ऊँची इमारतों से मकान मेरा घिर गया,
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए।
गिन गिन के सिक्के हाथ मेरा खुरदरा हुआ
जाती रही वो स्पर्श की नरमी,बुरा हुआ।
कौन सा शेर सुनाऊँ मैं तुम्हे, सोचता हूँ,
नया उलझा है बहुत, और पुराना मुश्किल।
सब का ख़ुशी से फासला एक कदम है,
हर घर में बस एक ही कमरा कम है।
अपनी वज्हे-बर्बादी सुनिए तो मजे की है,
ज़िन्दगी से यूँ खेले जैसे दूसरे की है।
आज के दौर में जीने का करीना समझो, कम से कम उसको देख लेते थे, रात सर पे है, और सफर बाकी, उन चिरागों में तेल ही कम था,
जो मिले प्यार से उन लबों को जीना समझो।
अबके सैलाब में वो पुल भी बह गया।
हमको चलना ज़रा सवेरे था।
क्यों गिले फिर हमें हवा से रहे।