shabd-logo

लहरों का गीत

16 फरवरी 2016

775 बार देखा गया 775
featured image

अपने ही सुख से चिर चंचल

हम खिल खिल पडती हैं प्रतिपल,

जीवन के फेनिल मोती को

ले ले चल करतल में टलमल!


छू छू मृदु मलयानिल रह रह

करता प्राणों को पुलकाकुल;

जीवन की लतिका में लहलह

विकसा इच्छा के नव नव दल!


सुन मधुर मरुत मुरली की ध्वनि

गृह-पुलिन नांध, सुख से विह्वल,

हम हुलस नृत्य करतीं हिल हिल

खस खस पडता उर से अंचल!


चिर जन्म-मरण को हँस हँस कर

हम आलिंगन करती पल पल,

फिर फिर असीम से उठ उठ कर

फिर फिर उसमें हो हो ओझल!

-सुमित्रानंदन पंत

10
रचनाएँ
sumitranandanpant
0.0
इस आयाम के अंतर्गत आप कविवर सुमित्रानन्दन पंत की कुछ कविताएँ पढ़ सकते हैं I
1

लहरों का गीत

16 फरवरी 2016
0
0
0

अपने ही सुख से चिर चंचलहम खिल खिल पडती हैं प्रतिपल,जीवन के फेनिल मोती कोले ले चल करतल में टलमल!छू छू मृदु मलयानिल रह रहकरता प्राणों को पुलकाकुल;जीवन की लतिका में लहलहविकसा इच्छा के नव नव दल!सुन मधुर मरुत मुरली की ध्वनि गृह-पुलिन नांध, सुख से विह्वल,हम हुलस नृत्य करतीं हिल हिलखस खस पडता उर से अंचल!चि

2

मछुए का गीत

16 फरवरी 2016
0
0
0

प्रेम की बंसी लगी न प्राण! तू इस जीवन के पट भीतर कौन छिपी मोहित निज छवि पर? चंचल री नव यौवन के पर, प्रखर प्रेम के बाण! प्रेम की बंसी लगी न प्राण! गेह लाड की लहरों का चल, तज फेनिल ममता का अंचल, अरी डूब उतरा मत प्रतिपल, वृथा रूप का मान! प्रेम की बंसी लगी न प्राण! आए नव घन विविध वेश धर, सुन री बहुमु

3

अनुभूति

16 फरवरी 2016
0
0
0

तुम आती हो,नव अंगों काशाश्वत मधु-विभव लुटाती हो।बजते नि:स्वर नूपुर छम-छम,सांसों में थमता स्पंदन-क्रम,तुम आती हो,अंतस्थल मेंशोभा ज्वाला लिपटाती हो।अपलक रह जाते मनोनयनकह पाते मर्म-कथा न वचन,तुम आती हो,तंद्रिल मन मेंस्वप्नों के मुकुल खिलाती हो।अभिमान अश्रु बनता झर-झर,अवसाद मुखर रस का निर्झर,तुम आती हो,

4

बरसो ज्योतिर्मय जीवन!

16 फरवरी 2016
0
0
0

जग के उर्वर-आँगन मेंबरसो ज्योतिर्मय जीवन!बरसो लघु-लघु तृण, तरु परहे चिर-अव्यय, चिर-नूतन!बरसो कुसुमों में मधु बन,प्राणों में अमर प्रणय-धन;स्मिति-स्वप्न अधर-पलकों में,उर-अंगों में सुख-यौवन!छू-छू जग के मृत रज-कणकर दो तृण-तरु में चेतन,मृन्मरण बाँध दो जग का,दे प्राणों का आलिंगन!बरसो सुख बन, सुखमा बन,बरसो

5

गंगा

16 फरवरी 2016
0
0
0

अब आधा जल निश्चल, पीला,-- आधा जल चंचल औ’, नीला--गीले तन पर मृदु संध्यातप सिमटा रेशम पट सा ढीला। ऐसे सोने के साँझ प्रात, ऐसे चाँदी के दिवस रात, ले जाती बहा कहाँ गंगा जीवन के युग क्षण,-- किसे ज्ञात! विश्रुत हिम पर्वत से निर्गत, किरणोज्वल चल कल ऊर्मि निरत, यमुना, गोमती आदी से मिल होती यह सागर में प

6

यह धरती कितना देती है!

18 फरवरी 2016
0
0
0

मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे, सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे, रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा! पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा, बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!- सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये! मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक बाल-कल्पना के अ

7

नभ की है उस नीली चुप्पी पर

18 फरवरी 2016
0
0
0

नभ की है उस नीली चुप्पी पर घंटा है एक टंगा सुन्दर, जो घडी घडी मन के भीतर कुछ कहता रहता बज बज कर। परियों के बच्चों से प्रियतर, फैला कोमल ध्वनियों के पर कानों के भीतर उतर उतर घोंसला बनाते उसके स्वर। भरते वे मन में मधुर रोर "जागो रे जागो, काम चोर! डूबे प्रकाश में दिशा छोर अब हुआ भोर, अब हुआ भोर!" "आई स

8

याद

18 फरवरी 2016
0
0
0

बिदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर,मेरे एकाकी आँगन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर!वह केसरी दुकूल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर,नव असाढ़ के मेघों से घिर रहा बराबर अंबर! मैं बरामदे में लेटा, शैय्या पर, पीड़ित अवयव, मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव! सक्रिय यह सकरुण विषाद,--मेघों से उमड़ उमड़ कर भा

9

मैं विजयी प्रिय, तेरी जय में

18 फरवरी 2016
0
0
0

मैं चिर श्रद्धा लेकर आई वह साध बनी प्रिय परिचय में, मैं भक्ति हृदय में भर लाई, वह प्रीति बनी उर परिणय में। जिज्ञासा से था आकुल मन वह मिटी, हुई कब तन्मय मैं, विश्वास माँगती थी प्रतिक्षण आधार पा गई निश्चय मैं ! प्राणों की तृष्णा हुई लीन स्वप्नों के गोपन संचय में संशय भय मोह विषाद हीन लज्जा करुणा में

10

तितली

18 फरवरी 2016
0
0
0

नीली, पीली औ’ चटकीलीपंखों की प्रिय पँखड़ियाँ खोल,प्रिय तितली! फूल-सी ही फूलीतुम किस सुख में हो रही डोल?चाँदी-सा फैला है प्रकाश,चंचल अंचल-सा मलयानिल,है दमक रही दोपहरी मेंगिरि-घाटी सौ रंगों में खिल!तुम मधु की कुसुमित अप्सरि-सीउड़-उड़ फूलों को बरसाती,शत इन्द्र चाप रच-रच प्रतिपलकिस मधुर गीति-लय में जाती

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए