shabd-logo

मन में स्मृतियाँ बहुत हैं!

23 सितम्बर 2015

375 बार देखा गया 375
featured imageराग कर्कश हो गया है ,स्वर में विकृतियां बहुत हैं | क्या सुनाये ,क्या छुपाएँ ,मौन स्मृतियाँ बहुत हैं ॥ साथ हम जिनके रहे हैं ,थे रास्ते उनके अलग , उनके कृत्यों से प्रताड़ित ,हम रहे अब तक सुलग , त्रासदी झेली जो हमने ,लेखनी कैसे लिखेगी , आंधीयों के गर्भ में ,अब रोशनी कैसे दिखेगी , दृश्य तो वीभत्स थे,पर उनकी भी प्रतियां बहुत हैं । राग कर्कश हो गया है ,स्वर में विकृतियां बहुत हैं | क्या सुनाये ,क्या छुपाएँ ,मौन स्मृतियाँ बहुत हैं ॥ व्यर्थ है संवाद ,परिचर्चा ना अब घोषित करो, खो चुका है सब्र बिलकुल,और मत शोषित करो, प्रेम का उपदान तुमसे,मिल सका ना उम्र भर , शब्द में गुंजित,व्यथा के रूप में आया उभर , क्या करे प्रितिरोध मन,मौन स्वीक्रितीयाँ बहुत हैं । राग कर्कश हो गया है ,स्वर में विकृतियां बहुत हैं | क्या सुनाये ,क्या छुपाएँ ,मौन स्मृतियाँ बहुत हैं ॥ शब्द की धुन पर थिरकना ,बोलना, जिसने सिखाया , ह्रदय-तंत्री के सुरों को , छेडना जिसने बताया , रात भी उस छवि -छटा में,ढल गई हो उषा में , जो हो सुगन्धित आज तक ,घुलती रही हो हवा में , कौन वह अदृश्य?जिसकी,दृश्यमय कृतियाँ बहुत हैं, राग कर्कश हो गया है ,स्वर में विकृतियां बहुत हैं | क्या सुनाये ,क्या छुपाएँ ,मौन स्मृतियाँ बहुत हैं ॥ दीप से निकसित किरन,बनके ज्योतिष्ना न आयी , मात्र ! तृष्णा ही मिली ,तृप्ति रही हरदम पराई , शून्य की अंतर-व्यथा से कर लिया हमने वरण , ग्रहण तम से , प्रणय करता ,जूझता अन्तःकरण , जन्म से परिचय अधूरा ,मृत्यु की तिथियाँ बहुत हैं । राग कर्कश हो गया है ,स्वर में विकृतियां बहुत हैं | क्या सुनाये ,क्या छुपाएँ ,मौन स्मृतियाँ बहुत हैं ॥ पांव जलते ,ठिठकते ,दुखते,की थककर लौट आते , प्राण प्यासे 'मृगा' से जब छटपटाते ,बैठ जाते , आँख से भाते निरंतर ,थरथराते अश्रु कण-कण , शुष्कता में चतुर्दिश छलकते ,सजल श्रम-कण , वेदना अभिव्यक्ति की 'अनुराग'लो विधियाँ बहुत हैं । राग कर्कश हो गया है ,स्वर में विकृतियां बहुत हैं | क्या सुनाये ,क्या छुपाएँ ,मौन स्मृतियाँ बहुत हैं ॥
प्रोसुमन लता भदौरिया

प्रोसुमन लता भदौरिया

शब्द की धुन पर थिरकना ,बोलना, जिसने सिखाया , ह्रदय-तंत्री के सुरों को , छेडना जिसने बताया , रात भी उस छवि -छटा में,ढल गई हो उषा में , जो हो सुगन्धित आज तक ,घुलती रही हो हवा में , कौन वह अदृश्य?जिसकी,दृश्यमय कृतियाँ बहुत हैं, अनूठा शब्द संयोजन ,साथक भावाभिव्यक्ति !

28 सितम्बर 2015

24 सितम्बर 2015

विकास मिश्रा

विकास मिश्रा

बहुत बहुत अच्छी

24 सितम्बर 2015

अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया 'अनुराग'

अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया 'अनुराग'

ये रचना आपको आकर्षित कर सकी इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ,शर्मा जी आपके शब्द हमारी शब्दरचना में संजीवनी का कार्य करते हैं ।

23 सितम्बर 2015

ओम प्रकाश शर्मा

ओम प्रकाश शर्मा

शून्य की अंतर-व्यथा से कर लिया हमने वरण , ग्रहण तम से , प्रणय करता ,जूझता अन्तःकरण , जन्म से परिचय अधूरा ,मृत्यु की तिथियाँ बहुत हैं.......... उत्कृष्ट रचना !

23 सितम्बर 2015

1

'भाल तिलक दे लाल'

8 अगस्त 2015
0
3
1

जीत के मस्तिष्क पर ,अभिषेक चन्दन का लगा दे ,सो रहीं जो युगों से , उन भवननाओ को जगा दे ।ले उठा वीणा प्रलय की, काल बेला आ गई ,शक्ति का संचार कर,ओ विश्व - मानव बन जई,है धरातल पर तिमिर ,तू हर गली में कर भ्रमण ,साथ में आलोक लेकर ,घर ,डगर ,कर जागरण ,'हर' हृदय की पीर ,मन से यातनाओं को मिटा दे ।आँसुंओं से स

2

गज़ल --जिंदगी जाती रही

18 अगस्त 2015
0
2
2

मंजिल तो थी मेरे सामने ,पर रहा भटकाती रही ,यूँ ही जिंदगी को ढूंढने में,जिंदगी जाती रही |ख्वाव में होंठों से उसने ,मेरी पलकों को छुआ ,जागने पर दो घडी तक, बेकली जाती रही |तुम गए मौसम गए ,गए मस्तियों के दौर भी ,श्याम के हाथों से मनो,बांसुरी जाती रही |आरजूएं हो गईं कद से बड़ी ,मैं क्या करूँ ?जब मुकम्बल

3

है मन तुम्हारे प्रेम में

1 सितम्बर 2015
0
3
1

तोड़ दो भ्रम ,छोड़ दो दर-दर भटकना ,मैं तुम्हारे द्वार पर कब से खड़ा हूँ ! मैं तुम्हारे हृदय की पीड़ा समझता हूँ प्रिये,तुम विकल रहती हो कितना,क्यों जलती हो दिए ,है मुझे सब बोध लेकिन मौन हूँ मैं ,शब्दश: अन्तःकरण में ,कौन हूँ मैं ,जो तुम्हारी आस्थाओं जुड़ा हूँ ।शब्द का सा रूप धर के ,शून्य का विस्तार करता

4

माँ सरस्वती स्तुति -दोहा

1 सितम्बर 2015
0
5
1

1-ब्रह्मप्रिया ,ज्योतिर्मया ,कमलकेश शुचिचन्द्र । उज्जवल निष्ठां रश्मिरथी ,विष्णुसुता ,ज्ञानेन्द्र ॥२- चमकि,चन्द्रिका चुहुँदिश पंकजपग आघात|तार,तान श्रंगार ,स्वर ,शोभित वीणा हाथ ॥3-धवलवसन ,हिमशिखर जिम,शूद्रवदन सिंगार|ज्योतृष्ना,निरखत नयन,ज्ञनोदर अनुहार ॥34-ज्ञान निर्झणी,नीरजा ,सुशुभि ,सुहासिन स्वान ।प

5

प्रेमपथ पर है धुआं सा !

2 सितम्बर 2015
0
2
1

अतिक्रमण कर प्रेमपथ का ,छल गया विश्वास मेरा ।अब अंधेरों में भटकता ,फिर रहा एहसास मेरा ॥रिक्तता की प्यास बुझती, ना हृदय की वेदना ,त्रासदी अन्तःकरण की ,है क्षणिक उत्तेजना , कुंडली सी मारकर,बैठा है कोई पंथ घेरे ,कौन वह ?कर्तव्य पथ कर रहा उपहास मेरा ॥ अतिक्र

6

मौनराग

4 सितम्बर 2015
0
4
2

कर्ण -कटु लगने लगीं हैं ,प्रेम की बातें प्रिये ,जेठ सी तपने लगी हैं,चांदनी रातें प्रिये ।वेदना की गूंज संचित ,ऊष्मा को पी गई ,मन,ह्रदय की बीथिकाओं में, हैं सन्नाटे प्रिये ।कर प्रणय-परिणय-मधुर,मन से अपरचित ही रहे ,ना ही मिलन की तान छेडी ,ना ही बतियाते प्रिये |मन -मदिर,मधुकर की है 'मकरंद' की तृष्णा

7

"ये मिलन की प्यास कैसी "

5 सितम्बर 2015
0
2
2

इस पिघलते ह्रदय में,है मिलन की आस कैसी ?बह रहा मन अश्रु बनके ,फिर नयन में प्यास कैसी?मौन मन उलझा उदासी की भवंर में अनवरत ,फिर है 'जुवां 'आहों की ,पदचाप ,कैसी ?कोई छेड़े स्वर, विरह की तान वीणा बेसुरी ,छटपटाती,व्यथित ,व्याकुल ,गूंजती आवाज कैसी ।फूल-कलियाँ रूठकर ,मंमुन्द एकाकी भ्रमर,गुनगुनाहट ,गुन्जनों

8

मंथन

5 सितम्बर 2015
0
1
2

होगा हृदय मंथन ,मगर विश्वास चाहिए,ज्यों अंधकार के लिए,प्रकाश चाहिए ।संभव है नई सृष्टि का,निर्माण तो मगर ,कल्पनाओं को खुला, आकाश चाहिए ।दृष्टि-दृष्टि के विभिन्न ,दृष्टिकोण हैं ,दृश्य को अदृश्य का ,एहसास चाहिए । संवेदना करेगी,सूक्ष्मता से निरिक्षण ,प्रस्तुत तो आदि -अंत का इतिहास चाहिए ।ये दौर मरुस्थल

9

"मन की वीणा के तार "

5 सितम्बर 2015
0
2
2

उठो !और दृढ़तर कसलो अपनी वीणा के तार,आदि -अंत से दिग-दिगंत तक ,दो स्वर को विस्तार ।मधुर-मधुर ध्वनि छेड़ ,तान ले ,राग आलाप,निराले ,साध सुरों की सरगम से,सारे संवेग जगा लो ;शब्द -संतुलन ,मधुर-मधुर सुर गूंजे शत-शत बार ॥उठो !और दृढ़तर कसलो अपनी वीणा के तार,आदि -अंत से दिग-दिगंत तक ,दो स्वर को विस्तार ।मुद

10

गतिरोधक

7 सितम्बर 2015
0
11
5

व्यर्थ की सम्भावनाये ,व्यर्थ की अवधारणाएं ,बनके पथबाधक खड़ी हैं,बनके गतिरोधक पड़ी हैं ।हाथ की चंचल लकीरें क्षणिक बदले रूप अपना ,कर्म से अवतीर्ण होती ,देखती नित नवल सपना ,तोडती प्रितिबंध लेकिन ,ना कभी आगे बढ़ी हैं । व्यर्थ की सम्भावनाये ,व्यर्थ की अवधारणाएं ,

11

"मुस्कान लिए फिरता हूँ "

8 सितम्बर 2015
0
9
2

मैं अधरों पे अनचाही मुस्कान लिए फिरता हूँ ,भीगी आँखों में सपने ,सम्मान लिए फिरता हूँ ॥हो विकल विरह का ज्वार ,हृदय में उठता है ,वो निगल गिरह का भार ,प्रलय में ढलता है,मध्धम -मध्धम सांसों का ,अभिमान लीए फिरता हूँ ।मैं अधरों पे अनचाही मुस्कान लिए फिरता हूँ ,भीगी आँखों में सपने ,सम्मान लिए फिरता हूँ

12

फिर भी अभिमान नहीं त्यागा !

8 सितम्बर 2015
0
6
2

चिर विकल रहा ये ह्रदय मेरा ,फिर भी अभिमान नहीं त्यागा 'वो आया ,आकर चला गया,हमने एहसान नहीं मांगा ।जाने कल क्या इतिहास लिखे ,जीवन गरिमा तो साथ रही ,आती -जाती साँसों को गिना,धड़कन की गणना याद नहीं,वाद हुआ,प्रितिवाद हुआ ,वादी भी गया प्रतिवादी भी ,वह मेरा कारगार बना ,जिस घर जिसको आज़ादी दी ,हथकड़ी हाथ ,बे

13

शब्दहीन संवाद एक दिन !

9 सितम्बर 2015
0
4
10

जीना था तो जिए सोचकर ,तन के उबटन किये रोज पर ,कतरन-कतरन सियें ढूँढकर ,उम्मींदों को घूँट-घूंट कर पीना,पलकों के पीछे छुप जाते,जब भी डरके !हौले -हौले आँख खोलकर , जब परदे के बाहर झाँका,घुप्प अँधेरा !सन्नाटे की चादर ताने ,दूर कहीं इक शोर दिखाता,अभी प्रहर भर,रात्रि शेष है ।तम के टुकड़े टूट-टूट कर,मन-व्यक्त

14

हिंदी गौरव

10 सितम्बर 2015
0
3
1
15

ये अस्पताल हत्यारें हैं !

13 सितम्बर 2015
0
3
0

खबर सुनकर स्तब्ध मन ,भर गया पीड़ा से मेरा रोम-रोम ,सहसा चौंक कर ,छटपटायी ,अात्मा,नेत्र जल से भर उठे,व्यथित मन संकुचित हो, फिर अचानक क्षितिज सा आकार ले,विस्तृति मगर धुंधला ,बहुत उलझा हुआ,हृदय में दग्ध बहती आग सी इक टीस , सहसा उबलके ,अधरों पे बरबश छलक आयी ,ना कुछ कह सके ,ना सुन सके ,बस थरथराते ही रह

16

ये अस्पताल हत्यारें हैं !

13 सितम्बर 2015
0
4
1

खबर सुनकर स्तब्ध मन ,भर गया पीड़ा से मेरा रोम-रोम ,सहसा चौंक कर ,छटपटायी ,अात्मा,नेत्र जल से भर उठे,व्यथित मन संकुचित हो, फिर अचानक क्षितिज सा आकार ले,विस्तृति मगर धुंधला ,बहुत उलझा हुआ,हृदय में दग्ध बहती आग सी इक टीस , सहसा उबलके ,अधरों पे बरबश छलक आयी ,ना कुछ कह सके ,ना सुन सके ,बस थरथराते ही रह

17

अभी शेष हैं बात

14 सितम्बर 2015
0
2
1

अभी शेष है निशा चलो !कुछ देर मचल कर रात गुजारें ।पूछ चुके हैं जाकर दर -दर ,ढूंढ रहे थे जिनको घर-घर,थी जिनकी अभिलाषा मन को ,जहाँ झुके थे प्रणय नमन को ,आज वो ही आये हैं अपनी, परिभाषा लेकर मेरे द्वारे । अभी शेष है निशा चलो !कुछ देर मचल कर रात गुजारें ।

18

मनोहर छवि,आवरण हटा दो!

19 सितम्बर 2015
0
3
2

हम अवलोकन करें मनोहर छवि आवरण हटा दो,सदृश चांदनी ,स्वच्छ शिखर तक ,मलय सुगंध बहा दो । लेकर हुए उपस्थिति हम सब ,नव जीवन का नवल प्रभात ,जन-मानस के अभिनन्दन को ,देने खुशियों की सौगात ,तिमिर पंथ है कण-कण में ,चहुँदिश आलोक बिछा दो ॥हम अवलोकन करें मनोहर छवि आवरण हटा दो,सदृश चांदनी ,स्वच्छ शिखर तक ,मलय सुग

19

मन में स्मृतियाँ बहुत हैं!

23 सितम्बर 2015
0
8
5

राग कर्कश हो गया है ,स्वर में विकृतियां बहुत हैं |क्या सुनाये ,क्या छुपाएँ ,मौन स्मृतियाँ बहुत हैं ॥साथ हम जिनके रहे हैं ,थे रास्ते उनके अलग ,उनके कृत्यों से प्रताड़ित ,हम रहे अब तक सुलग ,त्रासदी झेली जो हमने ,लेखनी कैसे लिखेगी ,आंधीयों के गर्भ में ,अब रोशनी कैसे दिखेगी ,दृश्य तो वीभत्स थे,पर उनकी भ

20

'ज़िन्दगी गुम गई माइनो में'

24 सितम्बर 2015
0
9
7

ज़िन्दगी गुम गई माइनो में,धूल जमती रही आइनों में ।अब परत-दर-परत खोल देंगे ,जो भी दिल में है ,सच बोल देंगे ,अब ना,आवाज़ देकर बुलाना ,बहुत मुश्किल है, अब लौट पाना,मूंक संकेत थे सब तुम्हारे ,एक मुद्दत गई ,चाहतों में ।जो गया वो समय साथ होता ,आपको काश !एहसास होता ,यूँ ना तुम रुठते ,इतना ज्यादा ,तुम निभात

21

सार दे माँ शारदे !

10 नवम्बर 2015
0
4
0

वीणा की झंकार दे,मन के तार संवार दे !हंस वाहिनी माँ कमलासिन,हमको अपना प्यार दे !!मीरा,सूर,कबीरा ने भी माँ चरणों में सुमन चढ़ाये,तुलसी ने मानस में जी भर तेरे ही इच्छित गुण गाये,मेरी कल्पना की उड़ान बन,रचना को श्रंगार दे ।वीणा की झंकार दे,मन के तार संवार दे !हंस वाहिनी माँ कमलासिन,हमको अपना प्यार दे !!आ

22

माँ शारदे की स्तुति गान !

12 फरवरी 2016
0
1
2

1-ब्रह्मप्रिया ,ज्योतिर्मया ,कमलकेश शुचिचन्द्र ।उज्जवल निष्ठां रश्मिरथी ,विष्णुसुता ,ज्ञानेन्द्र ॥२- चमकि,चन्द्रिका चुहुँदिश पंकजपग आघात|तार,तान श्रंगार ,स्वर ,शोभित वीणा हाथ ॥3-धवलवसन ,हिमशिखर जिम,शूद्रवदन सिंगार|ज्योतृष्ना,निरखत नयन,ज्ञनोदर अनुहार ॥34-ज्ञान निर्झणी,नीरजा ,सुशुभि ,सुहासिन स्वान ।पद

---

किताब पढ़िए