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विकास की दौड़ की कीमत चुकाता पर्यावरण

9 जून 2016

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        एक आकलन के अनुसार, यदि विश्व का प्रत्येक व्यक्ति एक औसत अमेरिकी जितना संसाधन उपभोग करे तो हमारी पृथ्वी जैसे तीन और ग्रहों की ज़रुरत पड़ेगी अर्थात कुल चार ग्रह. ब्रिटेन के टीवी चैनल आईटीवी पर स्टीफन हॉकिन्स ने आगाह किया कि जलवायु परिवर्तन करीब सात करोड़ साल पहले के क्षुद्र ग्रहों के उस टकराव से भी ज्यादा खतरनाक है जिसकी वजह से डायनासोर विलुप्त हो गए. यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि विश्व के क्षेत्रफल व जनसंख्या का बड़ा प्रतिशत रखने वाले देशों, जो कि विकसित देशों की श्रेणी में नहीं आते, में अपने नागरिकों को कम से कम अमेरिका के औसत नागरिक के बराबर जीवन स्तर उपलब्ध कराने की इच्छा अवश्य पायी जाती है. हालांकि इसमें कुछ भी गलत नहीं है. पर यहाँ प्रश्न यह है कि इस इच्छा की पूर्ति के लिए दांव पर क्या लगा है? विकास की इच्छा रखना तथा विकास करना बिलकुल अनुचित नहीं है बल्कि अनुचित है संपोषणीयता को ध्यान में न रखकर विकास करना. वर्तमान सदी के विगत अनेक दशकों से पर्यावरण के प्रति विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच चले आ रहे ग़ैर-जिम्मेदाराना व्यवहार से प्रकृति को नुकसान के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ जिसमें विकसित देशों और विकासशील देशों दोनों के ही पास अपने अपने पक्ष में देने के लिए तर्क होते हैं जो कि प्रकृति तथा संसाधनों के संरक्षण का युद्ध स्तर पर समर्थन करते हुए बिलकुल भी प्रतीत नहीं होते. पेरिस जलवायु सम्मलेन 2015 में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री डेविड कैमरून द्वारा कहे गए शब्दों पर ध्यान दें-"मामला यह नहीं है कि हम कामयाब नहीं हो पायेंगे. हम सब जानते हैं कि ऐसा ही होगा. सवाल यह है कि हम अपनी अगली पीढ़ियों को क्या जवाब देंगे अगर हम नाकाम रहे. हमें कहना होगा कि यह काम काफी कठिन था. फिर वे जवाब देंगे, जब धरती ही खतरे में थी तो ऐसी कौन सी चीज़ उससे ज्यादा मुश्किल थी? जब 2015 में समुद्रों का जलस्तर बढ़ रहा था, जब फसलें तबाह हो रही थीं, जब रेगिस्तान विस्तार ले रहा था, तो इससे ज्यादा मुश्किल और क्या था?"

             आज न तो विकसित देश का निवासी यह सोच पा रहा है कि क्या उसकी आने वाली पीढ़ियों को वह संसाधन तथा वह विलासिता उपलब्ध हो पायेगी जिसके तहत वह आज कीमती प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट किये दे रहा है और न ही विकासशील देश का निवासी यह सोच पा रहा है कि ऐसे विकास का अर्थ ही क्या रह जाएगा जिसमें पीने के पानी तक के लिए संघर्ष करना पड़े. हम सब शुद्ध वर्तमान में जी रहे हैं. कम से कम आज के दिन तो  ये कोई नहीं सोचना चाहता कि अगर सब कुछ यथावत चलता रहा तो आने वाला समय हमें क्या दिखायेगा? हमारा बर्तन भले ही सोने का हो लेकिन प्यास तभी बुझेगी जब उसमें पानी होगा.

                पर्यावरण के मुद्दे पर दो तरह के लोग देखने को मिलते हैं. एक तो वे जिन्हें वाकई पर्यावरण की फ़िक्र है तथा जो पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रभावी कदम उठा रहे हैं और दूसरे वे जिन्हें पर्यावरण तथा संसाधन संरक्षण जैसी चीज़ों से कोई वास्ता नहीं. अब समय वह नहीं रहा जिसमें दोनों तरह के लोग सरलता से समन्वय कर पाने में सफल हों. अब दोनों विचारधाराओं के लोगों को एकसाथ पर्यावरण संरक्षण करना ही होगा और इसे मजबूरी के तौर पर लिया जाना आवश्यक है. उदाहरण के लिए मान लीजिये कि आप पूरे दिन में सिर्फ अपनी दैनिक ज़रूरतों पर पानी खर्च करने के बाद एक बाल्टी पानी बचाते हैं और आपका पड़ोसी अपनी गाड़ी धोने में चार बाल्टी पानी व्यर्थ कर देता है. अब अगर आप चाहें तो यह सोच कर प्रसन्न हो सकते हैं कि आपने एक बाल्टी पानी बचाया परन्तु वास्तविकता यह है कि आप जिस पारिस्थितिक तंत्र के भाग हैं उसमें से कम से कम तीन बाल्टी के बराबर पानी नष्ट कर दिया गया. आज हम और हमारा पड़ोसी अलग नहीं रहे. दरअसल, पर्यावरण की दृष्टि से देखें तो अब कोई भी एक दूसरे से अलग नहीं रहा. अब फर्क इस बात से नहीं पड़ता कि पेड़ अमेरिका में काटा गया, ब्रिटेन में काटा गया या भारत में काटा गया, फर्क इस बात से पड़ता है कि पेड़ काटा गया. यदि भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यहाँ पर्यावरण संरक्षण के लिए सबसे बड़ी समस्या है कि ऐसे नियम नहीं बनाये जा सकते जो कि नागरिकों पर बाध्यकारी हों ही, जबकि इसकी नौबत आ चुकी है. यहाँ बात पर्यावरण संरक्षण अधिनियम या राष्ट्रीय वन नीति इत्यादि जैसे कानूनों की नहीं बल्कि उस नैतिक जिम्मेदारी की हो रही है जिसके अभाव में भारत का एक नागरिक सड़क के किनारे बहते हुए नल को सिर्फ इसलिए बंद नहीं करता क्योंकि उसके घर पर पर्याप्त पानी मौजूद है तथा उस बहते हुए पानी से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. संसाधनों का दुरुपयोग रोकना ही होगा वरना तीन बाल्टी पानी बहाकर एक बाल्टी पानी बचा लेना सुरक्षित भविष्य तथा सुरक्षित पर्यावरण की गारंटी नहीं हो सकता. अब ऐसे लोगों को भी अनिवार्य रूप से पर्यावरण संरक्षण में हिस्सा लेना पड़ेगा जो इसमें रूचि नहीं रखते. यहाँ बात सिर्फ पानी या पेड़ों की ही नहीं है बल्कि हर उस प्राकृतिक संसाधन की है जिसे व्यर्थ में नष्ट किया जा रहा है.

            प्रत्येक पारिस्थितिक तंत्र में एक प्राकृतिक गुण पाया जाता है जिसके चलते वह स्वयं में हो रहे नकारात्मक परिवर्तनों का उपचार स्वयं कर सकता है तथा साथ ही एक चरम सीमा (THRESHOLD LIMIT) भी होती है जिसके परे यदि उस पारिस्थितिक तंत्र में थोड़ा सा भी परिवर्तन कर दिया जाए तो उससे होने वाले नुकसान की भरपाई कर पाना संभव नहीं होता है. पृथ्वी अपने आप में एक पारिस्थितिक तंत्र है. ज़ाहिर है कि परिवर्तनों को सहन करने की एक निश्चित सीमा के बाद पृथ्वी का पर्यावरण इस योग्य नहीं रह जायेगा कि मानवीय गतिविधियों से हो रहे नुकसान की भरपाई स्वयं कर सके. यह बिलकुल सही समय है वैश्विक स्तर पर विकास के नाम पर पर्यावरण को पहुंचाए जा रहे नुकसान को रोक देने का क्योंकि यदि सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो निस्संदेह पर्यावरण की वह सीमा आएगी जब मानव जाति पर्यावरण के विनाश को नहीं रोक पाएगी यदि वह तत्क्षण संसार के सभी कल कारखानों, वाहनों व अन्य पर्यावरण प्रदूषकों तथा समस्त कार्बन उत्सर्जन को सदा के लिए रोक भी दे.

               ऐसी परिस्थिति में कुछ प्रश्न उठते हैं. जैसे क्या विकसित देशों को प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का नैसर्गिक अधिकार है? या फिर, यदि हालात इतने बदतर हैं तो क्या विकसित जीवन कि उम्मीद करना बेकार है? नहीं, निस्संदेह ऐसा नहीं है. महात्मा गाँधी का यह कथन यहाँ प्रासंगिक है-"प्रकृति प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकता पूरी कर सकती है, लेकिन एक भी मनुष्य के लालच को पूरा नहीं कर सकती." विकसित देश अपने लालच के चलते पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं और विकासशील देश अपनी आवश्यकताओं के चलते. समस्या का निदान संतुलन तथा संपोषणीय विकास में है. हम प्राकृतिक संसाधनों का दोहन आवश्यकता की पूर्ति के लिए करें न कि लालच की पूर्ति के लिए. यदि लालच को विकास का नाम देकर प्रकृति का दोहन किया जायेगा तो वर्तमान पीढ़ी तो सुखमय जीवन व्यतीत कर लेगी परन्तु अगली पीढ़ी को जो भविष्य देखने को मिलेगा वह निश्चित रूप से आज जैसा सुखमय नहीं होगा. अब समस्त विश्व को जलवायु परिवर्तन पर गंभीर रूप से सोचने तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए छोटा ही सही पर कुछ न कुछ योगदान करने कि आवश्यकता है. पर्यावरण की रक्षा के लिए ठोस नियम बनाये जाने से अधिक आवश्यक है पर्यावरण संरक्षण के आधारभूत नियमों का मजबूती से पालन करना. जलवायु परिवर्तन की गंभीरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्तमान समय में पर्यावरण विज्ञानी जलवायु परिवर्तन को लेकर जो आकलन कर रहे हैं वे सिर्फ वर्ष 2036, 2050 या इस सदी के अंत तक ही सीमित हैं. हमारे ग्रह की जलवायु अगली सदी में कैसी होगी इसका हमारे पास आकलन भी मौजूद नहीं है और यदि है भी तो वह निश्चय ही भयावह है.

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1 अगस्त 2016
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ये खेल...जो दोबारा शुरू हुआ है...इसका पुराना खिलाड़ी हूँ मैं।सारे क़ायदे जानता हूँ इस खेल के....औरों से बेहतर जानता हूँ इसेसिकंदर बना दिया इस खेल ने मुझे......सब कुछ जीतता आया...बस यहीं हार गयाऐसा नहीं वो जीत नहीं सकता था.....पर काफी कुछ है दुनिया में जो सिर्फ ठानने से नहीं मिलता......उसके मिलने की अल

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