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प्रेमचन्द के उपन्यासों में बाल मनोविज्ञान

20 जून 2016

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          प्रेमचन्द हिन्दी के प्रथम मौलिक उपन्यासकार हैं। उन्होंने एक क्रमबद्ध एवं संगठित कथा देने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया है। उन्होंने हिन्दी के पाठकों की अभिरुचि को तिलिस्मी उपन्यासों की गर्त से निकालकर शुद्ध साहित्यिक नींव पर स्थिर किया। उनकी कला, उनका आदर्शवाद, उनकी कल्पना और सौन्दर्यानुभूति और उनके चरित्र आदि मध्यवर्ग की जनता का सच्चा प्रतिनिधित्व करते हैं। व्यक्ति भावना में बंधकर हंसता, रोता और गाता है, निज संघर्ष में हारता-जीतता है। ऐसे व्यक्ति को सर्वप्रथम प्रेमचन्द ने ही निज उपन्यासों में प्रतिष्ठापित किया है। हिन्दी उपन्यासों में मनोविज्ञान सम्बन्धी तत्त्व सर्वप्रथम प्रेमचन्द के उपन्यासों में ही मिलते हैं। प्रेमचन्द शैलीकार न थे, साहित्यकार थे और वे भाषा नहीं लिखते थे, अपनी वेदना लिखते थे। इसी से पंडित से पहले जनता ने उन्हें अपनाया और आचार्य से पहले नागरिक ने उन्हें समझा। प्राणों का उत्सर्ग देकर उन्होंने भाषा और भारत को संस्कार दिया।१

          उपन्यास क्या है यह साहित्य प्रेमी जानते हैं। बाल अर्थात्‌ बालक वह भी परिचय का मोहताज नहीं है और मनोविज्ञान की परिभाषा बताने की तो कोई आवश्यकता ही नहीं है। बालक के मन को समझने वाले विज्ञान को बालमनोविज्ञान कहते हैं। कलम के सिपाही प्रेमचन्द के उपन्यासों में बालक के मन को समझने का महती प्रयास किया है जोकि हमें यह सन्देश देता है कि उस बालक का विशेष ध्यान रखना चाहिए जो कल के समाज का सर्जक है। उसका समुचित विकास होने पर ही समाज का उज्ज्वल भविष्य निर्भर करता है।

          प्रेमचन्द रचित उपन्यास वरदान सन्‌ १९०६ में प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंचा। इस उपन्यास में बाल-मनोविज्ञान सम्बन्धी तथ्य स्वतः ही मुखर हो उठते हैं। बच्चे मन के राजा होते हैं। उन्हें सुख-दुःख से कुछ नहीं लेना-देना होता है। आर्थिक तंगी के कारण एक दिन मां सुदामा अपने छह वर्षीय बालक प्रताप को बुलाकर कहती है-'बेटा! तनिक यहां आओ। कल से तुम्हारी मिठाई, दूध, घी सब बन्द हो जाएंगे। रोओगे तो नहीं? यह कहकर उसने बेटे को प्यार से गोद में बैठा लिया और उसके गुलाबी गालों का पसीना पोंछकर चुम्बन कर लिया। प्रताप, क्या कहा? कल से मिठाई बन्द होगी? क्यों? क्या हलवाई की दुकान पर मिठाई नहीं है? सुदामा, मिठाई तो है, पर उसका रुपया कौन देगा? प्रताप, हम बड़े होंगे तो उसको बहुत-सा रुपया देंगे। चल, टप, टप, देख माँ कैसा तेज घोड़ा है।'२ बच्चों की बुद्धि अत्यन्त तीव्र होती है। उनके द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर गलत नहीं देना चाहिए। वे सब समझते हैं। गलत उत्तर देने से उनका उत्तर देने वाले पर विश्वास उठ जाता है और फिर बालक कभी उन पर विश्वास नहीं करता। एक दिन बालक प्रताप अपनी बाल-सखी विरजन को कोई पुस्तक पढ़कर सुना रहा था और विरजन के पिता मुंशी जी आ जाते हैं। वे प्रताप को बुलाते हैं, यहां आओ, प्रताप! प्रताप धीरे-धीरे कुछ हिचकिचाता, सकुचाता समीप आया। मुंशी जी ने पितृवत्‌ प्रेम से उसे गोद में बैठा लिया और पूछा-‘तुम अभी कौन सी किताब पढ़ रहे थे?' प्रताप बोलने को ही था कि विरजन बोल उठी-'बाबा! अच्छी-अच्छी कहानियां थीं। क्यों, बाबा? क्या पहले चिड़ियां भी हमारी भांति बातें करती थीं?' मुंशी जी मुस्कराकर बोले-‘हाँ!वे खुद बोलती थीं।' अभी उनके मुख से पूरी बात भी निकल नहीं पाई थी कि प्रताप, जिसका संकोच अब गायब हो चला था, बोला-‘नहीं विरजन, तुम्हें भुलाते हैं। ये कहानियां बनाई हुई हैं।' मुंशी जी इस निर्भीकता पूर्ण खण्डन पर खूब हंसे।३ बच्चे जिज्ञासु होते हैं और वह अपने मन में उठी जिज्ञासा को सब कुछ जानकर शान्त कर लेना चाहते हैं। बालिका विरजन सोचती है-रेल पर वह भी दो-तीन बार सवार हुई थी। परन्तु उसे आज तक यह ज्ञान न था कि उसे किसने बनाया और वह क्योंकर चलती है। दो बार उसने गुरुजी से यह प्रश्न किया था, परन्तु उन्होंने यही कहकर टाल दिया कि बच्चा, ईश्वर की महिमा अपरम्पार है। विरजन ने भी समझ लिया कि ईश्वर की महिमा कोई बड़ा भारी और बलवान घोड़ा है, जो इतनी गाड़ियों को सन-सन खींचे लिए जाता है।४ बड़े जो कुछ बच्चों को बताते हैं वह उन्हीं पर विश्वास कर बैठते हैं। किन्तु जब उन्हें सही बात का पता लगता है तो उनका बड़ों पर से विश्वास उठ जाता है।

          सन्‌ १९१४ में प्रकाशित उपन्यास सेवासदन में यत्र-तत्र बाल मनौवैज्ञानिक तथ्य बिखरे पड़े हैं जोकि प्रेमचन्द के बाल मनोवैज्ञानिक अध्ययन की पुष्टि करते हैं। परिवार ही बच्चों की प्राथमिक पाठशाला होती है। अतः परिवार का दायित्व है कि वह उपयुक्त वातावरण तैयार करके बच्चों के पालन-पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करें क्योंकि बच्चों की समुचित देखभाल न होने के कारण उनमें सुविचारों का अभाव हो जाता है। सेवासदन का सदन माता-पिता के अतिशय लाड़-प्यार से बाल्यकाल में डीट, हटी और लड़ाका बन जाता है। यहां तक कि वह अपनी जरूरतों के लिए चोरी भी करने लगता है। वह आलस्य और उदण्डता की ओर उन्मुख होने लगता है। ऐसा क्यों है, क्योंकि परिवार में माँ-बाप उसका उचित ढंग से पालन-पोषण नहीं करते। बालक जब कोई अशुद्ध वस्तु छू लेता है तो वह अन्य बालकों को दौड़-दौड़कर छूना चाहता है, जिससे वे भी अपवित्र हो जाएं।५ अतः स्पष्ट है कि बच्चे जब स्वयं गलती कर बैठते हैं तो स्वयं को अपमान से बचाने के लिए दूसरे पर अपना दोष लगाने का प्रयास करते हैं जिससे उसे अकेले अपमानित न होना पड़े। प्रेमचन्द कहते हैं-बालक जो अपने किसी सखा के खिलौने तोड़ डालने के बाद अपने ही घर में जाते डरता है।६ स्पष्ट है कि बालक अपने मित्र की किसी वस्तु को तोड़ देता है तो अपने घर जाते हुए डरता है-'कि कहीं' घर पर डांट न पड़े। इसी प्रकार अन्यत्र प्रेमचन्द लिखते हैं-बालक 'मेहमान की लाई मिठाई को ललचाई हुई आंखों से देखता है, लेकिन माता के भय से निकालकर खा नहीं सकता।७ इस प्रकार बालक के सुलभ मन की अभिव्यक्ति करते हुए वह अपनी बाल मनोवैज्ञानिक बुद्धि का सहज ही परिचय दे देते हैं।

          सन्‌ १९१८ में प्रकाशित उपन्यास प्रेमाश्रम प्रकाश में आया। इसमें प्रेमचन्द कहते हैं-बाल्यावस्था के पश्चात्‌ ऐसा समय आता है जब उद्दंडता की धुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती। उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर समझती है।८ प्रेमाश्रम के तेजशंकर और पदमशंकर ऐसे ही दुर्भाग्यशाली बच्चे हैं, जिन्हें माता-पिता का समुचित संरक्षण प्राप्त नहीं हुआ। घर की देखभाल के अभाव में उनकी सजीवता, उनकी अबाध्य कल्पना सुविचारों की ओर उन्मुख न होकर मिथ्या विश्वासों की ओर बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप वे चालीस दिन तक भैरव मन्त्र सिद्ध करने के भ्रम में सदा के लिए यह संसार त्याग देते हैं।

          सन्‌ १९२३ में प्रकाशित उपन्यास निर्मला मूलतः दहेज-प्रथा की समस्या पर आधारित है। इसमें बालमनोविज्ञान सम्बन्धी तथ्य यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। दस वर्षीय कृष्णा को जब पता चलता है कि उसकी बहिन निर्मला का विवाह होने वाला है तब वह विवाह के बारे में सोचती है और ठीक-ठाक समझ न सकने के कारण डरती है। बच्चे ठीक-ठाक समझ न सकने के कारण दब्बू हो जाते हैं। बच्चे जिज्ञासु होते हैं और नई-नई बातें जानना चाहते हैं। जब नहीं जान पाते तो ऊटपटांग सोचकर अपनी जिज्ञासा को शान्त कर लेते हैं।९ बच्चे जिज्ञासु होते हैं। वे सब कुछ जानना चाहते हैं। इसके लिए कोई शर्त भी रखी जाये तो उसे पूर्ण करने में नहीं हिचकते। जैसे चन्दर, कृष्णा से घूमने चलने के लिए कहता है तो वह राजी हो जाती है, इसलिए कि चन्दर उसे शादी के बारे में बहुत कुछ बताएगा।१० बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए बच्चों को माता-पिता का उचित संरक्षण और निर्देशन मिलना अति आवश्यक है, क्योंकि माता-पिता के प्रति आस्था समाप्त हो जाने पर बच्चा विध्वंसक एवं विरोधी बन जाता है। जियाराम तो विमाता तथा पिता पर आस्था खो चुका है। वह स्पष्ट कहता है कि उसके बड़े भाई मंसाराम की मृत्यु का करण वे दोनों हैं।११ पारिवारिक जीवन में जब तक सामाजिक दोषों के कारण असंगतियां रहेंगी, बच्चों का स्वस्थ विकास नहीं हो सकता क्योंकि वे असंगतियां अनेक कुण्ठाओं को जन्म देती हैं। बचपन में आस्थाओं का टूटना व्यक्ति को विध्वंसक बना देता है। यहीं से अपराध प्रवृत्ति का अंकुर फूटता है।१२

          सन्‌ १९२४ में प्रकाशित उपन्यास रंगभूमि दो भागों में प्रकाशित हुआ था। एक अन्धे भिखारी की जमीन हथियाने के प्रयत्न में धनवानों की चालाकियां तथा कुछ वायावी प्रेम की कहानियों के आधार पर उपन्यास का कथानक गढ़ा गया है। इस उपन्यास के पात्र विनय और सोफिया का एक दूसरे के प्रति आकर्षण का कारण यौन-भावना ही नहीं अपितु मनोवैज्ञानिक भी है। अपनी माँ की कठोरता ने विनय के मन में ऐसी ग्रन्थि का निर्माण किया था कि वह हर नारी में अपनी माँ की कठोरता ही देखता था। यही बात सोफिया के घर में थी। अतः पहली बार विनय की विनयशीलता पर सोफी मुग्ध होती है और सोफी का मधुर व्यवहार विनय को जात-पात के बन्धन तोड़कर उससे विवाह करने के लिए विवश करता है। हॅपनर नामक मनोवैज्ञानिक ने ऐसे व्यक्तियों के विषय में लिखा है कि 'Some persons react to an early environmental influance by entegonism towards it...This is particularly evident in the case of a mother domination of her son, one son may rebel against his mothers ever attentiveness...and want a mate who reminds him very little of his own mother'.13

          सन्‌ १९२८ में प्रकाशित उपन्यास कायाकल्प की नायिका मनोरमा तेरह वर्ष की है। उसे चक्रधर पढ़ाने आते हैं। बच्चों के मन में जो शंका होती है वे उसका समाधान चाहते हैं। यद्यपि बच्चे अपनी कल्पना-शक्ति से अपने मन में उत्पन्न जिज्ञासा को शान्त कर लेते हैं, किन्तु वे तब तक पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं हो जाते जब तक कोई उनके द्वारा किए गए समाधान को अपने उत्तर द्वारा प्रमाणित नहीं कर देता। मनोरमा, चक्रधर से प्रश्न-रूप में अपने मन की जिज्ञासा कहती है। चक्रधर से तर्क-वितर्क करती है। वे उसकी जिज्ञासा का समाधान कर देते हैं। मनोरमा को उनके द्वारा किया गया समाधान अपने मनोनुकूल लगा तो उसका स्नेह अपने शिक्षक चक्रधर से अधिक हो गया। अब पढ़ने-लिखने से उसे विशेष रुचि हो गई। चक्रधर उसे जो काम करने को दे जाते, वह उसे अवश्य पूरा करती। पहले से आकर बैठ जाती और उनका इन्तजार करती। अब उसे उनसे अपने मन के भाव प्रकट करते हुए संकोच न होता। वह जानती थी कि कम से कम यहां उनका निरादर न होगा, उनकी हंसी न उड़ाई जाएगी।१४  प्रेमचन्द कहते हैं-'माताओं को चाहिए कि अपने पुत्रों  को साहसी और वीर बनाएं। एक तो यहां लोग यों ही डरपोक होते हैं, उस पर घर वालों का प्रेम उनकी रही-सही हिम्मत भी हर लेता है।'१५ अतः स्पष्ट है कि माता-पिता को बच्चों में गुणों को प्रतिस्थापित करने के लिए न अधिक लाड़-प्यार करना चाहिए और न ही अधिक सख्ती बरतनी चाहिए। एक दिन रानी मां को रोते देखकर वह तलवार लेकर राजा को मारने के लिए उनके पास आता है। 'राजा-क्यों शंखधर, तलवार क्यों लाये हो? शंखधर तुमको मारेंगे। राजा-क्यों भाई मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? शंखधर-अम्मां लानी लोती है, तुमने उनको क्यों माला है?'१६ बालक जिस बहुत चाहता है उसे कष्ट होते नहीं देख सकता। वह इसके लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाता है और कष्ट देने वाले को मारना चाहता है। शंखधर को अपनी दादी निर्मला को पूजा करते देखकर उससे पूछने पर यह ज्ञात हो जाता है कि ईश्वर मनोकामना पूर्ण करते हैं। वह दादी की तरह पूजा करने लगता है। उसको पूजा करते देखकर पूछने पर आंखों में आंसू भरकर कहता है-'कुछ नहीं, मैं बाबूजी के जल्दी से लौट आने की प्रार्थना कर रहा था।'१७ बालक बड़ों का अनुकरण करता है। अनुकरण की प्रवृत्ति बच्चों के जीवन-विकास में बहुत महत्त्व रखती है। यह प्रवृत्ति वहीं तक ठीक रहती है, जहां तक बालक के स्वावलम्बी बनने में बाधक नहीं होती। बच्चों में यह प्रवृत्ति सबसे अधिक होती है और वह हर बात का अनुकरण करने के लिए तत्पर रहते हैं। अतः बालक के आसपास अच्छा वातावरण है तो वह अच्छी बातें सीख जाता है और यदि दूषित है तो गन्दी बातें सीखता है। बालकों में अच्छी-अच्छी आदतें सहज अनुकरण की प्रवृत्ति द्वारा डाली जा सकती हैं और इसका बच्चों के जीवन में सुविकास के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है।

          सन्‌ १९३० में प्रकाशित उपन्यास गबन में प्रेमचन्द जी ने वातावरण और संस्कारों का व्यक्तित्व निर्माण और अपराध में कितना महत्त्वपूर्ण सहयोग होता है, का सुन्दर चित्राण किया है। पारिवारिक संस्कार और वातावरण बालक के व्यक्तित्व-निर्माण में पूर्ण सहायक है। गबन उपन्यास का नायक रमानाथ का पतन मिथ्या अहंकार और प्रर्दशन-प्रिय स्वभाव के कारण ही हुआ। इसी प्रकार नायिका जालपा का आभूषण-प्रेम भी उसके दुःख का कारण है। इन दोनों को यह सब पारिवारिक वातावरण और संस्कारों से ही मिला। बच्चों का बचपन में जैसे वातावरण ओर संस्कारों में पालन-पोषण होता है, तदनुरूप ही उनका व्यक्तित्व ढलता है। माता-पिता को बालकों के संरक्षण के लिए घर का वातावरण भी बच्चों के विकास के अनुकूल रखना चाहिए जिससे उसका समुचित विकास हो सके।

          सन्‌ १९३२ में प्रकाशित उपन्यास कर्मभूमि के नायक अमरकान्त का बचपन पिता तथा विमाता के ही नियन्त्रण में बीता। उसे पिता एवं विमाता का प्यार नहीं मिलता। प्यार के अभाव में वह ढीठ बन जाता है और जीवन भर पिता एवं पत्नी से सामंजस्य नहीं रख पाता है। स्नेहाभाव के कारण उसका व्यक्तित्व कुण्ठित हो जाता है। वह ऐसे हृदय की ओर दौड़ता है जो उसे प्यार करे। इसी कारण वह समस्त परिवार से सामंजस्य नहीं रख पाता और अन्ततः सकीना की ओर आकर्षित होकर उससे अवैध प्रेम करता है।१८ परिवार में शिशु संरक्षण का कार्य अत्यन्त गम्भीर है। थोड़ी सी असावधानी हो जाने से बालक का व्यक्तित्व बिगड़ सकता है। अतः अभिभावकों को प्रारम्भ से ही बालकों के प्रति सचेष्ट रहना चाहिए।

          सन्‌ १९३६ में प्रकाशित उपन्यास गोदान में कृषक-जीवन की विपत्ति-कथा संजोयी गई है। गोदान में यत्र-तत्र बाल-जीवन का चित्रण बाल-मनोविज्ञान के मूल तथ्यों को सहज ही समेटे हुए है। बच्चों में स्पर्धा की भावना होती है। इसी कारण वे दूसरे बच्चों की तुलना में अधिक अच्छा बनने का प्रयास करते हैं। बच्चों में इस स्पर्धा के दो पहलू हैं-एक तो बालक दूसरे बालक के साथ स्पर्धा की भावना रखता है किन्तु उसे हानि नहीं पहुंचाता अर्थात्‌ उसकी स्पर्धा सकारात्मक होती है। दूसरा पहलू नकारात्मक है, जब बालक के मन में स्पर्धा के साथ-साथ ईर्ष्या का भाव उत्पन्न हो जाता है। ईर्ष्यायुक्त स्पर्धा बच्चे के विकास में बाधक होती है। जैसे आठ साल की बालिका रूपा बाप के साथ खाना खाने बैठती है तो सोना उसे ईर्ष्या से देखती है-‘रूपा बाप की थाली में खाने बैठी। सोना ने उसे ईर्ष्या भरी आंखों से देखा, मानो कह रही थी, वाह रे दुलार।'१९ कभी-कभी बच्चे ईर्ष्यावश परस्पर स्पर्धा करने लगते हैं और स्वयं को छोटा नहीं होने देते और नहीं चाहते कि विरोधी बच्चे से हारें। जैसे सोना और रूपा में अपने-अपने नाम की महत्ता को लेकर स्पर्धा हो जाती है।२० बच्चों में उत्पन्न ईर्ष्या को अच्छी बातों से दमन कर देना चाहिए जिससे उनका मनोविकास समुचित ढंग से हो सके। रूपा होरी से कहती है कि सोना कहती है-'गाय आएगी, तो उसका गोबर मैं पाथूंगी। रूपा यह नहीं बरदाश्त कर सकती। सोना ऐसी कहां की रानी है कि सारा गोबर आप पाठ डाले। रूपा उससे किस बात में कम है? सोना रोटी पकाती है तो क्या रूपा बरतन नहीं मांजती? सोना पानी लाती है तो क्या रूपा कुंए पर रस्सी नहीं ले जाती?' पिता ने उसके भोले पन पर मुग्ध होकर कह दिया-नहीं गाय का गोबर तू पाथना। सोना गाय के पास आये तो भगा देना। पिता के कहने पर अपनी विजय का शुभ समाचार पराजिता सोना को सुनाने चली गयी।'२१ इस प्रसंग से स्पष्ट है कि बच्चे अपने को किसी भी बात में कम साबित नहीं होने देना चाहते। वे सदैव प्रत्येक बात में अपना अधिकार चाहते हैं। दूसरों से किसी भी बात में कम होने पर उन्हें दुःख होता है, उनके स्वाभिमान को ठेस लगती है। इसलिए उनमें योग्यता प्रदर्शन की भावना होती है। वे प्रत्येक बात में अपना प्रभुत्व चाहते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति को अभिव्यक्त होने का रास्ता मिले तो उनमें आत्मनिर्भर बनने का आत्मविश्वास उत्पन्न होता है। इसके लिए समुचित वातावरण और उचित निर्देशन की नितान्त आवश्यकता है जिससे वह ईर्ष्यावश कुमार्ग या कुसंगति की ओर न बढ़ जाएं। प्रेमचन्द बच्चों के समुचित ढंग से पालन-पोषण के लिए सहमत थे। तभी तो गोदान की डॉक्टर मालती ग्रामीण स्त्रिायों को सन्तान रक्षा और शिशु-पालन की बातें बताती है और औरतें मन लगाकर सुनती हैं। वह कहती है-'क्यों माता ने पुत्र को ऐसी शिक्षा नहीं दी कि वह माता की, स्त्री जाति की पूजा करता? इसलिए कि माता को यह शिक्षा देनी नहीं आती, इसलिए कि उसने अपने को इतना मिटाया कि उसका रूप ही बिगड़ गया, उसका व्यक्तित्व ही नष्ट हो गया।'२२ 'उस पर दुनिया झुनिया दो बच्चों की मां होकर बच्चे का पालन करना न जानती थी। मंगल दिक करता तो उसे डांटती-कोसती।'२३ प्रेमचन्द यह कहना चाहते हैं कि कुछ माताएं कई बच्चों को जन्म देकर भी बच्चों को पालना नहीं जानती। वे बाल-मनोविज्ञान से अनभिज्ञ होती हैं। इस प्रकार प्रेमचन्द बच्चों के पालन-पोषण के लिए बाल-मनोविज्ञान का ज्ञान होना माताओं के लिए आवश्यक समझते हैं।

          अमर उपन्यासकार प्रेमचन्द में विशाल अनुभव, सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति, विराट प्रतिभा तथा मानव मन की थाह लने वाली अन्तःदृष्टि थी किन्तु मनोविज्ञान की विचारधारा से परिचय न होने तथा भारतीय आदर्श की रक्षा का व्रत लेने से वे अपने उपन्यासों में पूर्ण बाल मनोवैज्ञानिक तथ्यों का समावेश नहीं कर पाए हैं फिर भी अनजाने में कलम के सिपाही ने जो बाल-मनोविज्ञान अभिव्यक्त किया है वह हिन्दी के बाल मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की पृष्ठभूमि के लिए पर्याप्त है।


सन्दर्भ ग्रन्थ

१. प्रेमचन्द स्मृति-प्र.सं., १९५९, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, बाह्यय कवर, से । २. वरदान : प्रेमचन्द छठा संस्करण, १९५९ दिसम्बर, पृ. १२ । ३. -वरदान-पृ.१४ । ४. -वरदान-पृ.१४-१५ । ५. सेवासदन पृ. १२३ । ६. सेवासदन पृ. २१९। ७. सेवासदन पृ. २६८। ८. प्रेमाश्रम पृ. ४०४.-४०५। ९. निर्मला पृ. ४ । १०. निर्मला पृ. ६ । ११. निर्मला पृ. ३५-३६ । १२. हिन्दी उपन्यास : समाजशास्त्राीय अध्ययन, अनुसन्धान प्रकाशन, कानपुर, डॉ. चण्डी प्रसाद जोशी, पृ.१६८ ।१३. हिन्दी के मनोवैज्ञानिक उपन्यास-डॉ. धनराज मानधाने, पृ. १३१ । १४. कायाकल्प पृ.१३ । १५. कायाकल्प पृ.१९१ । १६. कायाकल्प पृ.२७१ । १७. कायाकल्प पृ.२८ । १८. कर्मभूमि पृ.१० । १९.-२०. गोदान पृ.१७ । गोदान पृ. ३२ । २१. गोदान पृ. ८५, २५५-२५६ । २२. गोदान पृ. २७९ ।


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डाॅ. केनेथ वाकर ने अपनी आत्मकथा में कहा है-‘आप जितना खाते हैं उसके आधे भोजन से पेट भरता है और आधे भोजन से डाॅक्टरों का पेट भरता है। आप आधा भोजन ही करें तो आप बीमार ही नहीं पड़ेंगे और डाॅक्टरों की कोई खास आवश्यकता नहीं रह जाएगी।’ डाॅ. केनेथ की यह बात अनुभूत है और व्यवहारोपयोगी है। सच में भूख से कम खा

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प्रेम

25 जून 2016
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मौन   है  बोले समर्पण-भाषाप्रेमद्वार खोले।          प्रीत   की   रीत          त्याग है पहचाने          होती नहीं जीत। खुश रहे सदा मन ये मानतावैसा न दूजा।            सदा है बांधता            मोह का बंधन           प्रेम का चंदन आती हर आहट उनकी है चाहतदेती कहां राहत ।          संदेशा ये मिला          आ

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सड़क और कविताएं

26 जून 2016
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सत्य की सड़क मिथ्या की चाैखट पर पहुंचकरमात्र एक गैलरी रह जाती हैऔर शेष भूमि परकविताएं लिख दी जाती हैं,कविताएंजो कभी भी किसी भी सूरत मेंसड्कें नहीं बन सकतीं।प्रशस्ति पत्रों से लिपटी सहमी ग्रामीण दुल्हनों जैसी जीवन भर चक्की पीसती रहती है, रोटियां पकाती रहती है और उधर मिथ्या की काली गैलरी में जेबें काट

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मंजिल

27 जून 2016
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जिंदगी   है   इक  झरोखा झांकते रहिये।लक्ष्य  से  भी  अपनी  दूरी  नापते  रहिये। साथ-साथ  चलेंगे तो पा ही लेंगे  मंजिलें। बस एक दूजे के दु:खों को  बांटते रहिये।

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रात सिर्फ रात नहीं

28 जून 2016
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रात सिर्फ रात नहींएक मंजिल भी है।      सुबह की  लगन की      दोपहर के सफर की      शाम  की कथन की। ख्वाब सिर्फ ख्वाब नहीं एक   तस्कीन   भी   है      जख्म पर मरहम सी      अजनबी   चुभन-सी      बांहों   में   दुल्हन-सी। गीत सिर्फ गीत नहीं एक  सहारा  भी  है।      तन्हाई में साथी-सा             कश्ती में म

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न्याय का घंटा

29 जून 2016
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    महाभारत में विजयी होकर युधिष्ठिर ने राज्य सत्ता संभाली। सबको समान न्याय मिले, उनके राज्य में कोई दुःखी नह हो इसके लिए उन्होंने ‘न्याय घंटा’ लगवा दिया ताकि प्रत्येक व्यक्ति की फरियाद सुन सकें।    एक बार एक निर्धन व्यक्ति ने न्याय मांगने के लिए घंटा बजाया। युधिष्ठर राजकाज में व्यस्त थे, उन्होंने

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बात जो दिल को छू गई

1 जुलाई 2016
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बात उन दिनों की है जब मैं दसवी कक्षा की छात्रा थी। किसी के नाम के पूर्व डाॅ. की उपाधि देखकर मन असंख्य अभिलाषाओं से भर उठता। मैं  सोचती  काश, मेरे नाम से पूर्व भी यह उपाधि लगे। साहित्य लेखन में रुचि होने के कारण कविता, कहानी आदि की प्रतियोगिताओं में भाग लिया करती थी जिससे  मैं स्कूल की प्राचार्या से 

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कर्म प्रधान विश्व रचि राखा

2 जुलाई 2016
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जीवन राह देता है पर हम उसे पकड़ नही पाते हैं। अकर्मण्यता या आलस्य वश ऐसा होता है। भाग्य भी पुरुषार्थ से फलीभूत होता है। कर्म के योग से कुशलता प्राप्त होती है। कर्म की महत्ता सर्वोपरि है। बिना कर्म के कुछ नहीं मिलता है। ईश्वर आशीष से हमें जो यह अनमोल जीवन मिला है इसे सार्थक करने के लिए हमें कर्म को म

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सफलता का शाॅर्टकट

3 जुलाई 2016
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आप स्कूटर की टंकी फुल कराकर मेरठ से अलीगढ़ की यात्रा करने के लिए निकल पड़े हैं पर आपका पेट्रोल आधे रास्ते में ही समाप्त हो गया और आपकी यात्रा रुक गयी। स्पष्ट है कि जब तक आपके पास क्षमता  है तब तक ही आप सफलता की सीढ़ी चढ़ सकेंगे। सफलता उसी अनुपात में मिलती हैजिस अनुपात में आपके पास वांछित वस्तु पाने 

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अधिकार किसका

4 जुलाई 2016
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बस दलपतपुर आकर रुक गई। सवारियों का आवागमन चरम सीमा पर था। बस ठसाठस भरी थी। लेकिन फिर भी कंडक्टर का आवाज दे-देकर यात्रियों को बुलाना वातावरण में कोलाहल पैदा कर रहा था।  एक बूढ़ी औरत के बस के पायदान पर पैर रखते ही कंडक्टर ने सीटी दे दी। कंपकंपाते हाथों से बुढि़या की पोटली सड़क पर ही गिर पड़ी। ‘रुकके भ

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जीत

7 जुलाई 2016
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हार स्वीकार करने वाला ही जीवन में निराश होता है। जो हारने के उपरान्त भी हार नहीं मानते हैं और अपने हार के कारणों को खोजकर उनमें सुधार लाते हुए पुनः प्रयास करते हैं, वे अवश्य जीतते हैं! न हार मानने वाला ही पुनः प्रयास करता है। वस्तुतः यह सत्य है कि हार के बाद ही जीत है! 

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प्रशंसा में सृजन की क्षमता होती है!

10 जुलाई 2016
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प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रशंसा चाहता है। सही अर्थों में प्रशंसा एक प्रकार का प्रोत्साहन है! प्रशंसा में सृजन की क्षमा होती है। इसलिए प्रशंसा करने का जब भी अवसर मिले उसे व्यक्त करने से नहीं चूकना चाहिए। प्रशंसा करने से प्रशंसक की प्रतिष्ठा बढ़ती है। सभी में गुण व दोष होते हैं। ऐसा नहीं है कि बुरे से ब

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चहुंमुखी विकास

11 जुलाई 2016
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जीवन में एक विकल्प या एक सोच रखकर प्रयास करने पर जीवन का चहुंमुखी विकास नहीं होता है। जीवन का विकास अनेक विकल्पों या अनेक प्रकार की सोच को फलीभूत करने के लिए प्रयास करने पर चहुंमुखी विकास के संग ढेरों खुुशियां मिलती हैं। लेकिन यह ध्यान रखें कि जितने विकल्प होंगे उतने अधिक प्रयास और बहुत-सा परिश्रम भ

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उपयोगी

12 जुलाई 2016
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उपयोगी को ग्राह्य कर लेना चाहिए और अनुपयोगी को त्याज्य देना चाहिए। एक बार की बात है कि गांधी जी को किसी युवक द्वारा लिखा एक पत्र मिला जिसमें गांधी जी को बहुत गालियां दी गई थीं।  गांधी जी ने शान्त भाव से तीन पन्नों का पत्र पढ़ा था और उसमें लगी आॅलपिन को निकालकर रख लिया और पत्र फाड़कर रद्दी की टोकरी म

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व्यक्तित्व निर्माण का मूलाधार

16 जुलाई 2016
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व्यक्तित्व का निर्माण मूल रूप से विचारों पर निर्भर है। चिन्तन मन के साथ-साथ शरीर को भी प्रभावित करता है। चिन्तन की उत्कृष्टता को व्यवहार में लाने से ही भावात्मक व सामाजिक सामंजस्य बनता है। हमारे मन की बनावट ऐसी है कि वह चिन्तन के लिए आधार खोजता है। चिन्तन का जैसा माध्यम होगा वैसा ही उसका स्तर होगा।न

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मोक्ष मार्ग निर्गुणी को ही मिलता है!

18 जुलाई 2016
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       प्रकृति त्रिगुणमयी है इसलिए हमारा जीवन इनसे प्रभावित होता है। गुण तीन हैं-तमोगुण, रजोगुण व सतोगुण! तमोगुण अर्थात्  सुस्ती, आलस्य। ये कुछ भी मन से नहीं करते हैं, मजबूरी में करते हैं। ऐसे लोग अच्छा जीवन कदापि नहीं जीते हैं। ये कुछ करने से पहले सुविधा का सोचते हैं! ये अपने सुविधा क्षेत्र से बाहर

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गुरु से तात्पर्य क्या है?

19 जुलाई 2016
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गुरु शब्द में दो व्यंजन (अक्षर) गु और रु के अर्थ इस प्रकार से हैं- गु शब्द का अर्थ है अज्ञान, जो कि अधिकांश मनुष्यों में होता है ।रु शब्द का अर्थ है, जो अज्ञान का नाश करता है ।अतः गुरु वह है जो मानव जाति के आध्यात्मिक अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाते हैं और उसे आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं । गुरु से

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निरंतरता

20 जुलाई 2016
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निरंतरता सीखनी चाहिए। जब तक आप कोई संकल्प लेकर उसमें निरंतरता नहीं रखेंगे उसका अच्छा प्रभाव भी नहीं मिलेगा और संकल्प भी अधूरा रह जाएगा। मान लो आपन संकल्प लिया कि कल से मैं प्रतिदिन आधा घंटा व्यायाम करूंगा। आपने अपने संकल्प के अनुसार प्रारम्भ भी कर दिया पर किसी न किसी कारणवश आप नागा करने लगे। ऐसा करन

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चरित्र से व्यक्तित्व का विकास होता है!

21 जुलाई 2016
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चरित्र व्यक्ति की  मौलिक विशेषता व उसके द्वारा ही निर्मित होता है। चरित्र से व्यक्ति के निजी दृष्टिकोण, निश्चय, संकल्प व साहस के साथ-साथ बाह्य प्रभाव भी समिश्रित रहता है। परिस्थितियां सदैव सामान्य स्तर के लोगों पर हावी होती हैं। मौलिक विशेषता वाले लोग नदी के प्रवाह के विपरीत मछली सदृश निज पूंछ के बल

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सफलता हमारे पास होगी!

24 जुलाई 2016
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अनेक लोग अपना कार्य बीच में ही छोड़कर बैठ जाते हैं जबकि उन्हें सफलता मिलने वाली होती है। मन में करो या मरो की भावना जाग्रत रखने की भावना इनमें होती तो वे सफलता के शीर्ष पर होते। जो सफलता मिलने के पूर्व ही कार्य छोड़ देते हैं वे कभी आगे नहीं बढ़ सकते हैं। ऐसा उन्हीं के साथ होता है जिनके मन में स्वार्

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सौभाग्यशाली कौन बनता है?

26 जुलाई 2016
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अवसर का सदुपयोग ही भाग्य है।भाग्य का सदुपयोग सफलता है। जीवन को सफल वही बना पाता है जो प्राप्त अवसरों का उपयोग करने हेतु पूर्ण तत्परता सहित प्रस्तुत रहता है। प्रायः अवसर सभी के समक्ष आते हैं पर हम उन अवसरों को पकड़कर उपयोग में लाने के लिए सजग नहीं होते हैं। सच्चाई से कार्य करने वाले, पूर्ण समर्पण भाव

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रचनात्मकता

10 अगस्त 2016
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व्यक्ति की रचनात्मक प्रवृत्ति तब अधिक निखर कर आती है जब वह मुक्त होकर सोचता है। मुक्त सोच के अनुसार कुछ नया करने का प्रयास करने पर भी रचनात्मकता आती है। अपनी मुक्त सोच को अपनी रचनात्मक रुचि के अनुसार विकसित करें। ऐसा करने से आपके कार्य में नवीनता होगी और लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करने में भी 

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विजयादशमी

11 अक्टूबर 2016
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दीपावली

30 अक्टूबर 2016
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दीपपर्व सभी को मंगलमय हो!

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नववर्ष मंगलमय हो!

1 जनवरी 2017
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नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं

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मृत्‍यु के समय क्‍या साथ जाता है

3 मई 2017
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मृत्‍यु के समय क्‍या साथ जाता है (MRt‍yu ke samay k‍yaa saath jaataa hai)इस वीडियो में यह बताने का प्रयास किया गया है कि मृत्‍यु के समय क्‍या साथ जाता है। मृत्‍यु के समय क्‍या साथ जाता है (MRt‍yu ke samay k‍yaa saath jaataa hai) - YouTu

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क्‍या दान पाप नाशक होता है

4 मई 2017
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क्‍या दान पाप नाशक होता है (K‍yaa daan paapanaashak hotaa hai)इस वीडियो में यह बताने का प्रयास किया गया है कि क्‍या दान पाप नाशक होता है। क्‍या दान पाप नाशक होता है (K‍yaa daan paapanaashak hotaa hai) - YouTube

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विश्‍व योग दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं (योग की सार्थकता कब है)

21 जून 2017
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विश्‍व योग दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं (योग की सार्थकता कब है)आज 21 जून विश्‍व योग दिवस है। इस वीडियो में विश्‍व योग दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं देते हुए एक सन्‍देश दिया गया है। इस सन्‍देश का अनुसरण करने पर ही योग की सार्थकता है। यदि अभी तक आपने हमारे चैनल को सबस्‍क्राईब नह

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माईग्रेन से राहत कैसे पाएं

14 जुलाई 2017
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माईग्रेन से राहत कैसे पाएं इस वीडियो में यह बताने का प्रयास किया गया है कि माईग्रेन से राहत कैसे पाएं। यदि अभी तक आपने हमारे चैनल को सबस्‍क्राईब नहीं किया है तो अवश्‍य करें और नयी ज्ञानवर्धक, प्रेरणास्‍पद् और मनोरंजक वीडियो की जानकारी पाएं।Share, Support, Subscribe!!!Sub

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भारत के राष्ट्रपति की शक्तियां प्रत्‍येक नागरिक को ज्ञात होनी चाहिएं

19 जुलाई 2017
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26 जनवरी, 1950 को संविधान के अस्तित्व में आने के साथ ही देश ने लोकतांत्रिक गणराज्य का दर्जा प्राप्‍त किया। गणराज्य का जो प्रधान निर्वाचित होगा उसको राष्ट्रपति कहा जाता है। संविधान के अनुसार भारत का एक राष्ट्रपति होगा जोकि संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों

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एसीडिटी कैसे ठीक करें

27 जुलाई 2017
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एसीडिटी कैसे ठीक करेंआज मंगलवार है और प्रत्‍येक मंगल को सेहत संबंधी चर्चा करेंगे। आज इस वीडियो में यह बताने का प्रयास किया गया है कि एसीडिटी कैसे ठीक करें। यदि अभी तक आपने हमारे चैनल को सबस्‍क्राईब नहीं किया है तो अवश्‍य करें और नयी ज्ञानवर्धक, प्रेरणास्‍पद् और मनोरंजक वी

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स्‍वतन्‍त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

15 अगस्त 2017
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स्‍वतन्‍त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं आज मंगलवार है और प्रत्‍येक मंगल को सेहत संबंधी चर्चा करते हैं पर आज स्‍वतन्‍त्रता दिवस होने के कारण आज की वीडियो में आप सबको स्‍वतन्‍त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं दे रहे हैं। आप सबको स्‍वतन्‍त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। यद

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उदर विकार नाशक चूर्ण

12 सितम्बर 2017
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उदर विकार नाशक चूर्ण आज की वीडियो में यह बताएंगे कि उदर विकार नाशक चूर्ण कैसे बनाएं।यदि अभी तक आपने हमारे चैनल को सबस्‍क्राईब नहीं किया है तो अवश्‍य करें और नयी ज्ञान वर्धक, प्रेरणास्‍पद् और मनोरंजक वीडियो की जानकारी पाएं।Share, Support

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Vayu Mudraa(In Hindi) वायु मुद्रा - YouTube

17 सितम्बर 2017
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वायु मुद्राआज की वीडियो में योग के अन्‍तर्गत वायु मुद्रा की चर्चा करेंगे और यह बताएंगे कि वायु मुद्रा क्‍या है और कैसे बनती है तथा इसको करने से क्‍या लाभ होता है।यदि आपने अभी तक आपने हमारे चैनल को सबस्‍क्राईब नहीं किया है तो अवश्‍य करें और नयी ज्ञानवर्धक, प्रेरणास्‍पद्, म

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किस प्रकार का भोजन लाभदायक होता है

19 सितम्बर 2017
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किस प्रकार का भोजन लाभदायक होता है आज की वीडियो में यह बताएंगे कि किस प्रकार का भोजन लाभदायक होता है।यदि अभी तक आपने हमारे चैनल को सबस्‍क्राईब नहीं किया है तो अवश्‍य करें और नयी ज्ञानवर्धक, प्रेरणास्‍पद् और मनोरंजक वीडियो की जानकारी पाएं।Share, Support, Subscribe!!!Subs

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