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गाना विश्लेषण : तुम तो ठहरे परदेसी (अल्ताफ राजा)

28 जनवरी 2015

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अल्ताफ ने “तुम तो ठहरे परदेसी” गाना सन 1998 में गया था, पर गाते वक़्त शायद ही उन्हें इल्म था कि आगे चल कर ये गाना असफल और कन्फ्यूज्ड आशिकों के लिए “गीता” बराबर हो जाएगा। समय के सीमाओं से परे ये गीत गाया गया था उस दौर में जब लड़कियां लड़कों को बेल बॉटम पैंट में देख कर ही इम्प्रेस हो जाया करती थीं। पर सत्रह साल बाद भी इस गाने की एक एक पंक्तियाँ उतनी ही सच और दार्शनिक हैं जितनी वो तब थीं। उपदेश देते अल्ताफ राजा अगर आप ध्यान से गाने को सुनें तो ऐसा महसूस करेंगे मानो अल्ताफ राजा मोहब्बत के जंग में जूझते एक आशिक़ का मार्गदर्शन करते हुए उपदेश दे रहे हैं इसी क्रम में ज़िन्दगी की ऐसी ऐसी सच्चाइयों को गीत के रूप में बोल रहे हैं जिनसे फेसबुक-ट्विटर वाले जमाने के आशिक़ भी काफी कुछ सीख सकते हैं। गाने की शुरुआत ही एक सरकास्टिक सवाल-जवाब के साथ होता है। “तुम तो ठहरे परदेसी, साथ क्या निभाओगे, सुबह पहली गाड़ी से, घर को लौट जाओगे,” यह मॉडर्न रिलेशनशिपस के छणभंगुरता पर एक तरह का कटाक्ष है। अल्ताफ ये गाना 1998 में गा रहे थे, 1991 के सात साल बाद जब हिदुस्तान ग्लोबलाइजेशन की गंगा में धीरे धीरे डुबकी मारना शुरू ही कर रहा था। उन्होंने ये भांप लिया था कि वेस्ट से शार्ट-टर्म रिलेशनशिप वाला कल्चर धीरे धीरे हिदुस्तान भर में फैल जाएगा इसलिए यहाँ के युवाओं को आगाह करना और उस तरह की रिलेशनशिप्स की बारीकियों को समझाना ज़रूरी है। हिदुस्तान अब रफ़ी और किशोर कुमार के लॉन्ग टर्म रिलेशनशिप वाले ज़माने से आगे बढ़ रहा था, और यहाँ के यंग जनरेशन को कोई एक ऐसे शख्स की जरूरत थी जो कि इस शार्ट टर्म रिलेशन वाली वेस्टर्न टेक्नोलॉजी को अच्छे से एक्सप्लेन कर पाये, ताकि वो भी बाकी दुनिया के साथ कदम से कदम बढ़ा कर चल सकें। और अल्ताफ के गानों ने ये काम बखूबी किया। प्री ग्लोबलाइजेशन गायक अपने गानों में सरकास्म का बहुत ज्यादा इस्तेमाल नहीं करते थें, क्योंकि सरकास्म किसी तरह से एक टूटते रिलेशनशिप को बचा नहीं सकता, बल्कि इसका उल्टा असर हो सकता है। पर अल्ताफ ने इस गाने में दिल खोल ताने मारे हैं और वो मॉडर्न आशिकों को भी यही सीखा रहे हैं। जैसे कि ये पंक्तियाँ: “मुझको क़त्ल कर डालो शौक़ से मगर सोचो, मेरे बाद तुम किस पर ये बिजलियां गिराओगे।” इसमें अल्ताफ साफ़ साफ़ ये कह रहे हैं लड़की के पास बिजलियाँ गिराने के लिए और कोई है ही नहीं, जो कि एक तरह का इंसल्ट है लड़की के टैलेंट का। एक तरीके से अल्ताफ आशिकों से कह रहे हैं कि रिस्क लो, डरो नहीं की वो छोड़ कर चली जायेगी, एक जायेगी तो दूसरी आएगी। इसलिए उन्होंने शुरू में ही पूरे विश्वास के साथ कह दिया था “तुम तो ठहरे परदेसी, साथ क्या निभाओगे।” हालांकि अल्ताफ ने इस गाने में नए ज़माने के हिसाब से शिक्षा देते हुए भी 1991 के पहले वाले हिदुस्तानि आशिकी को थोड़ा थोड़ा याद ज़रूर रखा है। जैसे कि ये पंक्तियाँ: “जब तुम्हें अकेले में मेरी याद आएगी आँसुओं की बारिश में तुम भी भीग जाओगे।” ये रफ़ी के जमाने वाले फीलिंग्स हैं, दो जिस्म एक जान वाली। आज भी नब्बे के दशक में बड़े हुए बच्चे जब खुद को प्यार के दोराहे पर पाते हैं तो अल्ताफ भाई और उनके इस गाने को ज़रूर याद करते हैं। ये गाना मार्गदर्शक के रूप में काम करते हुए उन्हें प्री-ग्लोबलाइजेशन वाले प्यार की तमन्ना और आज के मॉडर्न ज़माने वाले प्यार की सच्चाई के बीच सामंजस्य बिठाने में काफी मदद करता है।

मनीष तिवारी ,चंचल की अन्य किताबें

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