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रोटी अचार

17 फरवरी 2015

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आज फिर मन बेबस और लाचार है कि किताबों के ओट में छिपा हुआ बेरोजगार है तेरी मगजमारी का नुकसान है यह कि न तू बिकने को तैयार है और न तेरा कोई खरीदार है तू कहाँ है तुझे नहीं मालूम कि नदी के इस पार है या उस पार है दूसरों से बाद में निबटना अब अपनों से ही तू दो चार है पता नहीं तू चाहता क्या है और कौन तेरा तलबगार है समय के रेत का भरोसा किया तूने वो अब तेरे हाथ से फिसल जाने को बेकरार है किताबों के ढ़ेर में अब तू खोजता रह कि कहाँ रोटी है कहाँ अचार है
अमित द्विवेदी

अमित द्विवेदी

बढ़िया मनीष जी ... अच्छा लिखते है आप...

18 फरवरी 2015

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