सबके पास अपने-अपने प्रश्न होते हैं। फिर, युवाओं के
पास तो और भी ढेर सारे प्रश्न होते हैं - जीवन से संबंधित, प्रेम से संबंधित!
चेतना के
बनते ही, उसके समृद्ध होते ही जो चीज सबसे पहले समझ आती है वह है कि यह संसार बेहद विशाल है और इसमें ज्यादातर स्थितियां अपने आप में प्रश्न ही हैं। ऐसा इसलिए कि हमारे चारों ओर जो भी दिखता, समझ में आता है, उसमें द्वंद्व, विस्मय और रहस्यवाद का बोध स्वतः ही बन जाता है।
संभव है,
आज भी समाज में प्रश्न ही ज्यादा हों और जवाब कम! नहीं, जवाब तो शायद इतने हैं कि उतने सवाल कभी हो ही नहीं सकते। फिर भी, सवाल कभी खत्म नहीं होते क्यूं कि जो जवाब आते हैं या बनाये गये दिखते हैं, वे अपने आप में ही सवालों के बड़े घेरे में खड़े दिखने लगते हैं।
कहा गया है
कि मूर्ख हर जवाब को सही मानकर उसे अपना जवाब मनवाने की जिद करता है जबकि विद्वान कभी भी किसी भी जवाब से संतुष्ट होता नहीं दिखता!
तो, यहां भी
द्वंद्व की ही स्थिति है!
जवाब का
तो पता नहीं, मगर यह न जाने क्यूं लगने जैसा महसूस होने लगता है कि अक्सर, हम सब लोग सवाल तो बहुत सारे करते हैं मगर जवाब पाने को लेकर उतना प्रयास नहीं करते। शायद इसलिए कि सवाल पूछ लेने भर से लोग हमें ‘‘विद्वान’’ समझने लगते हैं। तो
फिर जब विद्ववता का भरोसा हो ही गया तो जवाब के प्रति आसक्ति दिखा कर समय क्यूं बर्बाद करना।
लेकिन, शायद ऐसा है
कि जवाब पाने को लेकर एक भ्रांति है कि जवाब खोजने के लिए भटकना पड़ता है और बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। आम तौर पर, जवाब पाने की चेष्टा को लोगबाग एक ‘एक्सटर्नल’, यानि बाहरी कर्म मानते हैं। मगर, क्या ऐसा नहीं है कि ज्यादातर जवाब हम सबके अंदर ही होता है? जरूरत शायद अंदर तलाशने की भी नहीं है बल्कि अपनी चेतना को सिर्फ सहज-सरल-सुगम बनाने की है। फिर सवाल अपने आप में जवाब की ओर खेंच कर ले जाता दिखेगा!
दरअसल, कहते हैं, किसी समस्या का
समाधान, खुद समस्या में ही निहित होता है। समाधान, समस्या का ही दूसरा पहलू होता है। अगर चेतना का बोध बदल लें तो समस्या स्वयं ही समाधान का रास्ता बता देती है। जैसे, लोग कहते हैं, मैं बहुत मोटा हो गया हूं या मोटी हो गई हूं, कैसे दुबली हो पाउंगी? क्या इस सवाल का जवाब सवाल में ही नहीं है? जैसे मोटे हुए हैं, उसका उल्टा कर लेने से दुबले हो सकते तो हैं। हां, रास्ते थोड़े टेढ़े-तिरछे हो सकते हैं मगर रास्ता तो वही है। पटना से दिल्ली जैसे गये थे, तो लौटने का रास्ता तो अमूमन वही श्रेयस्कर है।
मगर, चेतना को
सहज-सरल-सुगम कर पाना शायद सबसे कठिन काम है। यही तो नहीं हो पाता, बाकि सब शायद हो भी जाये। इसलिए, आसान जवाब हमें मिलता नहीं और आसान जवाबों के प्रति हमारी आसक्ति भी नहीं बन पाती। फिर, सदियों की बीमार सोच भी है कि बिना प्रयास के अगर कुछ मिल जाये तो वह किसी काम की होती ही नहीं। बाहर दिखने वाली समस्या का समाधान अगर अंदर ही मिल जाये तो शक होता है कि यह किसी भी सूरत सार्थक हो ही नहीं सकती!
शायद 3000 साल पहले, योगदर्शन में कहा गया है-
‘‘अपने से बाहर किसी भी सत्य वा स्थिति का न ही कोई अस्तित्व है न ही सार्थकता’’। आज
मार्डन विज्ञान भी चेतना के सत्य को प्रतिपादित करता हुआ यही कहता है। मगर, हम मानते नहीं!
मैं, मैं-बोध और
मैं-बोध के ईगो की हर बात मानते-मनवाते हैं, मगर मैं की, मैं के चेतना की मूलभूत मैकेनिज्म को अपनी सहज-सरल-सुगम स्वीकार्यता के दायरे में नहीं लाते। ऐसा क्यूं?