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नवगीत // बंद बैग में

23 अप्रैल 2016

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।। बंद बैग में ।।
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घर से दफ़्तर,
दफ़्तर से घर,
पल-पल बँटती रही ज़िन्दग़ी।


जल्दी-जल्दी हाथ चलाती 
साथ घड़ी के मैं चलती हूँ।
केवल सीमित होंठ दबाकर 
कहने भर को मैं हँसती हूँ।

बस, रिक्शा,
लोकल ट्रेनों में,
पग-पग तपती रही ज़िन्दग़ी ।


कागज़-पत्तर के ढेरों में  
मैं थककर सपने बुनती हूँ ।
कानों की खिड़कियाँ भेड़कर 
साहिब की झिड़की सुनती हूँ।

बंद बैग में
सपने रखकर,
दिन भर खटती रही ज़िन्दग़ी ।


ज़िम्मेदारी घर-बाहर की
भूल चुकी हूँ अपना होना।
कटे पेड़-सी गिर पड़ती हूँ
तकियों बीच हुसक कर रोना।

रही सदा
सबकी होकर पर 
ख़ुद से हटती रही ज़िंदगी ।।
          डॉ.भावना तिवारी 

विशंभर नाथ त्रिपाठी

विशंभर नाथ त्रिपाठी

खुद ही खरीदी गयी टूटन का बेहतरीन विश्लेषण करती रचना

10 जून 2017

गौरी कान्त शुक्ल

गौरी कान्त शुक्ल

अति सुंदर व यथार्थ

25 अप्रैल 2016

रवि कुमार

रवि कुमार

बहुत ही उम्दा ... अच्छी लगी कविता

25 अप्रैल 2016

अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया 'अनुराग'

अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया 'अनुराग'

आदरनीय भावना जी अभिनंदनीय रचना बधाई हो

23 अप्रैल 2016

चंद्रेश विमला त्रिपाठी

चंद्रेश विमला त्रिपाठी

भावना जी अति सुन्दर रचना

23 अप्रैल 2016

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बूँद-बूँद गंगाजल

13 जनवरी 2016
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💐☺आप दिल्ली , विश्व पुस्तक मेला में घूम रहे हैं, तो आपको डॉ.भावना तिवारी का काव्य-संग्रह 💐#बूँद-बूँद गंगाजल#उपलब्ध रहेगा यहाँ...👇🏾अंजुमन प्रकाशनहॉल-12A स्टॉल-337 🙏🏼

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हॉल-12A- स्टॉल-337

17 जनवरी 2016
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विश्व पुस्तक मेला ,दिल्ली में जा रही हूँ आज, आप भी आ रहे हैं क्या

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नवगीत // बंद बैग में

23 अप्रैल 2016
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।। बंद बैग में ।।-------------------घर से दफ़्तर,दफ़्तर से घर,पल-पल बँटती रही ज़िन्दग़ी।जल्दी-जल्दी हाथ चलाती साथ घड़ी के मैं चलती हूँ।केवल सीमित होंठ दबाकर कहने भर को मैं हँसती हूँ।बस, रिक्शा,लोकल ट्रेनों में,पग-पग तपती रही ज़िन्दग़ी ।कागज़-पत

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गीत

10 जून 2017
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टँगे-टँगे खूँटी पर आख़िर,कहाँ तलक़ हम सत्य बाँचते । न्यायालय की चौखट सच से दूर बड़ी थी। कानूनों की सूची धन के पास खड़ी थी। सगे-सगे वादी थेलचकर, मुंसिफ़ कब तक तथ्य जाँचते । आजीवन कठिनाई,दो रोटी का रोना।आदर्शों को रहे फाँकते चाटा नोना।भूखे-पेट पंक्ति से हटकर,कहाँ तलक़ हमपथ्

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कवयित्री विशेषांक हेतु रचनाएँ आमंत्रित

11 जून 2017
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*कवयित्री विशेषांक* के लिए रचनाएँ आमंत्रित------

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गीत अँगड़ाई के दिन

7 मई 2018
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तृषा जगी धरती की प्यासे हैं कूप छज्जों पर नाच रही सोने सी धूप गर्मी के दिन थोड़ी नरमी के दिनआ गए सूर्य की,ढिठाई के दिनठिलियों परबैठ गये आम्रफल रसीले ढेर लगे जामुन के, महकते कलींदेचटपटे अचारों, गुल्कंदों के दिन जलजीरा शर्बतसतुआई के दिन छोड़ कर किताबें हँसी गाँव भागी तारों की गफलिया सुबह तलक जागी भरे मर

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