shabd-logo

मेहनतकश के सीने में

23 जून 2016

243 बार देखा गया 243

कितना कम सो पाते हैं वे
यही कोई पांच-छः घंटे ही तो
यदि हुई नही बरसात
पड़ा नही कडाके का जाड़ा
तो उतने कम समय में वे
सो लेते भरपूर नींद
बरखा और शीत में ही
अधसोए गुजारते रात
उनसे पहले उठती घरवालियाँ
चूल्हे सुलगा पाथती छः रोटियाँ
अचार या नून-मिरिच के साथ
पोटली में गठियातीं तब तक
छोड़कर बिस्तर वे किसी यंत्र-मानुष की तरह
फ़टाफ़ट होते तैयार
और निकल पड़ते मुंह-अँधेरे ही
खदान की तरफ
आखिर बीस कोस साइकिल चलाना है
जुड़े रहते तार उनके इस तरह
कि पहले मोड पर मिल जाते कई संगी
एक राऊण्ड तम्बाखू-चून की चुटकी
होंठ और मसूढ़ों के बीच दबा
पिच-पिच थूकते, जो नागा किया उसके बारे में
अंट-शंट बतियाते, पैडल मारते तय करते दूरियां
उन्हें नही मालूम कि प्रधान-मंत्री सडक योजना क्या है
वर्ना इन पथरीली पगडंडियों पर आदिकाल से
यूँ ही नही चलना पड़ता उन्हें
छोटे नाले-नदी, जंगल-टीले पार करते-करते उग आता सूरज
और उन्हें तब तक दिखलाई देने लगता कोयला-खदान के चिन्ह
रात पल्ली से लौटते श्रमिक मिलते तो राम-राम हो जाती
एक तसल्ली भी मिलती कि खदान चालू है
काम मिल ही जाएगा,
बिना कामनही लौटना पड़ेगा उन्हें…
वे खदान पहुँचते हैं तो
बड़ी आसानी से कोयले के ढेर में घुल-मिल जाते हैं

article-image

साभार google से

ऐसे दीखते हैं जैसे हों कोयला की तराशी हुई चट्टानें
जो ये जानते ही नही कि उनमे छुपी हुई है बिकट आग
कि उनमे छुपा है बिजली बनाने का तिलस्म
कि उनमे पेवस्त है स्टील बनने का रसायन
वे नही जानते कुछ भी
सिवाय इसके कि इस जनम यही लिखा उनके भाग में
और भाग के लिखे को कौन मिटा सकता है…
वे नही जानते कुछ भी
सिवाय इसके कि भगवान जिसे चाहे देता दुःख-पीड़ा
और जिसे चाहे देता सुख-सुविधाएं अपार
लेकिन मुंह अँधेरे इन साइकिल चालकों में
एक भोले है, एक भूपत है, एक गंगा है
जिनके पास सवाल ही सवाल हैं
और बुज़ुर्ग मजदूर सुमारु उन्हें समझाता रहता
भर-रास्ता उन्हें डांटता और सबर करने को कहता
लेकिन भोले, भूपत और गंगा के सवाल
पूरब में उगते सूर्य की आभा में दमक उठते
और एक नया रास्ता सूझता उन्हें
उस रास्ते में दीखते अनगिन ठोकर, अंतहीन यातनाएं
और फिर दूर-दूर तक अँधेरा ही अँधेरा…
क्या इसका मतलब ये समझा जाए
कि खदान पहुंचते ही
उनके मन में उठे सवालात दफ़न हो गए
वे नहीं जानते कि सवाल जो उठा है मन में
ये पहली बार नही आया है
इससे पहले जाने कितनी पीढियां
खत्म हो गईं इन सवालों से टकराते-जूझते
इसी प्रयास में कि इस लड़ाई को
जल्द ही जीत लेंगे वे
और सूरज आसमान पर उगता रहा
चाँद निकलता रहा
धरती घूमती रही
पेड़-पौधे-फूल उगते-कटते रहे
और हर बार मेहनतकश के सीनों में
यूँ ही सवाल पनपते और दफ़न होते रहे…..

शिशिर मधुकर

शिशिर मधुकर

आंचलिक जीवन का सत्य आपने भावुकता से उकेरा है.

24 जून 2016

14
रचनाएँ
hamnafas
0.0
समय के द्वार पर दस्तक
1

अच्छा हुआ मैं किसान ना हुआ, सपने सच नही होते...किसान पर कविता - CGNet Swara

17 अप्रैल 2016
0
5
0

CGnet Swara is a platform to discuss issues related to Central Gondwana region in India. To record a message please call on +91 80 500 68000.

2

प्रसिद्ध चित्रकार कवि कुंवर रवीन्द्र सिंह (के रवीन्द्र ) जी, उनकी किताब 'रंग जो छूट गया था' के साथ मैं

17 अप्रैल 2016
0
4
0

CGnet Swara is a platform to discuss issues related to Central Gondwana region in India. To record a message please call on +91 80 500 68000.

3

जनकवि विद्रोही

17 अप्रैल 2016
1
5
0

और क्या ये उस आत्मा को सही श्रद्धांजली नहीं है...जब इतनी रात बीतगई और फिर भी मैं जाग हूँ? इतनी थकावट है फिर भी मैं व्यथित जाग  रहा हूँ?  सोचता हूँ कि यदि मैं पागल नहीं हूँ तो फिर पागलपन होता क्या है? एक पागल और (अ)पागल में क्या अंतर होता है? क्या संसार (अ)पागलों से संचालित होता है? यानी जो पागल नहीं

4

आदमी और आदमियत के सवालों से जूझती कविताएँ

29 अप्रैल 2016
0
3
0

देश के प्रमुखचित्रकार-कवि कुंवर रवीन्द्र सिंह या के. रवीन्द्र की कविताएँ ‘रंग जो छूट गया था’के रूप में आई हैं. छोटी-छोटी कविताओं में कवि आदमियत को बचाए रखने के लिए चिंतितनजर आते हैं. ये आदमी निस्संदेह पंक्ति का आखिरी आदमी ही है जिसकी जिजीविषा औरजीवन-संघर्ष को बड़ी बेचैनी से कवि महसूस करता है. ये आदमी

5

बदला लेने का पढाई

12 मई 2016
0
1
0

वे जो भी थे, जैसे भी थे वे उस समय वैसे क्यों थे इन सवालों का जवाब क्यों खोजा जा रहा अब उनके अपराधों की सुनवाई हुई नहीं क्यों तब क्यों नहीं तय की गई सज़ावे जो भी थे, वे हम नहीं थे वे जो भी थे, वे तुम नहीं थे बेशक उस समय हम नहीं थे बेशक उस समय तुम नहीं थे फिर क्यों पलटे जा रहे पन्ने उस समय के जब तुम नह

6

वंचित जन का अभिनन्दन

13 मई 2016
0
3
0

जिसकी मर्ज़ी साथ चले औजिसके मन में हो कट जाए बेमन से मिलने से बेहतरखुद ही रस्ते से हट जाए।लम्बा रस्ता, ऊबड़ खाबड़ चारों और उड़े है धूल छाँह तलाशे व्याकुल आँखें जित देखो तित उगे बबूल ।फिर भी जो भी साथ चल रहे उनका अभिषेक, उनको नमनभूखे प्यासे अलख जगाते वंचित जन का हो अभिनन्दन।।।।

7

दलित विमर्श की त्रैमासिकी 'तीसरा पक्ष'

16 मई 2016
0
5
0

शिवनाथ चौधरी 'आलम' का पैंतालिस पृष्ठीय आलेख अंक को पठनीय, विचारणीय और संग्रहणीय बनाता है. आज देश भर में सोशल मीडिया और प्रिंट मीडिया में मनुवाद, अम्बेडकर, दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक जैसे शब्द उछाले जा रहे हैं और इनपर अलग-अलग खेमों से जाने कितने विमर्श और निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं. तीसरा पक्ष के संप

8

खनिक

20 मई 2016
0
3
1

कोयला खदान की आँतों सी उलझी सुरंगों में पसरा रहता अँधेरे का साम्राज्यअधपचे भोजन से खानिकर्मी इन सर्पीली आँतों में भटकते रहते दिन-रात चिपचिपे पसीने के साथ...तम्बाकू और चूने को हथेली पर मलते एक-दूजे को खैनी खिलाते सुरंगों में पिच-पिच थूकतेखानिकर्मी जिस भाषा में बात करते हैं संभ्रांत समाज उस भाषा को अस

9

पहचान : उपन्यास अंश

31 मई 2016
0
0
0

यहकोतमा और उस जैसे नगर-कस्बों में यह प्रथा जाने कब से चली आ रही है कि जैसे ही किसी लड़के के पर उगे नहीं कि वह नगर के गली-कूचों को ‘टा-टा’ कहके ‘परदेस’ उड़ जाता है।कहते हैं कि ‘परदेस’ मे सैकड़ों ऐसे ठिकाने हैं जहां नौजवानों की बेहद ज़रूरत है। जहां हिन्दुस्तान के सभी प्रान्त के युवक काम की तलाश में आते है

10

सनूबर

31 मई 2016
0
1
0

सनूबर  धारावाहिक उपन्यास अध्याय : एक एक लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं कि फिर सनूबर का क्या हुआ...आपने उपन्यास लिखा और उसमें यूनुस को तो भरपूर जीवन दिया. यूनुसके अलावा सारे पात्रों के साथ भी कमोबेश न्याय किया. उनके जीवन संघर्ष को बखूबीदिखाया लेकिन उस खूबसूरत प्यारी सी किशोरी सनूबर के किस्से को अधबीच ही छ

11

अस्त-व्यस्त

2 जून 2016
0
5
0

काम का कोई अंत नही समय की कोई सीमा नही सब कुछ अस्त-व्यस्त ऐसे में कितना मुश्किल है बचा पाना समय खुद के लिए अपनों के लिए कुल मिलाकर टालते जाता हूँ अपनी ज़रूरतें अपनी ख्वाहिशें और फिर से भिड जाता हूँ एक बेहतर कल की उम्मीद के साथ जाने वो कल कब आएगा ----

12

जहर की खेती

16 जून 2016
0
1
1

ज़हर की खेतीफिर फिर होतीबोने वाले, शातिर इतनेऔर बहुत माहिर हैं देखोक़ानून बनाकर ज़हर बो रहेमकसद उनका. लोकतन्त्र मेंखूब  उगे  वोटों की फसलदेखो तो अपने मकसद मेंबेशरम हुए जा रहे सफल....भोले-भाले  आम  जन  को  जाने कब  आएगी  अकल.....

13

मेहनतकश के सीने में

23 जून 2016
0
3
1

कितना कम सो पाते हैं वेयही कोई पांच-छः घंटे ही तोयदि हुई नही बरसातपड़ा नही कडाके का जाड़ातो उतने कम समय में वेसो लेते भरपूर नींदबरखा और शीत में हीअधसोए गुजारते रातउनसे पहले उठती घरवालियाँचूल्हे सुलगा पाथती छः रोटियाँअचार या नून-मिरिच के साथपोटली में गठियातीं तब तकछोड़कर बिस्तर वे किसी यंत्र-मानुष की तर

14

तीसरा पक्ष

12 अगस्त 2016
1
1
0

तीसरा-पक्ष : अंक 35अप्रेल-जून 2016 संपादक : असंगघोष, शिवनाथ चौधरी संपर्क : ३७३४/२३ए, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर मप्र ४८२००२ ०७६१२६४८६८६पृष्ठ १०४ एक प्रति : 20/- वार्षिक : 80/- आजीवन : १०००/-दलित लेखन की त्रैमासिकी 'तीसरा पक्ष' इसलिए एक ज़रूरी पठनीय लघुपत्रिका है कि इसमें घोर अंधकार में मशाल का

---

किताब पढ़िए