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कर्तव्य से अधिकार !

15 मई 2016

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       आन्दोलन का अर्थ होता है अधिकारों की लडाई । माने की अपने  हक़ को पाने  की लड़ाई । परिवर्तनशील होना किसी लोकतान्त्रिक राष्ट्र की प्रकृति है और किसी भी परिवर्तनशील राष्ट्र में हुए बड़े से बड़े परिवर्तनों में आंदोलनों की भूमिका अहम होती है जन-जन का हक़ और स्वतंत्रता ही लोकतंत्र की वैचारिक मजबूती है, जो उस राष्ट्र के लोगों को बिना किसी भय-मोह के एक सूत्र में पिरोये रखने का कार्य करती है। किन्तु अपने खुद के कर्तव्यों को ताख पे रखकर अधिकारों  के लिए आन्दोलन को नित नये रूप में परिभाषित करना आखिर कितना उचित है 
         एक पिता का कर्तव्य है कि अपने बच्चों को बेहतर जीवन, शिक्षा-दिक्षा और भविष्य  प्रदान करे, पिता के यही कर्तव्य उन बच्चों के अधिकार बनते है । अर्थात कर्तव्य से अधिकार होता न कि अधिकार से कर्तव्य अधिकारों की मांग करते हुए आन्दोलनकारी लोकतंत्र की मर्यादाओं को भूल जाते हैं। भूल जातें हैं जिस तरह हम अपने अधिकारों के प्रति राष्ट्र की जिम्मेदारी मानते हैं, हम मानते हैं हमें हमारा हक देना प्रशासन का कर्तव्य है ठीक उसी तरह हमारे अपने भी कुछ कर्तव्य बनते हैं जो किसी न किसी व्यक्ति के अधिकारों के प्रति हमें उत्तरदायी बनाते है
          आन्दोलन के नाम पर सार्वजनिक सम्पत्तियों को खुले आम आग लिया जाता है । कभी विश्वविद्यालय की सार्वजनिक सम्पत्तियों, सरकारी बसों, कार्यलयों को छात्र अपने हक़ की मांग के नाम पर नुकसान पहुचाते हैं तो कभी समुदाय विशेष आरक्षण के लिए रेलगाड़ियों को आग के हवाले कर देतें है । कभी निर्दोष लोगों की परेशानियों की परवाह किये बिना घंटों तक सडक,रेल यातायात को रोक रक्खा जाता । आन्दोलन के नाप पर अपनी बात  मनवाने के लिए जिस तरह से सार्वजनिक सम्पत्तियोँ और हितो को नुकसान पहुचाया है वो अधिकार की लड़ाई कतई नहीँ हो सकती । अरे भई प्रत्येक अधिकार के लिए उसके अनुरूप एक कर्तव्य भी होता है ।
        गाँधी जी ने मानव अधिकारोँ के सन्दर्भ मे कहा है " अधिकार का श्रोत कर्तव्य है । यदि हम सब अपने कर्तव्योँ का पालन करेँ तो अधिकारोँ को खोजने हमेँ दूर नही जाना पड़ेगा । यदि अपने कर्तव्योँ को पूरा करे बगैर हम अधिकारोँ के पुछे भागेँगे तो वह छलावे की तरह हमसे दूर रहेँगे, जितना हम उनका पीछा करेँगे वह उतनी ही दूर उडते जाएंगे । मैने अपनी निरक्षर किन्तु बुद्धिमान मां से सीखा कि जिन अधिकारे के हम पात्र होना चाहते हैँ तथा जिन्हेँ हम सुरक्षित कराना चाहते हैँ , वे सभी अच्छी तरह निभाए गए कर्तव्य से प्राप्त होते है । अत: जिवित रहने का अधिकार भी हमेँ तभी प्राप्त होता है जब हम विश्व की नागरिकता के कर्तव्य को पूरा करते हैँ। प्रत्येक अन्य अधिकार को अनुचित रीति से स्थापित अधिकार सिद्ध किया जा सकता है और उसके बारे मेँ विवाद करने का कोई लाभ नहीँ है ।"    (हमारा संविधान- सुभाष कश्यप पृष्ठ संख्या 133)
        गाँधी जी को भय था की हिंसा और युद्ध के जरिये यदि हम आज़ादी पा भी जायेंगे तो हमारा समाज हर हक़ लिए हिंसा और युद्ध का रास्ता ही अपनाएगा इसीलिए उन्होंने अहिंसा का मार्ग चुना 
। गांधियन स्वतंत्रता संग्राम महज एक संघर्ष नही था यह पूरी दुनिया के लिए सीख थी कि अधिकार पाने का एक बेहतर मार्ग यह भी है 

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धन्यवाद आपका

24 सितम्बर 2016

गौरी कान्त शुक्ल

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अति सुन्दर लेख

16 मई 2016

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रचनाएँ
shabdbhedi
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अदना सा कवि, तुच्छ लेखक, निराधार विचारक और एक साधारण किन्तु खुद्दार व्यक्तित्व का मालिक हूँ ।अपने बारे में सिर्फ इतना कहूँगा कि खाइयों में गहराईयाँ, नदियों में धारायेँ, सागर में लहरेँ और आसमान में बादल सीमित हो सकते हैँ लेकिन...लेकिन मैँ कभी नहीँ क्यूँकी मै सख्स हूँ खुले आसमान सा बेशक असीमित !
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'मतभेद होना चाहिए मनभेद नही'

15 मई 2016
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           मेरा एक अन्तरंग मित्र और मैं अक्सर इस बात पे घंटों बहस करते हैं कि हमारी सोच बिलकुल भिन्न है फिर भी हम इतने दिनों से साथ कैसे है ?? घंटों की बहस के बाद हर बार निष्कर्ष निकलता है 'मतभेद होना चाहिए मनभेद नही'। सच है अक्सर ऐसा होता हैं कि वैचारिक मतभेद होने पर लोग मनभेद स्वतः पैदा कर व्यक्ति

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कर्तव्य से अधिकार !

15 मई 2016
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       आन्दोलन का अर्थ होता है अधिकारों की लडाई । माने की अपने  हक़ को पाने  की लड़ाई । परिवर्तनशील होना किसी लोकतान्त्रिक राष्ट्र की प्रकृति है और किसी भी परिवर्तनशील राष्ट्र में हुए बड़े से बड़े परिवर्तनों में आंदोलनों की भूमिका अहम होती है। जन-जन का हक़ और स्वतंत्रता ही लोकतंत्र की वैचारिक मजबूती है,

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