... एक तरह से देखा जाये तो ये काम पशु उत्पीड़न के अंतर्गत आता हैं क्यूंकि जब तक गाय ने हमें दूध दिया तब तक उसे हमने पाला लेकिन जब वो बूढी हो गयी तो उसे कसाई को दे दिया. ऐसे ही बैल जब तक जवान और स्वस्थ रहता है तब तक लोग उसे पालते हैं और जैसे ही वो बूढ़ा होता हैं तो उसे बेकार समझ कर या तो छोड़ देते हैं या कसाई के हाथों (Human civilization and animal) में दे देते हैं. ये तो हो गयी गांव की बात लेकिन अगर हम शहरों की बात करें तो वहां तो हालात और भी ख़राब हैं. शहरों में लोग सुबह -सुबह गायों को खुल्ले छोड़ देते हैं ताकि वो दिनभर घूम-घूम के इधर-उधर से अपना पेट भरे, और शाम के समय वापस आ के दूध दे. लोगों के द्वारा पॉलीथिन में रख कर फेंका गया खाना जो कि कई पशु पॉलीथिन सहित ही खा लेते हैं, जिनसे उन्हें गम्भीर बीमारियां हो जाती हैं और असमय ही उनकी मौत हो जाती है. वैसे तो पशुओं के लिए हमारे देश में तमाम एनजीओ काम करते हैं फिर भी इनकी दशा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया हैं. कुछ ही दिनों पहले उत्तराखंड के 'शक्तिमान घोड़े' के ऊपर हुए अत्याचार को लेकर काफी हंगामा मचा था, क्योंकि ये मामला था ही इतना संवेदनशील! सरेआम पुलिस के घोड़े की इतनी पिटाई की जाती है कि उसकी टांग टूट जाती है और इलाज के बावजूद घोड़ा मर जाता है. इसके लिए सम्बंधित दोषी व्यक्ति की सोशल मीडिया पर खूब खिंचाई भी हुई थी, लेकिन यह मामला पशुओं पर अत्याचार का एक प्रतीक बन गया और अभी ताजा मामला है बिहार का जहाँ सरकार के आदेश पर 200 नीलगायों को गोली मारी गयी है. इसको ले कर भी तमाम संगठनों के साथ महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने मोर्चा खोल दिया है. जाहिर है यह एक ऐसा मामला है जो बेहद क्रूर है, वहीं बिहार सरकार का तर्क है कि नीलगायों की वजह से किसानों की फसलों को हर साल भारी नुकसान होता है, इसलिए इन्हें मारना आवश्यक हो गया था. इसके जवाब में मेनका गांधी का कहना है कि आज नीलगाय मारा है, कल सुरक्षा के नाम पर शेर और हाथी मारे जायेंगे. देखा जाये तो दोनों के तर्क कुछ हद तक ...