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दहेज़ से महंगी बेटी (कहानी) - राम लखारा 'विपुल'

13 जून 2016

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बड़ी धूूमधाम से दीपिका की शादी हुई थी। इतने मेहमान आए थे कि पूरे समाज में इस शादी की मिसाल दी जाने लगी थी। पिताजी बड़े अफसर थे, सो जो भी मेहमान आए महंगे गिफ्ट लेकर आए थे दीपिका के लिए।


लेकिन दीपिका की शादी होने के बाद से ही उसका पति दहेज के लिए ताने देता रहता था। दीपिका के पिता ने शादी में सब कुछ दिया था, लेकिन शादी में मोटर साइकिल नहीं देना उसके पति मुरलीधर को बहुत अखरा था। 

वह बात बात पर इस बारे में उलाहने देता रहता था “ तुम्हारे पापा मुझे एक मोटरसाइकिल तो दे ही सकते थे। देखों आजकल गरीब से गरीब आदमी भी अपनी बेटी को मोटरसाइकिल दे देता है। तिस पर तुम्हारे पिताजी तो सरकारी महकमे में बड़े अफसर कहाते है। मैनें कार तो न चाही थी, सिर्फ एक मोटर साइकिल ही तो चाही थी। वो भी दे न सके।” इतना कहकर मुरलीधर मुंह बिगाड़कर दूसरी तरफ देखने लगता था।


दिन में कम से कम दो बार तो मुरलीधर के जुबान पर मोटरसाइकिल का जिक्र आ ही जाता था। 

बेचारी दीपिका चुपचाप सहन कर लेती थी। वह कह भी क्या सकती थी? यह शिकायत उसने अपने पिताजी से भी नहीं की, कारण कि वो उनका दिल नहीं दुखाना चाहती थी।


उसने मुरलीधर को सिर्फ उस दिन खुश देखा जिस दिन उसने यह खुश खबरी दी कि वो गर्भ से है और उसके बच्चे की मां बनने वाली है।

लेकिन दूसरे ही दिन मुरलीधर फिर उन्ही सपनो में खो गया कि बच्चे के जन्म पर विदाई के समय उसके ससुरजी अवश्य ही उसे मोटरसाइकिल दे देंगे। नहीं देंगे तो मांग लूंगा, इस बार कोई शरम नहीं रखूंगा।


दीपिका भी यह विचार करने लगी थी कि बच्चे के जन्म पर वो अपने पिताजी से यह गुजारिश करेगी कि उसके जमा पैसे में और कुछ राशि मिलाकर वो एक मोटरसाइकिल खरीद ले और उसके पति को उपहार में दे। रोज रोज के ताने और अपने पिताजी का अपमान अब उसकी बर्दाश्त से बाहर था।


वो दिन भी आया। शादी की पहली सालगिरह के दूसरे ही दिन दीपिका ने एक फूल सी बच्ची को जन्म दिया। बच्ची के जन्म की खबर पाकर खुशी से मुरलीधर के पांव जमीं पर नहीं टिक रहे थे। 


अगले दिन ही वो अपने ससुराल अपनी पत्नी से मिलने पहुंचा।


हाॅस्पीटल में पहुंचते ही अपनी बच्ची को गोद मे लेकर मुरलीधर आंखों में आंसू लिए दीपिका से बोला ”दीपिका मुझे मोटर साइकिल नहीं चाहिए। जिस बाप ने अपनी जान से प्यारी बेटी किसी पराए आदमी को सौंप दी, वों इससे महंगा अब और क्या दे सकेगा? कुछ भी तो नहीं।“




लेखक -  राम लखारा 'विपुल' 

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