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कविता - नई गंगा बहा दूंगा मैं

8 जून 2016

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कर्म साधना का साधक चिर, 

रत सदैव इस जीवन तप में 

मनु दृढ प्रतिज्ञ, अभिलाषी, 

मन विजेता मन का नृप मैं 


भीषण घाव सहन करूं पर

वंचित पथ से क्यों हो जांऊ 

मिथ्या दामन थाम चलूं क्यों 

विमुख सत्य से क्यों हो जांऊ  


पुत्र पराक्रमीं उस मनु का 

किंचित हार ना मान सकता 

ऐसा भी क्या रहस गूढ है 

जिसकों मैं नहीं जान सकता 


सब पौरुष संचित भुजबल में 

सब ज्ञान छिपा है मस्तिक में 

हां अभी मैं पथ पर चला हूं 

पहुंच जाऊंगा ध्येय दिक में  


उम्मीद सदा उन्नत रहती  

सदृश हिमालयीें उच्च श्रृंग 

मम भारी भाव भरा अंतस 

मम कर्म बसा तन अंग अंग 


विगत विकट पराजये सारी 

एक साथ बिसरा दूंगा मैं 

धीर प्रवीर कर्मठ भगिरथ 

नई गंगा बहा दूंगा मैं।               - राम लखारा विपुल


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निशा माथुर

निशा माथुर

विगत विकट पराजये सारी ...एक साथ बिसरा दूंगा मैं ...धीर प्रवीर कर्मठ भगिरथ ...नई गंगा बहा दूंगा मैं। -- वाह बहुत ही उम्दा और सारगर्भित रचना. शब्दों का नायब चित्रण ...बधाई हो !1

25 जून 2016

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कविता- मौन आशीष

7 जून 2016
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(चित्र है एक बगीचे में एक नवविवाहित जोड़ा बैठा हंसकर बाते कर रहा है, उसी बगीचे के दूसरे कोने में एक विधवा बैठी है जो उस युगल को देख रही है। उस नवविवाहित दम्पति को देखकर विधवा के मन में क्या विचार उपजते है इसका काव्यात्मक रूप प्रस्तुत है) कितना सुखद लगता है अहा! प्रियतम का हंसते बोलनादिनभर के किस्से ब

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कविता - नई गंगा बहा दूंगा मैं

8 जून 2016
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कर्म साधना का साधक चिर, रत सदैव इस जीवन तप में मनु दृढ प्रतिज्ञ, अभिलाषी, मन विजेता मन का नृप मैं भीषण घाव सहन करूं परवंचित पथ से क्यों हो जांऊ मिथ्या दामन थाम चलूं क्यों विमुख सत्य से क्यों हो जांऊ  पुत्र पराक्रमीं उस मनु का किंचित हार ना मान सकता ऐसा भी क्या रहस गूढ है जिसकों मैं नहीं जान सकता सब

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”हिन्दी में अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रचलन हिन्दी के लिए आशीर्वाद है या अभिशाप!“

9 जून 2016
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संस्कृत की कोख में पली बढ़ी बड़ी बेटी का नाम है हिन्दी। हिन्दी अपने आप में भाषा नहीं है वरन् यह कई सदियों के परिष्कृत शब्दकोश का भंडार है। हिन्दी जिस रूप में आज है वैसी अपनी शिशु अवस्था में नहीं थी। और उस समय हिन्दी इतने वृहद् समुदाय द्वारा एकरूप में बोली नहीं जाती थी जितनी कि आज बोली जाती है। भाषा का

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विज्ञापन विज्ञान - व्यंग्य ‬

10 जून 2016
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यह विज्ञापनों का देश था।कुछ विज्ञापन देकर कमाते थे, कुछ लेकर।गली, मोहल्ले, बाजार, स्कूल, पेड़, पौधे, सार्वजनिक सुविधा घर यहां तक कि दूसरों की फेसबुक दीवार और रोटी पर तक लोग विज्ञापन लगाने से नहीं चूकते थे। जो लोग विज्ञापन नहीं लगवाना चाहते थे वे भी अपनी दीवारों पर विज्ञापन देकर लिखते थे कि यहां विज्ञ

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दहेज़ से महंगी बेटी (कहानी) - राम लखारा 'विपुल'

13 जून 2016
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बड़ी धूूमधाम से दीपिका की शादी हुई थी। इतने मेहमान आए थे कि पूरे समाज में इस शादी की मिसाल दी जाने लगी थी। पिताजी बड़े अफसर थे, सो जो भी मेहमान आए महंगे गिफ्ट लेकर आए थे दीपिका के लिए।लेकिन दीपिका की शादी होने के बाद से ही उसका पति दहेज के लिए ताने देता रहता था। दीपिका के पिता ने शादी में सब कुछ दिया

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लौहपथगामिनी! लौहपथगामिनी! लौहपथगामिनी! - राम लखारा 'विपुल'

14 जून 2016
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मारवाड़ जंक्शन रेल का शहर है इसने मारवाड़ को 3 भागों में बांट दिया है। एक हिसाब से इसने यह ठीक ही किया। शहर के बीचो बीच में ही रेल फाटक बंद होने पर इस भागदौड़ भरे जीवन में मजबूरी  में ही सही हर इंसान को  कुछ देर रूक कर अपनी थकान मिटाने का समय मिलता हैै।जितनी भली रेल है, भारतवर्ष में उतना भला आज के दौर

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वादा गुरुदक्षिणा का (कहानी) - राम लखारा 'विपुल'

15 जून 2016
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जानकी मैडम???बाहर से रौनक की आवाज सुनाई दी। जानकी अपना नाम सुनते ही रसोई से बाहर निकली, गरमी के दिन थे और वो पसीने से भीगी हुई थी। बाहर आकर उसने देखा रौनक आया है।"अरे आईये ना आप।" जानकी ने मुस्कुराते हुए घर का दरवाजा खोल दिया।रौनक गणित का ज्ञाता और शोधार्थी था और कक्षा पांचवी तक जानकी का विद्यार्थी

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अजनबी जब से तुमको देखा है - राम लखारा 'विपुल'

16 जून 2016
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टेबल पर बैठ कर सोचता हूं क्या लिखूं? भविष्य को दुलारू या भूत को दुत्कारू।कुछ भी तो नहीं लिखा जाता।अभी आॅफिस पहुंचा हूं। चारों तरफ कागज के बण्डल बार बार यह एहसास करवाते रहते है, आरसी! दुनिया में अकेले तुम ही उपेक्षित नहीं हो। स्वीपर का काम है, मेरे आते ही सफाई करना। कर रहा है। अपने मोबाईल के आॅडियो प

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लघुकथा- गलत मतलब By राम लखारा 'विपुल'

17 जून 2016
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गांव के नुक्कड़ पर लगे बड़े से बरगद के पेड़ की छाया में मोहन और दीनू काका बैठे होते है।बातों ही बातों में गाँव के ही वृद्ध श्यामलाल का जिक्र छिड़ते ही दीनू काका मोहन से कहते है - “अरे मोहन ! तुम श्यामलाल से मिलने नहीं जाते। वो तो तुम्हारे पिताजी के परम मित्र थे। तुम्हे पता होगा कि श्यामलाल की हालत आजकल

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कविता कुछ ऐसा भी होगा - राम लखारा 'विपुल'

18 जून 2016
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धूप, आंधी, विष और पीड़ा सारे तू सह ले कुछ ऐसा भी होगा जो कि कभी हुआ न पहले पथ में बाधा लाख मिलेगी चलने वाले को रेत, पत्थर, बांध, चढाई और कई ढलाने रूके बिना ही थके बिना जो राहो पर बढे निश्चित होंगे एक दिन वो सागर के मुहाने जिस मस्ती में बहे नदी उस मस्ती में बह ले कुछ ऐसा भी होगा जो कि कभी हुआ न पहलेपथ

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