मांग रही कुर्बानी फिर से
कण-कण से आ रही पुकार है
चरणों में शीश चढ़ाने को
कब से हम तैयार हैं
लगे हाथ से हाथ मिलाकर
तुम भी अब कदम बढ़ाओ
मांग रही कुर्बानी माता
शीश की अब भेंट चढ़ाओ
लगी जेहन में एक आग अग्न सी
पगड़ी सर पे बांध कफ़न की
मर के भी जीने को तैयार हैं
मांग रही कुर्बानी माता
कण-कण से आ रही पुकार है
दम भी तूझमें कूट भरी है
ये अमृत की दो घूंट भरी है
जब जब जिसनें कदम बढ़ाया
अमर हो,वह जन्नत पाया
दर खोल दिया है मंजिल का मैंने
है तूझमें भी,पर आया हूँ देने
अंधकूप की नगरी में डूब रहा संसार है
मांग रही कुर्बानी माता
कण-कण से आ रही पुकार है
हम तो हैं सपूत भारत का
हमारा तो एक फर्ज बनेगा
आयोजन करें एक शाम आरती का
तभी अँधेरा ये दूर हटेगा
-सीताराम पंडित