अगर कोई कहे कि किसान सालाना करोड़
रुपए कमा सकते हैं, तो सुनने वाला उसे पागल समझ सकता है. मगर महाराष्ट्र का जलगांव भारत में केलों
की राजधानी है और यहां के कई किसान हैं करोड़पति. 62 साल के टेनू डोंगार
बोरोले और 64 साल के लक्ष्मण ओंकार चौधरी ऐसे ही किसान हैं. एक पहले चौराहे पर चाय बेचते
थे और गांव वाले उन्हें टेनया बुलाते थे. अब वे टेनु सेठ बन गए हैं. तो लक्ष्मण
शिक्षक थे. सिंचाई की कमी, केलों के पौधे पालने-पोसने की सुविधा और बाज़ार तक इनकी पहुँच ने इनकी किस्मत
बदल दी. चौधरी 1974 से ही केले की खेती कर रहे थे. तब वह परंपरागत केले ही पैदा करते थे, जिनमें 18 महीने में एक बार फल
आते थे. खेती शुरू करते समय उनके पास चार एकड़ ज़मीन थी. आज उनके पास केले के 50 हज़ार से ज़्यादा
पेड़ हैं और ये 40 एकड़ से ज़्यादा रक़बे में फैले हैं. वह साल भर में 12,500 कुंतल केला पैदा करते
हैं. टेनु बोरोले भी कई एकड़ में केले की खेती कर रहे हैं. दोनों किसान ख़ुशकिस्मत
है कि इन्हें सिंचाई में मदद मिल रही है. मदद देने वाली है पानी की बूंद-बूंद का
इस्तेमाल करने वाली प्रमोटर कंपनी. इसकी स्थापना भंवरलाल जैन ने की थी, जिनका निधन बीते 25 फरवरी को 78 साल की उम्र में हो
गया. उनकी सोच फ़ोर्ड मोटर कंपनी के हेनरी फ़ोर्ड से काफ़ी मिलती-जुलती थी कि अगर
वे किसानों को समृद्ध करेंगे तो किसान उनका उत्पाद ख़रीद पाएंगे. सद्भाव के लिहाज़
से गांधी, दूरदृष्टि के मामले में जवाहरलाल नेहरू और सामाजिक सरोकारों के साथ कारोबार के
लिहाज़ से जेआरडी टाटा उनके आदर्श रहे. उन्होंने अपने दफ़्तर में इन तीनों के
स्केच लगा रखे थे. जैन महाराष्ट्र की सिविल सेवा की परीक्षा पास कर चुके थे, पर उन्होंने कारोबार
का रास्ता चुना. उन्होंने सबसे पहले खेती में काम वाले प्लास्टिक पाइप बनाने शुरू
किए. इसके बाद उन्होंने अमरीकी तकनीक बूंद-बूंद पानी के इस्तेमाल से सिंचाई को
अपनाया. 1980 के दशक में जल संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे की उतनी चर्चा नहीं थी.
तब इसका इस्तेमाल पैसा बचाने में होता था. पैसा बचाने की तकनीक से कारोबार तो नहीं
बढ़ सकता. इसलिए उनकी कंपनी ने 1990 के दशक में केले की एक प्रजाति ग्रेनेड नाइने शुरू की जो हर साल फल देती थी.
इसके मुख्य तने में फल के अलावा दो बार और फल आते थे. ऐसा पंरपरागत केले की फ़सल
में नहीं होता था. इसे पेड़ी फ़सल कहते हैं. दूसरी खोज थी टिश्यू कल्चर यानी केलों की प्रजाति का
संवर्धन. एक समान ज़्यादा उपज देने वाले और संक्रमण से मुक्त केलों के तने को
टेस्टट्यूब में तैयार किया जाता और उन्हें नर्सरी तक लाया जाता. बीते साल जैन
इर्रिगेशन ने क़रीब छह करोड़ तनों की आपूर्ति की, वह भी 13 रुपए प्रति
तने के हिसाब से. यह परंपरागत पौधों से चार गुना महँगा है मगर मांग के सामने
सप्लाई कम पड़ रही है. वहीं बूंद-बूंद सिंचाई के ज़रिए बड़े क्षेत्रफल में बेहद
सीमित समय में सिंचाई संभव है. चूंकि केवल जड़ तक पानी पहुँचना होता है, इसलिए बिजली का ख़र्च
भी बचता है. इसके अलावा इन पाइपों का इस्तेमाल घुलनशील उर्वरक की सटीक मात्रा
पहुँचाने के लिए भी होता है. केले की पैदावार गर्म और आर्द्रता वाली जलवायु में
होती है. जलगांव गर्म इलाक़ा है, यहां तापमान 47 डिग्री सेल्सियस तक पहुँचता है, लेकिन आर्द्रता 20
फ़ीसदी तक पहुँच जाती है जबकि केलों के लिए इसका 60 प्रतिशत से ज़्यादा होना
चाहिए. कंपनी के कल्याण सिंह पाटिल जैसे वैज्ञानिकों ने केले के बग़ीचे के अंदर
सूक्ष्म स्तर पर जलवायु प्रबंधन का रास्ता निकाला. केले को पास-पास लगाने पर ज़मीन
की सतह सूख नहीं पाती. बग़ीचे केलों के पत्तों से ढँक जाते हैं और यह एयर कूलर की तरह
काम करने लगता है.
बग़ीचे के किनारों में गजराज घास
का इस्तेमाल होता है जो हवा रोकती है. इन सबसे जलगांव में केले का उत्पादन काफ़ी
बढ़ गया. कंपनी की ओर से सीमित
वापसी का प्रावधान भी रखा गया. ज़्यादा उत्पादन पर किसानों को कम क़ीमत मिलने की
आशंका थी लेकिन जलगांव हाईवे पर है और रेलमार्ग से जुड़ा है. इससे उत्तर भारत का
बाज़ार भी किसानों के लिए उपलब्ध है. साल 2012-13 में 40.10 लाख टन केला उगाने के साथ महाराष्ट्र, गुजरात के बाद दूसरे
पायदान पर रहा. महाराष्ट्र के कुल उत्पादन का 71 फ़ीसदी हिस्सा जलगांव से आता है. अगर
जलगांव राज्य होता तो यह केला उत्पादन में भारत का पांचवां राज्य होता. तमिलनाडु
और अविभाजित आंध्र प्रदेश के बाद पर कर्नाटक से पहले. किसानों के लिए असल चुनौती
पैदावार की है, लेकिन अगर उनकी आमदनी बढ़ती है, तो उनका उत्पादन भी बढ़ता है और उन्हें ज़्यादा हिस्सा मिलता है. इन सबके लिए
उन्हें जो केले के तने को तैयार करने की तकनीक, कृषि और अर्थव्यवस्था
से जुड़ी सटीक सलाह और बाज़ार तक पहुँच चाहिए. सरकार उनकी कोशिशों में बिजली, सिंचाई, बेहतर सड़क, कोल्ड स्टोरेज और
बैंकों की वित्तीय मदद जैसे उपायों से मदद कर सकती है. केवल अनुदान देने से उनकी
मदद नहीं होगी. (साभार : विवियन फर्नांडीज़, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम)