाॅ.शर्मा का चिंतन क्यों ठीक नहीं लगता या लगा इस संबंध में डाॅ. बोरा भी मौन हैं। प्रसिद्ध भाषाविद प्रो. दिलीप सिंह ने भाषा का संसार’ नामक पुस्तक लिखी जो कि सन् 2008 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई। अर्थात् डाॅ. शर्मा के गुजरने के 8 वर्ष बाद, ‘भाषा और समाज’ के प्रकाशन काल के 37 वर्ष बाद और ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी’ के प्रकाशन काल के 16-20 वर्ष बाद। यह अवधि बहुत लंबी है। इस पुस्तक में प्रो. दिलीप कहते है कि ‘‘डाॅ. रामविलास शर्मा आलोचक और साहित्येतिहास रचयिता के रूप में ही जाने जाते हैं। वे भाषा दार्शनिक भी थे। ‘भाषा’ और ‘भाषाविज्ञान’ उनका प्रिय विषय था। उन्होंने भाषाविज्ञान को अपने अध्ययन का विशेष क्षेत्र बनाया। उनके भाषावैज्ञानिक चिंतन पर अत्यल्प विचार किया गया है। भारत के तथाकथित भाषावैज्ञानिक तो संभवतः उनके नाम से भी परिचित न हों। जो परिचित हैं, वे भी उन्हें भाषाविज्ञानी नहीं मानते, क्योंकि इन सबने ‘भाषावैज्ञानिक’ की कुछ और ही परिभाषा गढ़ रखी है।..........यह दुःखद तथ्य इस ओर भी संकेत करता है कि साहित्य के खेमे से भाषाविज्ञान के लोग दूर-दूर ही रहते हैं और हिंदी में लिखे ‘भाषाविज्ञान’ को वे हेय समझते हैं।” 21 प्रो. दिलीप सिंह का कथन कि ‘हिंदी में लिखे ‘भाषाविज्ञान को भाषाविज्ञान नहीं माना जाता’ वाली मानसिकता के भारतीय भाषाविदों ने डाॅ. शर्मा के कार्य को आंकने का प्रयास भी नहीं किया और किया भी तो बहुत बाद में। भारतीय विचारकों की मानसिकता का यह बहुत दुखद पक्ष है किन्तु सत्य है। डाॅ. सिंह का दूसरा संकेत - भाषाविज्ञानी की कुछ और ही परिभाषा! आखिर वो परिभाषा क्या है? वस्तुतः हिन्दुस्तान में किसी व्यक्ति को भाषाविज्ञानी के रूप में तब तक मान्यता नहीं दी जा सकती, जब तक वो किसी पाश्चात्य गुरु से दीक्षा प्राप्त नहीं कर लेता। यही सबसे बड़ा कारण है कि किशोरीदास वाजपेयी और डाॅ. रामविलास शर्मा का चिंतन तथाकथित भाषावैज्ञानिक कोटि के अंतर्गत नहीं रखा गया है, क्योंकि न तो किशोरीदास बाजपेयी ने विदेश की ओर देखा और न ही डाॅ. शर्मा ने कभी पाश्चात्य विचारों को अपने लेखन पर हाबी होने दिया। भाषाविज्ञान से संबंधित ‘भाषा और समाज’ ‘राष्ट्रभाषा की समस्या’, ‘प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी‘, ‘आर्य और द्रविड़ भाषा परिवारों का संबंध’ आदि भाषावैज्ञानिक ग्रंथ डाॅ. शर्मा की हिंदी जगत को महत्वपूर्ण देन है। साहित्य, भाषाविज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति ऐसा कौनसा विषय अछूता है जिसमें डाॅ. शर्मा की कुशल, प्रबुद्धतापूर्ण कलम न चली हो। भले ही किसी भाषाविद ने खुलकर स्वीकार न किया हो परंतु यह सत्य है कि डाॅ. शर्मा के भाषाशास्त्रीय चिंतन का प्रभाव परवर्ती भाषाचिन्तकों पर पड़ा है। उनकी भाषा एवं भाषाविज्ञान संबंधी स्थापनाएं गौण रूप से ही सही परंतु विचारकों पर प्रभाव परिलक्षित करा रही हैं। ऐतिहासिक और समाज भाषाविज्ञानी के रूप में प्रतिष्ठित भाषाविदों के ज्ञान की जड़ कितनी गहरी है यह उनकी पुस्तकों से स्पष्ट तब पता चलता है जब वे उदाहरण के लिए पाश्चात्य लेखकों की किताबों की ओर ही देखते हैं और अपने देश के ही एक चिंतक की अवहेलना कर स्वयं को श्रेष्ठता की श्रेणी में खड़ा कर लेते हैं। डाॅ. शर्मा ने भाषाशास्त्रीय चिंतन में जिन सूत्रों को आधार बनाया वे मुख्यतः आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के हैं। वाजपेयी जी के अतिरिक्त रामविलास जी कुछ संकेत अन्य विद्वानों से भी अर्जित करते हैं। हिंदी प्रदेश का सूत्र उन्होंने डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा से तथा मध्यदेश से, वैदिक भाषा तथा आधुनिक आर्यभाषाओं के विकास का सूत्र किशोरीदास वाजपेयी से ग्रहण किया। आचार्य किशोरीदास के कथनानुसार - ‘‘मैं डाॅ. रामविलास शर्मा को साधुवाद देता हूं, जिनकी जोरदार कलम ने इसके प्रति वैसा आकर्षण पैदा कर दिया! मेरी इसी कृति को यह सम्मान मिला कि एक दबंग और सुविज्ञ ‘डाक्टर‘ ने इसे ससम्मान अपनाया। लोगों का ध्यान तब विशेष रूप से गया। सुयोग संतति ने मुझे भी चमका दिया। यह पहला ही अवसर है एक डाक्टर ने अपने ग्रंथ में मेरा नाम लिया-हिंदी शब्दानुशासन के उद्धरण अपने मत की पुष्टि के लिए दिए। डाॅ. रामविलास शर्मा का ग्रंथ भाषा और समाज इस ग्रंथ के उद्धरणों से परिलुप्त है।-‘‘ 22 रामविलास शर्मा का चिंतन विद्वानों इकहरेपन के खिलाफ रहा। वे वस्तुओं की गतिशील अंतर्संबद्धताओं का अन्वेषण करने, उनकी तह तक पहुँचने के प्रयत्न में इतिहास, दर्शन, समाज, राजनीति, कला-साहित्य और अर्थव्यवस्था का अध्ययनरत रहे। किसी भी विधा में चिंतन एवं लेखन के पीछे उनकी प्रेरणा कहीं भी सिर्फ अकादमिक उपलब्धि नहीं रही बल्कि कुछ नवीन एवं मौलिक अन्वेषण ही उनके लेखन हेतु प्ररेणायक रहा। ’साम्राज्यवाद और सामंतवाद का विरोध’, भारत की आजादी के बाद भी औपनिवेशिक अन्यथाकरण को ध्वस्त करते हुए पूरे उप-महाद्वीपीय इतिहास, संस्कृति और जन-जीवन की वास्तविकताओं को वापस पाना, स्वायत्त करना ही उनका प्रमुख्य ध्येय रहा। उन्होंने साहित्य की प्रगतिशीलता का मापदंड भी ’सामंतवाद और साम्राज्यवाद के विरोध’ ही बनाया। इसी पैमाने पर उन्होंने हिंदी के आधुनिक साहित्य में कसाव देते हुए प्राचीन साहित्य नवीन व्याख्याओं से परिपूर्ण किया। उन्होंने परम्परा का मूल्यांकन करते हुए नवीन मार्ग का प्रशस्तीकरण किया। जब भारत साम्राज्यवाद के अधीन नहीं था, तब के साहित्य और सांस्कृतिक जागरण को उन्होंने ’सामंतवाद के विरोध’ के आधार पर जनजागरण कहा और सामंतवाद के साथ साम्राज्यवाद के विरोध पर आधारित जागरण को ’नवजागरण’ कहा गया। भाषा- विज्ञान की तरह रुख करने का कारण भी साम्राज्यवाद का विरोध ही था। डाॅ. शर्मा के स्वयं के कथनानुसार “भाषा-विज्ञान में काम करने की एक प्रेरणा ये थी की पाश्चात्य विद्वान कहते थे की भारत का कोई भी भाषा परिवार भारत का नहीं है। साम्राज्यवाद कहता है की तुम्हारा कोई भाषाई रिक्थ नहीं है। मैं कहता हूँ कि हमारा भाषाई रिक्थ है, हमारे भाषा-परिवारों के आपसी संबंध समझे बिना तुम यूरोप की भाषाओं का विकास नहीं समझ सकते।”23 वस्तुतः डाॅ. शर्मा ने विवेचन की पद्धति और दृष्टिकोण तो अपना रखा है मगर सामग्री विभिन्न भाषाशास्त्रियों से साभार एकत्र की है। इन एकत्र की हुई सामग्रियों का समाज सापेक्ष विश्लेषण डाॅ. शर्मा का निजी वैशिष्ट्य है। किसी भाषा अथवा भाषा परिवार का समाज सापेक्ष अध्ययन भारत में पहली घटना थी। डाॅ. शर्मा का दृष्टिकोण भी बिल्कुल नवीन था। उन्होंने जिस दृष्टिकोण को विवेचन का आधार बनाया वो अनेकान्तवादी दृष्टि थी। उन्होंने समाज-निर्माण की प्रक्रिया को अनेक कोणों से परिलक्षित किया और उससे संबंधित भाषा के विकास के स्रोत का अन्वेषण किया। डाॅ. शर्मा द्वारा भाषा विकास को समाज विकास के संदर्भ कई पक्ष निर्धारित किये - (1) संसर्ग द्वारा भाषा विकास, (2) साहित्यिक मानक के निर्माण द्वारा भाषा विकास (3) बोलचाल के रूपों तथा बोलियों से मानक का सह-संबंध, (4) भाषा रूपों की सामाजिक संबद्धता (5) भाषा बोली (स्पीच) भेद इत्यादि। राजमल बोरा द्वारा संपादित डाॅ. शर्मा की पुस्तक ऐतिहासिक भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा में उल्लेख किया गया है कि 19वीं सदी में ही ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की मान्यताओं और उसकी विश्लेषण पद्धति को अनेक विद्वान चुनौती देने लगे थे। इनमें बोली विज्ञान को लेकर महत्वपूर्ण कार्य हुआ। इस कार्य की विशेषता यह थी कि लिखित भाषाओं और परिनिष्ठित भाषाओं की अपेक्षा व्यवहार में आने वाली शहरों और गाँवों की बोलियों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता था। बोलियों के अध्ययन से यह सत्य प्रत्यक्ष हो जाता था कि व्यवहार जगत में बहुसंख्यक बोलियों की प्रधानता है, अल्पसंख्यक लिखित भाषाओं की नहीं। संस्कृत और हिंदी के ध्वनितंत्रों में एक भेद तालव्य ‘श‘ को लेकर है। बाँगरू समेत हिंदी प्रदेश की सभी बोलियों में दन्त्य ‘स‘ का व्यवहार होता है। पूर्वी समुदाय की आर्य भाषाओं में केवल बंगला अपने परिनिष्ठित रूप में तालव्य ‘श‘ का व्यवहार करती है। और इतना करती है कि तत्सम रूपों के दन्त्य सकार को भी वह तालव्य बना देती है। क्या अधिकांश आर्य भाषा क्षेत्र में ध्वनि प्रकृति क्षेत्र संबंधी ऐसा मौलिक परिवर्तन हुआ कि कि तालव्य ‘श‘ का लोप हो गया? या इस संभावना को स्वीकार करें कि आर्य भाषाओं के एक समुदाय में तालव्य ‘श‘ का व्यवहार होता ही न था?’’ राजकमल प्रकाशन की ओर से दी गई टिप्पणी इस पुस्तक की महत्ता का प्रतिपादित करती है -‘‘यह पुस्तक इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करती है कि रामविलास शर्मा ने भाषा की ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया को समझने के लिए प्रचलित मान्यताओं को अस्वीकार किया और अपनी एक अलग पद्धति विकसित की। रामविलास जी में जो भाषा की समझ थी उसे ध्यान में रखकर यदि ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान किए जाते तो निश्चय ही कुछ नए निष्कर्ष हासिल होते। रामविलास शर्मा ने विरोध का जोखिम उठाकर भी यह किया, जिसके प्रमाण इस पुस्तक में भी मिल सकते हैं।‘‘24 निष्कर्ष:- उपरोक्त अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि डाॅ. शर्मा अग्रेजी के प्राध्यापक थे, फिर भी उन्होंने हिंदी को अपने विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और इस तरह अपनी मौलिक रचनाशीलता से आज न केवल हिंदी जगत में अपितु भारतीय साहित्य में अप्रतिम साहित्यकार के रूप में विख्यात हैं। ‘‘डाॅ. शर्मा को यह दृढ़ विश्वास था कि मैं किसी न किसी समय इस हिंदी सागर की गहराइयाॅं नापूॅंगा और सफल होऊॅंगा।’’25 आज हिंदी साहित्य में उनका स्थान देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उनका आत्मविश्वास गलत नहीं था। भाषाओं का वर्गीकरण करना, भाषा परिवारों की स्वतंत्र पहचान करना, उनका विश्लेषण-विवेचन करना तथा हिंदी का संस्कृत भाषा के साथ ठीक-ठीक संबंध बताना ऐतिहासिक भाषा विज्ञान का काम है। भाषाओं का तुलनात्मक विवेचन भी ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के दायरे में आता है। इसी के कारण भाषा परिवारों को पहचानने का आधार बन पाता है। सन् 1996 में त्रिनिदाद में आयोजित पाॅंचवें हिंदी सम्मेलन के अवसर पर विदेश मंत्रालय भारत सरकार द्वारा प्रकाशित स्मारिका में अपने संदेश में विश्व में हिंदी के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा- ‘‘विश्वभाषा के रूप में हिंदी का भविष्य उज्जवल है। साम्राज्यवादी प्रभुत्व के दिन गए। हर देश में जनता अपनी राजनीतिक स्वाधीनता के साथ आर्थिक पर निर्भरता से मुक्त होने के लिए संघर्ष कर रही है। इस संघर्ष में विश्व जनता के संपर्क की भाषा हिंदी है। इस संघर्ष में यह जनता जितनी ही आगे बढ़ेगी, उतना ही हिंदी का राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व उजागर होगा।’’ संदर्भ सूची:- 1. डाॅ. रामविलास शर्माः अपनी धरती अपने लोगःआत्मकथा,खंड-3, 2010, किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली, पृष्ठ 102 2. कांति कुमार जैनः जो कहूंगा सच कहूंगा, 2006, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली पृष्ठ सं.156 3. डाॅ. रामविलास शर्माः प्रेमचंद और उनका युग,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं.253 4. डाॅ. रामविलास शर्माः भारत की भाषा समस्या और राष्ट्रीय विघटन,1961, पृष्ठ सं.134 5. डाॅ. रामविलास शर्माः भारत की भाषा समस्या और हिंदी, 1978, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,राष्ट्रभाषा समस्या, पृष्ठ 49 6. वही, पृष्ठ सं. 51 7. डाॅ. रामविलास शर्माःभारत की भाषा समस्या और हिंदी, 2003, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,भारत की भाषा समस्याःहिंदी-उर्दू समस्या से, पृष्ठ सं. 89 8. डाॅ. रामविलास शर्माःनिराला की साहित्य साधना’ द्वितीय खंड,1972, पृष्ठ 68 9. रामविलास शर्मा और हिंदी जाति, आलोचना, 2001, सहस्राब्दी अंक पाँच, पृष्ठ 73 10. अपनी धरती अपने लोगः खंड 2, पृष्ठ 224 11. एफ.डब्ल्यू.बैलबेंकःकैब्रिज एन्शेंन्ट हिस्ट्री,1984, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 225-226 12. एफ.डब्ल्यू.बैलबेंकःकैब्रिज एन्शेंन्ट हिस्ट्री,1984, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 228 13. भाषा और समाज’ पृष्ठ 367 14. डाॅ. रामविलास शर्माःभारत की भाषा समस्या और हिंदी, 1978, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली पृष्ठ 291 15. वसुधा-51, जुलाई-सितंबर 2001 अंक 16. डाॅ. रामविलास शर्माः भाषा और समाज, 1961, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण की भूमिका, पृष्ठ 59 17. डाॅ. रामविलास शर्माः अपनी धरती अपने लोगःआत्मकथा,खंड-3, 2010, किताबघर प्रकाशन,नई दिल्ली पृष्ठ 125 18. डाॅ.रामविलास शर्माःभाषा और समाज, 1961, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, भूमिका 19. डाॅ.रामविलास शर्माःभाषा और समाज,द्वितीय संस्करण की भूमिका, पृ.24-25 20. डाॅ. राजमल बोराः ऐतिहासिक भाषाविज्ञान, केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली, भूमिका, पृष्ठ 8 21. प्रो. दिलीप सिंह, भाषा का संसार, 2008, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली पृष्ठ 50 22. आचार्य किशोरीदास वाजपेयीःहिंदी शब्दनुशासन, द्वितीय संस्करण, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, निवेदन, पृ.सं.9 23. 11 जनवरी, 1994 को साहित्य अकादमी में दिए गए व्याख्यान का अंश 24. राजकमल प्रकाशन ीजजचरूध्ध्ीपदकपण्ूमइकनदपंण्बवउध्ःऐतिहासिक भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा 1090528052ऋ1ण्ीजउ 25. डाॅ. रामविलास शर्माःअपनी धरती अपने लोगःखंड-3, 2010, किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली पृष्ठ 28
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मेरी पुस्तकें

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लघुकथा

19 सितम्बर 2015
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हिंदी तथा ओडि़या के वचनः व्यतिरेकी विश्लेषण

19 सितम्बर 2015
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रामविलास शर्मा का भाषाविज्ञान विमर्श

19 सितम्बर 2015
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शरद सिंह के उपन्यासों में स्त्री सशक्तीकरण के स्वर

19 सितम्बर 2015
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कहानी

28 सितम्बर 2015
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28 सितम्बर 2015
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बेड़नीबस में चढ़ते हीचिरपरिचित आदत के अनुसारकिसी महिला के बगल वाली खाली सीट को पाने की ललकआधुनिक कही जाने वाली नारी का सामीप्‍य पाने की चिरपरिचित मानसिकता मनोइच्‍छा पूर्ण होती नजर आई सुंदर, अतिसुंदर, आकर्षक, सेक्‍सी आधुनिक परिधानों एवं अन्‍य अवयवों सहित बैठी युवतीलार टपकने वाली थीबड़ी मुश्किल से

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