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श्वेत-श्याम सपनाें की अनकही यात्राएं

18 मई 2016

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भारत में हर माैसम अपनी रवानी में उतरता है अाैर कुछ उलाहने, कुछ प्रेम, कुछ पहेलियां बुझाते हुए निकल जाता है। इसीलिए हम भारतीय हर माैसम का बेइंतहा इंतजार करते हैं। गर्मियां भले ही ऊब-डूब करती सांसें अाैर पहलु बदलने का माैसम है, लेकिन अपनी रवायत अाैर रसीले अामाें की अामद की वजह से सभी काे इसका इंतजार रहता है। फिर इस माैसम में यात्राअाें में लगेज का ज्यादा बाेझ नहीं हाेता, छुट्टियां लगभग महीने भर की हाे जाती हैं स्कूल-कॉलेजाें में, ताे यात्राअाें का सबब बना लेते हैं लाेग। मैंने सन् १९८९ से २०११ तक साल में तकरीबन दाे बार (गर्मी अाैर जाड़ा) लगातार परिवार के साथ यात्राएं की हैं अाैर उन्हीं यात्राअाें ने मुझे एक पुख्ता साेच दी है कि जीवन का रस ताे सिर्फ यात्राअाें में ही है। अाप यात्रा में हाेते हैं ताे विभिन्न संस्कृतियाें के संगम से गुजरते हैं। खान-पान की विविधता भारत के वैविध्य से हाेते हुए एक एेसे संसार में ले जाती है, जहां पूरा देश ही एक कुनबे के समान लगता है। विचाराें अाैर सराेकाराें के साथ। इस बार पहली बार मैं गर्मियाें में यात्रा नहीं कर पाया। यत्र-तत्र कहीं जाना हुअा भी ताे उसे छुट्टियाें की यात्रा नहीं कह सकता। इस बार विशेष जिम्मेवारियाें का बाेझ रहा। बेटी ने क्राइस्ट युनिवर्सिटी का टेस्ट क्लियर किया, ताे उसके दाखिले के लिए बंगलुरू जाना हुअा। वहां पहुंचकर दाखिले की ही अापाधापी रही। समय तेजी से बीत गया अाैर वापसी का घंटा बज गया। चार दिन ट्रेन में दाे दिन बंगलुरू में। फिर हाे गयी घर वापसी।

लेकिन पुरानी यात्राएं अब भी कचाेटती हैं। हम मई में पुरी, दीघा या कहीं भी निकल जाते थे। एेसा कुछ भी नहीं कि हिल स्टेशन ही जाना है। एक दाे बार दार्जीलिंग जा चुका हूं। सुबह चार बजे जगकर टाइगर हिल जाने की तैयारी में जैसे ही दरवाजा खाेला बादल का एक टुकड़ा कमरे में घुस अाया अाैर अठखेलियां करता हुअा दूसरे रास्ते से निकल गया। जून में ११ डिग्री टेंपरेचर, दिन में सड़क पर टहलते हुए जिसे भी देखा, हाथ में छाता पकड़े हुए था। वहां कभी भी बारिश हाे जाती है। यह सब देखना अद्भुत था, क्याेंकि मैदानाें में उमस के बीच अपना चैन हाेम करते हुए एेसे माैसम की कल्पना भी नहीं की जा सकती। 

गर्मियाें की यात्राएं भारी जेब मांगती हैं, क्याेंकि सुख-सुविधा-अाराम चाहिए, ताे जेब ढीली करनी ही हाेगी। एक तरह से यह माैसम के मिजाज के विपरीत जाते हुए पैसे से सुख खरीदने जैसा है। हमारे देश के कराेड़ाें लाेग गर्मियाें में यह सुख खरीदते हैं, बाकी के कराेड़ाें लाेग मन मसाेस कर रह जाते हैं। यात्रा के सुख तक जिनकी पहुंच है, उनके सपने रंग-बिरंगी हाेंगे ही। लेकिन जिनकी पहुंच नहीं है, उनके श्वेत-श्याम सपनाें में रंग भरना अभी बाकी है। अगली किसी यात्रा में मैं एेसे ही किसी श्वेत-श्याम सपनाें में रंग भरने की दास्तानें देखना चाहता हूं।

घनश्याम श्रीवास्तव

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