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बिहार चुनाव परिणामों की समीक्षा

9 नवम्बर 2015

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रविवार का दिन विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के लिए एक महत्वपूर्ण दिन साबित हुआ व मौजूदा सरकार के या प्रधानमंत्री के सभी एकजुट विरोधियों को यह विश्वास हो गया कि नरेन्द्र मोदी अजेय नहीं है। मैं बिहार के जनादेश का सम्मान करता हूं व महा गठबंधन को शुभकामनाएं देता हूं।

     परन्तु इन परिणामों की निष्पक्ष समीक्षा व इनके प्रभाव का मूल्यांकन आवश्यक है। चुनाव पूर्व स्थिति की बात करें तो जहां डूबते राजनीतिक भविष्य के खतरे ने लालू , नीतिश व राहुल को एक साथ आने पर मजबूर किया वहीं भाजपा के विकास के मुद्दे पर अडिग न रह पाने के कारण या बिहार की जातिवादी राजनीति को विकास के साथ साधकर स्पष्ट बहुमत तक पहुंचने की ललक ने उसे पासवान व मांझी से हाथ मिलाने पर मजबूर किया।            पहले चरण का प्रचार शुरू होते ही भाजपा व प्रधानमंत्री की ओर से सिर्फ विकास के मुद्दे पर जोर दिया गया , जो महागठबंधन के लिए असहज स्थिति थी। महागठबंधन की ओर से विकास के मुद्दे को गौण बनाने का जिम्मा लालू जी को सौंपा गया। लालू जी ने अपने दायित्व निर्वहन में कोई कसर न छोड़ते हुए भारतीय समाज की एकता के इतने खंड कर डाले कि लोकतंत्र की मूल भावना पीछे रह गयी व व्यक्तिगत क्षुद्र हित प्रधान हो गये । अगड़ी पिछड़ी जातियों से आगे वह दलित महादलित तक पहुंच गये, मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों की बारी आने पर तो उन्होंने संविधान निर्माताओं को भी शर्मिंदा करते हुए आरक्षण को धार्मिक आधार तक दे डाला । लालू जी का परिश्रम सफल हुआ, वे विजयी हुए , राजद सर्वाधिक सीटें जीती। 

                     ये जीत सिर्फ महागठबंधन या लालू जी की जीत नहीं है , ये सामंतवादी विचारधारा की जीत है , ये पिछले ६८ वर्षों से समाज को वोट के लिए बांटने वालों, उन पर पिछड़ापन लादने वालों की जीत है। तो पराजित कौन हुआ ? नरेन्द्र मोदी ? भाजपा? जी नहीं , पराजित हुए है हम , हम युवा जो समाज को बटते नहीं , एक साथ खड़े होकर इस देश को  महाशक्ति बनाना चाहते हैं। पराजित हुई है लोकतंत्र की भावना, पराजित हुआ है संविधान का एकता का सिद्धांत । हमारी जनता एक ऐसे व्यक्ति को चुनती है जिसको सर्वोच्चय न्यायालय ने चुनाव लड़ने से रोक रखा है, ऐसी पार्टी का साथ देती है जो संसद के कामकाज को ठप्प रखकर इस देश के विकास में बाधा डालती है । 

      पिछड़े व मुस्लिम समाज की असुरक्षा को ढाल बनाकर ये पार्टियां तुष्टीकरण की राजनीति करती है व इसके लिए आवश्यक है कि पिछड़े सदैव पिछड़े बने रहें , जिसके लिए सबसे उपयुक्त हथियार विकास से बचना है। भाजपा के साथ समस्या है कि वे ओछेपन की इस हद तक नहीं गिर पाते व जब वे गिरते हैं तो वे अपने आधार वोट , शिक्षित  वर्ग से हाथ धो बैठते हैं। प्रधानमंत्री पहले चरण के बाद शायद ये समस गये थे कि बिहार उनसे एक वर्ष में किसी तिलिस्म की आस लगाये था व यहां अभी भी जातिवादी राजनीति का बोलबाला है अतः उन्होंने लालू जी को उनकी  भाषा में जवाब देना शुरु किया जो शायद ठीक नहीं था।           इन परिणामों का एक विश्लेषण और हो सकता है , बिहार की साक्षरता दर 63% है, जिसका एक बड़ा हिस्सा  अन्य राज्यों में रहते हैं जो मतदान नहीं कर पाते व जो अन्य राज्यों में विकास व बढ़ते जीवन स्तर को देख रहे हैं। कुल मतदान 56 - 57% हुआ, जिसमें वे लगभग  पूरे 37% लोग है जो निरक्षर हैं व जिन्हें विकास के मुद्दे से जातिवाद की ओर मोड़ा जा सकता है अतः मजबूत  लोकतंत्र के लिए अनिवार्य मतदान आवश्यक है व अन्य राज्यों में रह रहे लोगों की भी भागीदारी हो। 

                 ऐसे कठिन समय में राष्ट्र अपने प्रबुद्ध समाज से यह अपेक्षा करता है कि वे जन जागरण का बीड़ा उठाये परन्तु यहां तो एक वर्ग राष्ट्र की छवि विश्व में धूमिल सिर्फ इसलिए  कर रहा है कि उनके रहनुमा सत्ता से बाहर हैं। दादरी जैसी घटना घृणित है परन्तु उस पर इतनी चर्चा एकता व सामाजिक सौमनस्य पर चोट है। मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा के बयान पर ऐसा भूचाल आया कि लगा आज हमारे देश में निष्पक्ष समीक्षा भी नहीं की जा सकती  ऐसे विषयों की, तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहां गई थी ! 

            परन्तु जनता ने बिहार के परिणामों में ये साफ कर दिया कि वे जाति , धर्म , आरक्षण के फेर में ६८ साल बाद भी पड़े रहना चाहते हैं। पिछले वर्ष उतावलेपन में मोदी जी को ले तो आये परन्तु उनके "विज़न" के लिए इस देश का एक बड़ा हिस्सा अभी तैयार नहीं है।

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anuragtrivedi
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