स्वामी विवेकानंद ने कहा है-
"दुर्बलता का उपचार सदैव उसी का चिंतन करते रहना नहीं, बल्कि अपने भीतर निहित बल का स्मरण करना है। मनुष्य को पापी न बतलाकर वेदांत इसके ठीक विपरीत मार्ग का ग्रहण करता है और कहता है- 'तुम पूर्ण तथा शुद्धस्वरूप हो और जिसे तुम पाप कहते हो, वह तुममें नहीं है।" जिसे तुम पाप कहते थे, वह तुम्हारी आत्माभिव्यक्ति का निम्नतम रूप है; अपनी आत्मा को उच्चतर भाव में प्रकाशित करो। यह एक बात सदैव हम सबको याद रखनी चाहिए और इसे हम सभी कर सकते हैं। कभी "नहीं" मत कहना, कभी मत कहना- "मैं नहीं कर सकता", क्योंकि तुम अनन्त स्वरुप हो। तुम्हारे स्वरुप की तुलना में देश-काल भी कुछ नहीं है। तुम सब कुछ कर सकते हो, तुम सर्वशक्तिमान हो।
'यदि किसी कमरे में शताब्दियों से अन्धकार रहा हो और हम उसमें जाकर चिल्लाने लगें, "हाय, यहाँ अँधेरा है, यहाँ अँधेरा है", तो क्या इससे वह अँधेरा दूर होगा? प्रकाश लाओ और अंधकार तत्काल दूर हो जाएगा। लोगों को सुधरने का भी यही रहस्य है। उन्हें उच्च बातें बताओ। पहले मनुष्य में विश्वास करो। हम इस विश्वास के साथ भला क्यों आरम्भ करें कि मनुष्य पतित व भ्रष्ट है ? मनुष्य में मैंने अपना विश्वास कभी नहीं खोया, चाहे वह कितना ही पतित क्यों न रहा हो। जहाँ कहीं भी मैंने मनुष्य पर विश्वास किया, यद्यपि आरम्भ में उसका फल इतना उत्साहजनक न भी रहा हो, पर अंत में इसी की विजय हुई। कोई मनुष्य चाहे तुम्हें बड़ा विद्वान लगे या परम अज्ञानी, उस पर विश्वास करो। चाहे वह तुम्हें देवदूत प्रतीत हो, या फिर साक्षात् राक्षस, पहले मनुष्य पर विश्वास करो और इसके बावजूद यदि वह ग़लतियां करता है, तो समझ लो कि उसमें त्रुटियां हैं; यदि वह अति अशुद्ध व अति व्यर्थ सिद्धांतों को अपनाए तो जानो कि ऐसा वह अपने वास्तविक स्वरुप के कारण नहीं वरन उच्च आदर्शों के अभाव में करता है। यदि कोई असत्य की ओर बढ़ता है, तो सत्य को पाने में उसकी अक्षमता ही इसका कारण है। अतः सत्य का बोध कराना ही मिथ्या को हटाने का एकमात्र उपाय है। ऐसा करके उसे तुलना करने दो। 'तुम उसे सत्य दे दो और तुम्हारा कार्य हो गया। वह स्वयं ही अपने मन की धारणा के साथ इसकी तुलना करे। यदि तुमने सचमुच ही उसे सत्य दिया है, तो मिथ्या अवश्य जाएगा। प्रकाश से अंधकार का नाश होगा और सत्य भलाई को बाहर ला देगा।"