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जा पोटली झाड़, पुरस्कार छांट और मीडिया को बुला...

11 जून 2016

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(26 अक्तूबर 2015 को हिन्दुस्तान कानपुर के जमूरे जी कहिन कॉलम में प्रकाशित)


का रे जमूरे! तनिक पोटलिया तो खंगाल...।
कौन सी हुजूर? प... वाली की द... वाली?
का बताएं हम तुहंय...बकलोल कय बकलोल रहिगेव। द अक्षर हम सीखेन हैं का...? प वाली...और उहव सरकारी प वाली..., जेम्मा सब सरकारी प हों। देख कउनव प है जौने का ल किया जाय...?
हुजूर, अब यह ल... क्या है? प माने अब तक मिले पुरस्कार। द का मतलब देने से है। ई ल क्या है?
अरे जमूरे... ल माने लौटावय वाले पुरस्कार। देख कउनव पुरस्कार झाड़-पोंछ कय लौटावा जाय सकत है का? सब पड़े-पड़े सड़त हैं। जवन सबसे पुराना होय गा हो, वहका निकाल, साफ कर...मीडिया का बुला। दुनिया का पता तव चलय कि हम्मय पुरस्कार मिला रहा। कउनव यादय नाही राखत कि हमहूं का पुरस्कार मिला रहा। यही आंधी मा गांधी बन जाव बच्चा।
अच्छा, तो आप भी सांप्रदायिक हवा के खिलाफ हैं हुजूर। पहले तो कभी जिक्र नहीं किए। इतने दिन से मैं आपके साथ हूं, पर कभी लगा ही नहीं कि धर्म-सांप्रदायिकता जैसे शब्द आपके लिए कोई मतलब रखते हैं। जिससे मिले हंसकर मिले। फिर अचानक आपको भी माहौल में सांप्रदायिकता की बू कैसे आने लगी?
धत्त जमूरे...। हम तो अबहूं मुतमइन हूं कि हमारे देश का ई सब छोटी-मोटी घटना से कउनव फरक नाही पड़ी। हम तो मौका देख रहेन। हवा बही है, तो साथ-साथ फायदा लूट लियव आउर कुछ नाही।
अब देखव जमूरे...। इतना लोगन का साहित्य अकादमी मिला, पर केहू का याद नाही रहा। धड़ाधड़ सब लौटावय शुरू किहिन तव पूरी-पूरी लिस्ट अखबारन मा छपय लाग। चैनल वाले धड़ाधड़ मुंह मा माइक घुसेड़ रहे। जेतना पब्लिसिटी तब नाही मिली रही जब पुरस्कार मिला रहा, वोहसे जादा तव अब मिलत है। फिर हींग लगे न फिटकिरी रंग चोखा आ ही जाई, पुरस्कार के साथ मिला पइसवा थोड़य न लौटाइब हम। अब जादा बकर-बकर न कर... जा पोटली झाड़, पुरस्कार छांट और मीडिया का बुला। तब तक हम तनी तानकर सो लें...।
-विशाल शुक्ल ‘अक्खड़’ 

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स्नेहा

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काफी अच्छा लिखते है आप. मुबारकवाद. कोई लेख पढ़कर मुस्कराहट तो आई.

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अमवा पर बौर खुब आय गयव रेहोली मा बुढ़ऊ बौराय गयव रेरंग लिहिन मूंछ खिजाब लगाय केधोती से पैंट मा आय गयव रेछोड़ दिहिन लाठी देह सिधाय केकमरियव मा लचक आय गयव रेसांझ सबेरे कन घुसेड़ू सजाय केफिल्मी धुन पर रिझाय गयव रेचल दिहिन ससुरे झोरा उठाय केरस्ता मा चक्कर खाय गयव रेगोरी का मेकअप नजर लाय केबूढ़ा कय गठरी भुला

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8 मई 2016
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ख्वाहिशें बहुत हैं मगर आसमां नहीं हैआसाइशें बहुत हैं मगर यहां मां नहीं हैचांद-सितारों तुम क्या जानो क्या कमी हैरोशनी आये जिससे वह रोशनदां नहीं हैगुल खिलते हैं यहां हर घर के गमले मेंअम्मां का खिलाया वह गुलिस्तां नहीं हैपतंगा कितना ही तड़पे जान देने कोजल जाए हवा के झोंके से शमां नहीं हैक्या सुनाऊंगा म

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जुल्फ घनेरी छांव तले बादल बन उड़ जाऊंगाकैसे सोच लिया तुमने मन गीत तुम्हारे गाऊंगामां के आंचल में सिसका हूं मां के सीने पर सोया हूंमैं गीत उसी के गाता हूं, मैं गीत उसी के गाऊंगा

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मैं हंसता हूंवह हंसती हैमैं रोता हूंवह रोती हैमैं पिता हूंवह बेटी हैमैं सेंकता हूंवह सिंकती हैमैं खाता हूंवह घुलती हैमैं याचक हूंवह रोटी हैमैं सजता हूंवह सजती हैमैं हर्षित हूंवह मुदित हैमैं नंगा हूंवह धोती है

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15 जुलाई 2016
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वो कमजर्फ निगहबां को भूल जाते हैंकमबख्त कैसे बागबां को भूल जाते हैंबचकर रहना इन बेमौसमी बादलों सेखुदगर्जी में आसमां को भूल जाते हैं

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5 अगस्त 2016
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हां मेरे भी दो चेहरे हैंदुनिया से हंस हंस करबातें करनाबिना वजह खुद कोहाजिरजवाब दिखानापर असली चेहरे सेकेवल तुम वाकिफ होहै न...क्योंकि तुम्हारे हीआंचल में तो ढलके हैंदुनिया के दिए आंसूतुम्हारे ही कदमों मेंझुका है गलती से लबरेज यह चेहरातुम पर ही तोउतरा है जमाने भर का गुस्साऔर यह दुनियाकहती हैमैं तुम्हा

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13 अगस्त 2016
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चलो कुछ ऐसा कमाया जायेरिश्तों का बोझ ढहाया जायेआईने पर जम गई है धूल जोमिलकर कुछ यूं हटाया जाये#विशाल शुक्ल अक्खड़

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14 अगस्त 2016
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बारिश का दर्द

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सुना है गांव में बादल आये हैं मां के कदमों में झूमकर बरसे हैं कुछ ग़म की बूंदों ने शिकायत की और ढेर सारे खुशी के पानी झरे हैं मां से बोले हैं बादल अपने शहर वाले बेटे को जरा समझाओ इतना पढ़ा लिख

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मेरा पहला वैलेंटाइंस डे

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