कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय
अब इन राहो पर सफ़र आसान लगता है
जो गुमनाम है कही वही पहचान लगता है||
जिस शहर मे तुम्हारे साथ उम्रे गुज़ारी थी
कुछ दिन से मुझको ये अनजान लगता है||
कपड़ो से दूर से उसकी अमीरी झलकती है
मगर चेहरे से वो भी बड़ा परेशान लगता है||
मुझको देख कर भी तू अनदेखा मत कर
तेरा मुस्करा देना भी अब एहसान लगता है||
मिलते है घर मे हम सब होली दीवाली पर
सगा भाई भी मुझको अब मेहमान लगता है||
जिंदा थी तो कभी माँ का हाल ना पूछा
तस्वीर मे अब चेहरा उसे भगवान लगता है||