मनुष्यता के सजग प्रहरी : रवींद्रनाथ ठाकुर
अरे भाई, मिट्टी की ओर लौट,
वह मिट्टी, जो आँचल
फैलाकर
तेरे मुँह की ओर
देख रही है,
जिसके वक्षस्थल को
फोड़कर
यह प्राणधारा उच्छ्वसित
हो रही है,
जिसकी हँसी से फूल खिले
हैं,
जो संगीत की हर तान
पर
पुकार उठती है.
वह देखो,
इस छोर से उस छोर
तक
इस दिगंत से उस
दिगंत तक
उसकी गोद फैली हुई
है.
जन्म और मरण
उसी के हाथ के
अलक्ष्य सूत्रों में
गुँथे हैं.
उसी के हृदय की
विगलित वारि-धारा
आत्मविस्मृत हो
समुद्र की ओर
छूटती है
और
वहाँ से प्राणों का
संदेश
वहन कर लाती है.
हाँ भाई,
इस मिट्टी की ओर ही
लौट आ!
(रवींद्रनाथ ठाकुर)
मिट्टी की ओर लौटने के लिए आह्वान करने
वाले कवि रवींद्रनाथ ठाकुर का जन्म 7 मई, 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको
ठाकुरबाड़ी में हुआ. रवींद्रनाथ ठाकुर का नाम लेते ही भारत के राष्ट्रगान ‘जन गण
मन’ और बाँग्लादेश के राष्ट्रगान ‘आमार सोनार बाँग्ला’ के साथ साथ ‘गीतांजलि’ तथा
‘चोखेर बाली’ की याद आना स्वाभाविक है. वे संपूर्णतः कवि थे. कहा जाता है कि उन्होंने
अपनी पहली कविता आठ वर्ष की उम्र में लिखी थी. हर विधा में वे प्रवीण थे – चाहे
संगीत हो या साहित्य, दर्शन हो या कला, समाज-चिंतन हो या शिक्षा. उनका समग्र लेखन
प्रधान रूप से बांग्ला में उपलब्ध है लेकिन उनका समूचा साहित्य अन्य भाषाओं में भी
अनुवाद के माध्यम से व्याप्त है.
रवींद्रनाथ ठाकुर ने हर विधा में अपनी
लेखनी चलाई. कविता, उपन्यास, लघुकथा, गीतिनाट्य, नाटक, जीवनी साहित्य,
यात्रावृत्त, पत्र साहित्य, चित्रकला आदि क्षेत्रों में उन्होंने सराहनीय कार्य
किया. बौ-ठाकुराणीर हाट (1883), राजर्षि (1887), चोखेर बाली (1903), नौका डुबि
(1906), प्रजापतिर निर्बन्ध (1908), गोरा (1910), घरे बाइरे (1916), चतुरङ्ग
(1916), योगायोग (1929), शेषेर कबिता (1929), मालञ्च (1934), चार अध्याय (1934)
आदि उनके प्रमुख उपन्यास हैं. छिन्नपत्र यात्रा साहित्य है तो जीबनस्मृति (1912)
और चरित्रपूजा (1907) जीवनी साहित्य. सोनार तरी (1894), चित्रा (1896), चैतालि,
गीतांजलि (1910), बलाका (1916), पूरबी (1925), महुया, कल्पना (1900), क्षणिका (1900),
पुनश्च (1932), पत्रपुट (1936), सेँजुति (1938), भग्न हृदय आदि प्रमुख
काव्यकृतियाँ हैं. कहना न होगा कि रवींद्रनाथ ठाकुर सही अर्थों में लोकहृदय के कवि
थे. उनके चिंतन का केंद्रीय मूल्य मनुष्य की भावनाओं का परिष्कार करना था. वे ऐसे
चित्रकार थे जिनके रंगों में शाश्वत प्रेम की अनुभूति थी. वे ऐसे नाटककार थे जिनके
रंगमंच पर सिर्फ त्रासदी नहीं बल्कि मानव की गहरी जिजीविषा आ उपस्थित होती थी. वे
एक ऐसे कथाकार थे जो अपने इर्दगिर्द के जीवन से कथा चुनते थे, सलीके से बुनते थे
और मनुष्य रूपी चरम लक्ष्य को तलाशते थे.
रवींद्रनाथ ठाकुर के संबंध में हजारी
प्रसाद द्विवेदी का कथन द्रष्टव्य है – “वे उन महापुरुषों में थे, जिनकी वाणी किसी
विशेष देश या संप्रदाय के लिए नहीं होती, बल्कि जो समूची मनुष्यता के उत्कर्ष के
लिए सबको मार्ग बताती हुई दीपक की भाँति जलती रहती है. अपने जीवन काल में उन्होंने
नाना भाव से मनुष्य की संकीर्णता को शिथिल करने के लिए उस पर बार-बार आघात किया
था.” उनका हृदय कवि हृदय है. अतः वे मनुष्य को उसके समस्त बंधनों और वैविध्यों के
साथ अपनाते हैं और प्रेम करते हैं. उनका प्रेम वैश्विक है. उन्होंने अपनी कविताओं
के माध्यम से इनसानियत, अपनापन, प्रेम, अध्यात्म, दर्शन, त्याग आदि भावनाओं को
उकेरा है. वे कभी प्रकृति को अपने अंदर समा लेते हैं तो कभी समाज में व्यापत
विसंगतियों पर कुठाराघात करते हैं. काव्य ही उनके लिए साधन भी है और साध्य भी. इसीलिए
उन्हें ‘विश्वकवि’ कहा जाता है.
रवींद्रनाथ ठाकुर मानवतावाद के प्रबल
पक्षधर है. यह बात उनकी इस उक्ति से पुष्ट होती है – “मनुष्य की सेवा करना, उसका
सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक पाश से मोचन करना, इसी संसार में उसे सब प्रकार से संपन्न
करना मानव का चरम लक्ष्य है. यदि कोई परम देवता कहीं है, तो उसको खेत में काम करते
हुए किसानों, सड़क पर गिट्टी तोड़ते हुए मजदूरों के श्रम-बिंदुओं में ही साक्षात
पाया जा सकता है. शिशुओं के निर्मल हास में, विधवाओं एवं अपाहिजों के करुण क्रंदन
में, अशिक्षितों और गुमराहों के भ्रांत आचरणों में और दलितों, पराजितों और निष्पेषितों
की हाय-हाय में उसका निवास है. मनुष्य की सभी पूजाएँ और तपस्याएँ व्यर्थ हैं. यदि
उनसे दीन-दुखियों के आँसू नहीं पुंछ सके. दलितों और निरन्न लोगों के चेहरों पर
आनंद की हँसी दिखाई न दे जाय.” यही दृष्टि उनके साहित्य में द्रष्टव्य है. ‘गीतांजलि’
में भी वे इसी बात को व्यक्त करते हैं-
“पूजन-भजन साधन-आराधन
रहने
दे तू एक किनारे,
मंदिर
का पट बंद किए क्यों देवालय के द्वार
बैठा
हुआ यहाँ है ओ रे!
करता
है तू किसकी पूजा किसे पूजता लुका अंधेरे
मन
ही मन में इस कोने रे?
नयन
उघार निहार वहाँ पर
देवालय
में देव नहीं रे.
वे
हैं वहाँ, जहाँ पर माटी गोड़
कृषक
खेती करते हैं,
जहाँ
बारहों मास मजूरे
काट
रहे पत्थर, खटते हैं.
धूप
कड़ी हो या वर्षा हो
साथ
सदा उनके रहते हैं.
धूल
और माटी में उनके
हाथ सने दोनों रहते हैं.”
स्मरणीय है कि किसी मजदूरनी की दीन-दशा से प्रभावित होकर कविता लिखने
वाले प्रथम भारतीय कवि थे रवींद्रनाथ ठाकुर. अपने कार्य में तल्लीन एक मजदूरनी की
स्थिति का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया-
“मैं
बरामदे में बैठा देखता हूँ
घंटों से लगी हुई है
वह काम में,
शर्म से झुक जाता है
माथा
कि प्रियजनों को निवेदित इस पवित्र श्रम की.....”
इन पंक्तियों को पढ़ते समय निराला की कविता
‘तोड़ती पत्थर’ का स्मरण हो आता है. निराला ने भी रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता से
प्रेरित होकर ही ‘तोड़ती पत्थर’ का सृजन किया था.
रवींद्रनाथ ठाकुर दीन-दलितों की कवि थे. यदि हजारी प्रसाद द्विवेदी के
शब्दों में कहे तो ‘वे कल्पना-विलासी कवि नहीं थे. मनुष्य की वेदना ने बार-बार उनके
कोमल हृदय पर आघात किया है. वे दीन और दलितों के कंठ की वाणी को सहस्रगुण शक्ति
देकर मुखरित कर सके थे; क्योंकि उनकी वेदना उन्हें व्याकुल कर देती थी. ’ वे यही चाहते थे कि ‘मनुष्य को मनुष्य
की दृष्टि से देखें - बिना कोई भेदभाव के.’ मानवता के प्रहरी रवींद्रनाथ ठाकुर
इसीलिए तो कहते हैं –
“यह दासत्व की शृंखला भीतर
और बाहर की
सदा डरते हुए करता
प्रणति शत-शत पदों की
यह सुचिर अपमान मानव-दर्प
का
हत सब मर्यादा जनित धिक्कार
लज्जाराशि वृहदाकार -
कर दो चूर्ण ठोकर मार.”
यह पहले भी संकेत किया जा चुका है कि रवींद्रनाथ
ठाकुर अद्भुत चित्रकार थे. उनका जन्म ऐसे समय हुआ था जब भारत अंग्रेजों की कूटनीति
के चंगुल में फंसा हुआ था और पूरे देश में नवजागरण की लहर फैल रही थी. देखा जाय तो
वह दौर भारतीय चित्रकला के भी पुनरुत्थान का दौर था. ब्रह्मसमाज से प्राप्त तेवर के
साथ रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने चित्रों को देवी-देवताओं तथा पुराण कथाओं के स्पर्श
से दूर रखा. उन्होंने साहित्य के माध्यम से ही नहीं बल्कि चित्रकला के माध्यम से
भी सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार किया.
रवींद्रनाथ ठाकुर शिशुओं को भी नहीं भूले.
उन्होंने उनके लिए अनेक शिशु गीतों का सृजन किया. उनके सारे बाल साहित्य को वस्तुतः
दो भागों में विभाजित किया जाता है – छेले घुमानो छड़ा (बच्चे को सुलाने के गीत -
लोरी) तथा छेले भुलानो छड़ा (बच्चों को बहलाने के गीत).
रवींद्रनाथ ठाकुर का एक और पहलू है शिक्षा-दर्शन.
बचपन से ही उनके मन में शिक्षा प्रणाली में सुधार लाने की इच्छा बलवती थी. उनके मन
में शिक्षा के ढाँचे की एक निश्चित परिकल्पना थी. इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु
उन्होंने 1901 में शांतिनिकेतन की स्थापना की. वे चाहते थे कि शिक्षा में गुणात्मक
सुधार हो. वे यह मानते थे कि प्रकृति की गोद में बैठकर विद्यार्थी बहुत कुछ सीख
सकता है. साथ ही, उन्होंने हमेशा पूर्वी और पश्चिमी संस्कृतियों के समन्वय की बात
की.
आज यह कहा जा रहा है कि 21वीं सदी
विमर्शों की सदी है. स्त्री, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक विमर्श चरम पर है. लेकिन
ध्यान से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि कवींद्र रवींद्र ने इन्हें नई दृष्टि से देखने की शुरूआत की. स्त्री
सशक्तीकरण की बात कवींद्र भी उठाते हैं. इसीलिए तो वे कहते हैं कि “संसार के
संकीर्ण प्रयोजनों के निकट हमारी स्त्रियाँ कल दबाकर चलाई जाने वाली पुतलियों की
तरह विधिविहित नियमों के अनुसार आवाज देती रही हैं, हिलती-डुलती रही हैं. वे केवल यही
बात जानती हैं कि अज्ञता और अशक्ति ही उनका भूषण है. माता और गृहिणी के विशेष-विशेष
ढाँचे में ही उनका परिचय रहा है. यह बात कभी तो अस्वीकृत हुई और कभी निन्दित हुई
है कि उसके मनुष्यत्व का स्वातंत्र्य-साँचा अतिक्रम करके भी प्रकाशित होता है. इसी
प्रकार स्त्रियाँ मनुष्य-जाति की एक बड़ी भारी क्षति करती आई हैं. आज ऐसा युग आया
है जब स्त्रियों ने मानवत्व के पूर्ण मूल्य का दावा उपस्थित किया है. ‘जननार्थ महाभागा’
कहकर अब उनकी गणना नहीं होगी. संपूर्ण व्यक्ति विशेष के रूप में ही उनकी गिनती
होगी. मानव समाज में इस आत्मश्रद्धा के विस्तार के समान इतनी बड़ी संपत्ति और कुछ
नहीं हो सकती. गिनती में मनुष्य का परिमाण नहीं मिलता, पूर्णता में ही उसका परिमाण
है. हमारे देश में भी कृत्रिम बंधनमुक्त स्त्रियाँ जब अपने पूर्ण मनुष्यत्व की
महिमा प्राप्त करेंगी, तभी पुरुष भी अपनी पूर्णता प्राप्त करेगा.”
मनुष्यत्व के ऐसे प्रहरी रवींद्रनाथ ठाकुर
का निर्वाण 7 अगस्त, 1941 को हुआ. मृत्यु के कुछ दिन पूर्व उन्होंने कहा कि “मैं ऐसा विश्वास
करना अपराध मानता हूँ कि मनुष्यत्व का अंतहीन अंत और प्रतिकारहीन पराभव ही चरम
सत्य है.”
मनुष्यता के सजग प्रहरी कवींद्र रवींद्र
की 155 वीं जन्म वार्षिकी के अवसर पर आजमगढ़ से प्रकाशित साहित्य, कला और संस्कृति
की संवाहिका ‘सप्तपर्णी’ का जुलाई-दिसंबर 2015 का अंक दस्तावेजी महत्व का है. इस
अंक में संगृहीत सभी लेख अपने आप में अमूल्य हैं. हजारी प्रसाद द्विवेदी का लेख
‘मृत्युंजय रवींद्रनाथ’, विवेकी राय का लेख ‘विश्वकवि का अवसादपुर बनाम गाजीपुर’, सियाराम
तिवारी का ‘अद्भुत व्यक्तित्व और अपूर्व कर्तृत्व’, पारसनाथ गोवर्धन का ‘टैगोर का
मानवतावाद’, प्रभा दीक्षित का ‘अल्बर्ट आइंस्टीन और रवींद्रनाथ टैगोर का संवाद’, दिविक
रमेश का ‘टैगोर, उनके गीत : निराशा में आशा के प्रकाश’, बृजेश कुमार का ‘भारतीयता
के संवाहक : रवींद्रनाथ ठाकुर’, अशोक भौमिक का ‘भारतीय चित्रकला : परंपरा और
रवींद्रनाथ ठाकुर’, हरिश्चंद्र मिश्र का ‘बंगला लोक शिशु-साहित्य : रवींद्रनाथ का
विशेष संदर्भ’, अवधेश प्रधान का ‘रवींद्र का जन-गण-मन : सूरज पर कीचड़ मत उछालो’
आदि सामग्री के कारण यह विशेषांक संग्रहणीय बन गया है.