टीवी, सोशल मीडिया, न्यूज वेबसाइटों, अखबारों के बीच जीने वाली इस सतर्क, जागरूक दुनिया से इतर मुझे तीन दिन से उस दुनिया का ख्याल आ रहा है, जहां पिछले दिनों, सप्ताह या कुछ महीनों पहले ही बिजली पहुंची है। जी हां, बिजली। एक ऐसी सरफरोशी तमन्ना जो आजादी के बाद से पूरी होते-होते छूटती गई, और भारत के लगभग 18,452 गांव बिना बिजली वाले आंकड़े का दर्जा पा गए। यह आंकड़ा मोदी सरकार में उस वक्त मीडिया की सुर्खियां बना, जब 69वें स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में इन गांवों को एक हजार दिन के भीतर बिजली उपलब्ध कराने की घोषणा की।
ट्विटर, टिंडर और खेती के अत्याधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल करने वाले आज के भारत में गांव-गांव बिजली पहुंचने पर ग्लोबल कॉन्ग्रैचुलेशन जताने का तो मतलब नहीं बनता, लेकिन हां यह उपलब्धि बयां करना उस वक्त जरूरी हो जाता है, जब ‘अफजल हम शर्मिंदा हैं’, कहा जा रहा हो, ‘भारत पर शर्म करने’ जैसे नारे लगाए जा रहे हों। दिसंबर 2015 में मोदी सरकार के दावे के मुताबिक, करीब 100 दिनों में 3,000 से अधिक गांवों में बिजली पहुंचाई गई, जबकि इस अवधि के भीतर लक्ष्य 1,900 गांवों का ही रखा गया था। इसके बाद के दावे में आंकड़ों के साथ बताया गया कि घोषणा के बाद यानी 6 महीने में मोदी सरकार ने 5000 गांवों को रोशन किया। अब तीन दिन पहले का अपडेट है कि सप्ताह भर के भीतर मोदी सरकार ने 253 गांवों को बिजली की सौगात दे दी। (वेबसाइट पर जाकर विस्तार से समझें)
कल्पनाभर करते ही मन कांप जाता है कि बिना बिजली के जिंदगी जितनी सरल होती होगी, उतनी ही कठिन भी होती होगी। कौन देशभक्त है, कौन देशद्रोही, कहां जेएनयू है, कहां बीएचयू, कहां दादरी हुआ, कहां मालदा, कौन सही, कौन गलत? बिना बिजली के गांव में रहने वाले लोग क्या और कितना जान पाते होंगे ऐसे सवालों के बारे में। मुट्ठीभर लोग जान भी लेते होंगे यह सब कुछ सप्ताह या महीने भर बाद तो कैसा स्टैंड लेने के बारे में सोचते होंगे? मुझे नहीं पता कि उनमें से कितने लोग चाय की दुकान पर जेएनयू को सही, गलत ठहराने, बीजेपी को देशभक्त मानने, मनवाने की पहल करते होंगे। वे तो खुश होते होंगे कि अब बिजली आ गई है, केरोसीन अगले रविवार या उसके भी अगले रविवार को ले आएंगे, तीन सीएफएल या सरकारी एलईडी का जुगाड़ आज कर लेते हैं, बच्चे अब बिना किसी परेशानी के पढ़ेंगे, डिब्बी (केरोसीन और रुई बत्ती से जलने वाला दीपक) जलाकर अब आंखें नहीं फोड़नी पडे़ंगी। खाना भी शाम होने से पहले बनाने की जल्दी नहीं रहेगी, बिजली आ ही गई है, अब सब कितना अच्छा और सुखद सा हो गया है।
मैं मोदी सरकार को धन्यवाद या पुष्पगुच्छ तो भेंट नहीं करूंगा इसके लिए, क्योंकि सरकार का काम ही ‘जो अधूरा है, उसे पूरा करना, जो पूरा है उसे और प्रगति देना’ है, लेकिन मैं मोदी सरकार और इस देश पर शर्मिंदा नहीं हूं। मुझे खुशी है कि रत्ती-रत्ती करके कुछ हो रहा है। कुछ किया जा रहा है। कहीं न कहीं किया जा रहा है। मैं उन गांव वालों की तरफ से मोदी सरकार और इस भारत देश का शुक्रिया अदा करता हूं। सरकार की जरूरत वोटर्स को होती है और वोटर्स की सरकार को।
जहां अभी हाल में ही बिजली पहुंची होगी, वे लोग हो सकता है, ट्वीट कर, फेसबुक स्टेटस डालकर वहां से सरकारी खामियों, उपलब्धियों पर अपनी बात न रख पा रहे हों लेकिन मैं रत्तीभर का शुक्रिया अपनी ओर से अदा करना चाहूंगा। कन्हैया को जब रिहा किया जाएगा, तब किया जाएगा, उमर खालिद पर जताया जा रहा शक सिर्फ शक रह जाएगा या यकीन बनेगा, यह सब मैं देख, सुन, समझ रहा हूं लेकिन कई उलझे धागों में एक पतला सा, सुलझा सा धागा भी मुझे खूब दिख रहा है। मैं उस धागे के सहारे देश की प्रगित, उन्नति की उम्मीद करता हूं, करता रहूंगा।
वादा न भी किया होता पीएम मोदी ने, तब भी कम से कम शोर मचाने वाले धड़े को ऐसी उपलब्धियों पर नजर रखनी चाहिए। बुनियादी जरूरतें एक तरफ ही होती हैं, चाहे नौकरी हो, सरकार हो या कैसी भी परिस्थितियां हों। अगर लोकतंत्र में ऐसी छिटपुट उपलब्धियां मिलती रहें, तब भी एक उम्मीद जगी रह जाती है कि देश के भीतर घट रहीं दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं सुलझ जाएंगी और हम विकास की जरूरतों, प्राथमिकताओं को तवज्जो देने लग जाएंगे।
हमारी सरकारें तब, किसे पाकिस्तान भेजना है, कौन असहिष्णु है छोड़कर सही-गलत, इंसानियत-क्रूरता, हित-अहित के फर्क को समझेंगी। जब बुनियादी गड्ढे भरेंगे, तभी हम तमाम तुच्छ मुद्दों से ऊपर उठ पाएंगे। वोटबैंक की राजनीति थी, है, रहेगी लेकिन सफलता की तरह ही विकास का भी कोई शॉर्टकट नहीं होता। अफजल का तो पता नहीं, लेकिन मैं शर्मिंदा नहीं हूं। हां, जो ग़लत है, देश के हित में नहीं है, राष्ट्र के हित में नहीं है, मानवता के हित में नहीं है, उसके लिए मैं जरूर शर्मिंदा हूं। आप भी होइए, दूसरों को भी शर्मिंदा होने को बोलिए।