महावीर शर्मा
हमारा शरीर ईश्वर प्रदत्त है और इसकी शारीरिक
एवं मानसिक कार्यप्रणाली सर्वदा समस्थिति और संतुलन में रहने के लिए प्रेरित रहती
है| यदि शरीर में कोई विजातीय और अवांछित
तत्व या द्रव्य उत्पन्न हो जाते हैं या प्रवेश कर जाते हैं या गलती से
ग्रहण कर लिए जाते हैं तो इसमें स्वाभाविक क्षमता होती है कि उन्हें स्वचालित
कार्यप्रणाली द्वारा स्वाभाविक तरीके से निष्कासित कर दिया जाए| इसी प्रकार
मनोमस्तिष्क में भी किसी चुनौती या स्थिति में परिवर्तन के कारण कोई विकार उत्पन्न
हो जाते हैं या विचारों में विकृति आ जाती है तो उसे संतुलन की स्थिति में लाने के
लिए मनोमस्तिष्क प्रयास करता है| यह अलग बात है कि हम कभी शरीर या मन की सुनते
हैं, कभी नहीं सुनते| जब नहीं सुनते तो भी हमारा शरीर या मन हमें चेताते अवश्य हैं
लेकिन फिर भी हम शरीर या मन को संतुलन की अवस्था में आने मे मदद करने की ओर ध्यान
नहीं देते बल्कि उन विकारों या विजातीय तत्वों को पोषित करते जाते हैं तो शरीर और
मन उसका सामना करने की क्षमता खोने लग जाते हैं और विद्रोह कर देते हैं| यही
अवस्था हमें शारीरिक और मानसिक रोगों से ग्रसित करने की ओर प्रवृत्त करती है|
विज्ञान की भाषा में कहें तो शरीर और मन तीन
स्थितियों अर्थात संकट सूचना (अलार्म), सामना (रेसिस्टेंस) और परिश्रान्ति
(एक्जोशन) की स्थितियों से गुजरने के बाद ही रोग-ग्रस्त होते हैं| यहाँ हम केवल मन
की बात ही करेंगे क्योंकि कार्य के कारण तनाव मन की स्थिति से ही संबंधित है| जब
किसी व्यक्ति को किसी चुनौती, घटना, स्थिति-परिवर्तन आदि किसी कारक का सामना करना
पड़ता है और इनसे उस व्यक्ति को कोई खतरा या विघटनकारी प्रतिफल या किसी प्रकार की
कोई हानि की आशंका होती है तो वह मानसिक रूप से उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया देता है|
सामान्य अर्थ में यही प्रतिक्रिया “तनाव” कही जाती है और सामान्यतया “तनाव” हर
स्थिति में बुरा नहीं होता बल्कि कहीं-कहीं आवश्यक भी होता है जो व्यक्ति को
जाग्रत और संवेदनशील बनाता है| अंतर इतना है कि इस प्रतिक्रिया का वेग अर्थात
व्यक्ति की तनाव के प्रति अभिव्यक्ति कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करती है जैसे उस
व्यक्ति के लिए उस तनाव-कारक घटना/स्थिति का क्या महत्त्व है, प्रतिफल अर्थात घटना
का परिणाम क्या होगा- इसमें कितनी अनिश्चितता है और घटना व उसके प्रतिफल/परिणाम के
बीच कितनी अवधि का अंतराल होगा अर्थात घटना की स्थितियां दीर्घकाल तक रहेंगी या
अल्पकाल में ही समाप्त हो जाएँगी|
हमारे मस्तिष्क में प्रमस्तिष्कीय प्रांतस्था
(सेरेब्रल कोर्टेक्स) होती है जो घटनाओं की प्रकृति का निर्णय करती है| जब भी कोई
घटना या तनाव-कारक उत्पन्न होता है, यह सक्रिय हो जाती है| इसके साथ ही एक तो हमारा
स्वायत्त स्नायुतंत्र (ऑटोनोमिक नर्वस सिस्टम) शरीर की कार्यप्रणाली को नियमित
करता है जिसका हमें ज्ञान भी नहीं हो पाता और न ही हम उसे नियंत्रित कर सकते हैं|
दूसरा हमारा अनुसंवेदी स्नायुतंत्र (सिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम) हार्मोन्स प्रवाहित
करता है और शरीर में ऊर्जा संचारित कर अवयवों को निर्देश देता है कि “लड़ो” या “भाग
जाओ” (फाइट या फ्लाईट)| अधिवृक्क
ग्रंथि (एड्रेनलिन ग्लेंड) एपिनेफ्राइन और कार्टिसोल नामक हार्मोन प्रवाहित करती
है| केन्द्रीय नर्वस सिस्टम से प्रवाहित होने वाला एंडोर्फिन दर्द-निवारण में
सहायक होता है|
संकट सूचना
(अलार्म) : यह पहली स्थिति है जिसमें हमारी शारीरिक कार्यप्रणाली चेतावनी
देने का कार्य कर रही है|
सामना
(रेसिस्टेंस) : यदि हम चेतावनी के माध्यम से उस स्थिति से नहीं निकल पाते हैं तो
शरीर उसका सामना/मुकाबला करने को तैयार हो जाता है और उक्त घटना/कारक से कारण
हमारे शरीर के जो भी अंग उत्तेजित हुए/प्रभावित हुए, उन्हें सामान्य दशा में लाने
के लिए सम-अनुसंवेदी स्नायुतंत्र (पेरा- सिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम) सक्रिय हो जाता
है और संतुलन/साम्य स्थिति स्थापित करता है| यह सामना (रेसिस्टेंस) की स्थिति है|
परिश्रान्ति
(एक्जोशन) : यदि दूसरी स्थिति लगातार दीर्घकाल तक बनी रहती है तो शरीर और मन
की क्षमता चुकने लगती है, उनकी ऊर्जा/प्राणशक्ति समाप्त होने लगती है और वे
संतुलन/साम्य अवस्था में आने की अपनी ताकत खोने लगते हैं| यह परिश्रान्ति या
एक्जोशन की अवस्था होती है|
तनाव के प्रभाव : पेशे/कार्य
के दौरान तनाव आना स्वाभाविक है परंतु पेशे/कार्य के कारण दीर्घकाल तक तनाव लेना
उचित नहीं होता| कामकाजी/पेशेवर व्यक्तियों को आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं
प्रौद्योगिकीय परिवर्तनों के कारण तनाव पैदा हो सकता है| इसके अलावा जहाँ पेशा/कार्य
करते हैं वहाँ की स्थितियां, पेशे/कार्य का स्वरुप, पेशे/कार्य में व्यक्ति की
भूमिका और स्वरुचि, आपसी व्यक्तिगत संबंध और निजी कारणों जैसे पारिवारिक समस्या,
आर्थिक स्थिति व व्यक्तित्व भी तनाव को जन्म देते हैं| साम्य स्थिति का तनाव तो
व्यक्ति को श्रेष्ठतम करने में सहायक है परंतु कम तनाव और अधिक तनाव दोनों ही
स्थितियां कार्य-निष्पादन क्षमता में गिरावट ला देती हैं|
तनाव हर व्यक्ति में अलग-अलग रूपों में नजर आता
है} यह अंतर उन व्यक्तियों के मानसिक अवबोध, कार्यानुभव, सामाजिक सहयोग, अपने
विश्वास-संस्कार, स्वयं की प्रतिक्रिया-क्षमता और विद्वेषता पर काफी निर्भर होता
है| कार्यालय में कार्य के कारण होने वाले तनाव से व्यक्ति में कई शारीरिक लक्षण
उत्पन्न हो सकते हैं जैसे ज्यादा पसीना आना, आँखों की पुतलियाँ फ़ैल जाना, ह्रदय
गति बढ़ना, कब्ज हो जाना| दीर्घकाल तक तनाव की स्थिति में रहने से ये लक्षण कालांतर
में उच्च रक्तचाप, उदर रोग, सिरदर्द, माइग्रेन, ह्रदय रोग, त्वचा विकार के रूप में
सामने आ सकते हैं वहीं मनोरोग के कई लक्षण जैसे चिंता का आधिक्य (एन्जायटी),
आक्रामकता, निराशा, कुंठा, उदासीनता, अवसाद, कार्य-संतुष्टि में कमी भी उत्पन्न हो
सकते हैं| व्यक्ति के व्यवहार में उसका जो विपरीत प्रभाव होगा, उससे उसकी निर्णय
क्षमता में गिरावट, ध्यान केंद्रित न होना, बार-बार ध्यान भंग होना, उत्पादकता में
कमी, कार्य-स्थल पर अनुपस्थिति अधिक होना और कार्य छोड़ देना जैसी समस्याएं होंगी
जो अंततः व्यक्ति को व्यसनी बना सकती हैं, दुर्घटनाओं का कारण बन सकती हैं या अधिक
भूख पैदा कर सकती है| साथ ही संगठन के लिए भी उतनी ही नुकसानदायक सिद्ध हो सकती
हैं|
तनाव से बचने के
उपाय : व्यक्ति और संगठन दोनों के लिए वास्तव में हानिकारक इस तनाव से
बचने के लिए या तो इसकी आवृत्ति या वेग में कमी लाई जाए अथवा इसके दुष्प्रभावों को
निष्फल करने या न्यूनतम करने के उपाय किए जाएँ तो यह व्यक्ति और संगठन दोनों के
लिए हितकर होगा| ये सब तब किया जा सकता है जब तनाव के कारण समझे जाएँ|
जब पेशे/कार्य में व्यक्ति की भूमिका के कारण
तनाव आ रहा हो तो उसका सामान्य कारण होता है _ अपेक्षाएं| हम कार्यालय में समूह
में कार्य करते हैं और एक-दूसरे से कुछ अपेक्षाएं होती हैं| जब भूमिकाओं में आपसी
संघर्ष उत्पन्न होता है तो कार्य-संतुष्टि का स्तर गिरने लगता है और तनाव पैदा
होता है| जिस व्यक्ति के पास ज्यादा अधिकार होते हैं, ज्यादा जिम्मेदारियां लेनी
होती है, उसे ज्यादा तनाव झेलना पड़ता है| इसी प्रकार यदि पति-पत्नी दोनों कामकाजी
हैं और एक के पदोन्नति के अवसर दूसरे की प्रगति पर बुरा असर डालते हैं तो भी इस
प्रकार का तनाव उत्पन्न होगा| यहाँ मधुर-संबंध और दल-भावना उपयोगी रहेगी|
आपके पास समय सीमित है, कामों की सूची बड़ी है
तो अनुसंधान बताते हैं कि शरीर में कुछ जैव-रासायनिक परिवर्तन होते हैं जैसे कोलेस्ट्रोल
बढ़ना, रक्त-शर्करा स्तर में वृद्धि आदि| इसके विपरीत यदि काम कम है, समय फालतू है
तो भी तनाव की जोखिम रहती है और व्यसनों की ओर ले जाती है|
आज का युग परिवर्तनों का युग है| संगठन और
कार्यालय के भीतर कई तरह के बदलाव हो रहे हैं| इनमें आपको समायोजित होना होता है|
यह सब तनाव को उत्पन्न कर रहा है| इस परिस्थिति में आप अनुकूलित न हो पाए और इस
कारण ही तनाव में रहे तो अवश्य ही रोगग्रस्त हो जाएंगे| ऐसा कई अनुसंधानों में
पाया गया है कि जीवन में परिवर्तन की घटना और स्वास्थ्य का सीधा संबंध है| यदि आप
इन्हें चुनौती समझ मुकाबला करने में समर्थ होते हैं तो प्रभाव कम बुरे या अच्छे ही
होंगे|
अतः हमें कार्यालयों में तनाव से कर्मचारियों को बचने के लिए संगठन
के साथ साथ व्यक्ति के हित में कुछ ऐसे उपाय करने चाहिए :-
·
तनाव को समझने और उसके कारणों को दूर करने या
उससे बचने का प्रशिक्षण देना|
·
कार्य की प्रकृति, उसके स्वरुप, कार्य के घंटे,
या टीम के नेतृत्व में यथासंभव परिवर्तन कर देना|
·
आपसी संवाद, सम्प्रेषण एवं दल-भावना को बेहतर
करना|
·
किसी सहयोगी से स्थितियों का स्वतंत्र
मूल्यांकन करवाकर सुझाव या परामर्श लेना|
·
संभव या आवश्यक हो तो कार्य के बदले मिलने वाले
धन-लाभों को कर्मचारी की जरूरतों के अनुरूप करना|
·
संभव या आवश्यक हो तो कर्मचारी के कौशल,
योग्यताओ एवं अनुभव के अनुरूप उसे कार्य सौंपना| इसके लिए भर्ती/चयन स्तर पर ही
उसके ज्ञान/कौशल, योग्यताओं और अनुभव के अनुरूप परख लेना और कार्य के वातावरण से
संबंधित पहलुओं को कर्मचारी की प्रवीणता या प्रवृत्ति से जोड़कर देख लेना उपयोगी
होता है|
·
कर्मचारी को कार्य के अनुरूप गुण, अपेक्षित
व्यवहार या आचरण तथा सामाजिक ज्ञान विकसित करने के लिए प्रवृत्त करना ताकि वह
संगठन के लक्ष्यों की दिशा में सक्रिय भूमिका निभा पाए|
·
कर्मचारी के कार्य को यथा-संभव पुनः-डिजाइन
करना|
·
कर्मचारी के लिए नियोक्ता द्वारा ऐसे कार्यक्रम
आयोजित करना जिनसे वह कार्यस्थल के साथ-साथ अपने निजी जीवन में भी तनाव का सामना
करने में सक्षम बन सके और तनाव के कारण समस्या उत्पन्न हो तो उसका निदान ढूंढ कर
आवश्यकतानुसार परामर्श/काउंसिलिंग या ईलाज करवाया जा सके| यदि अधिक तनाव-प्रवृत्त
कार्य सौंपा गया हो तो समय-समय पर उसके स्वास्थ्य की जाँच करवाना चाहिए ताकि समय
रहते समस्या की जड़ पकड़ी जा सके|
·
तनाव से बचाव के बारे में जानना और उपाय करना|
·
स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रम/प्रशिक्षण के
माध्यम से कर्मचारी के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के प्रयास करना
स्मरण रहे कि इन सब प्रयासों की सफलता इस पर
निर्भर करती है कि कर्मचारी स्वयं अपनी कितनी सहायता करने को उत्सुक है| उल्लेखनीय
है कि उसके व्यवहार की निजता का सम्मान अवश्य किया जाना चाहिए और काम पर उसका
नकारात्मक प्रभाव न हो|
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