यूं तो इस रंग-रंगीली दुनिया में भांति भांति के जीव, जन्तु, वनस्पति इत्यादि भोजन के लिये पहले से ही उपलब्ध हैं. प्रतिदिन कोई न कोई शिकारी किसी जीव का शिकार करता है और अपनी क्षुधानिवृत्ति कर अगले दिन नये शिकार की तलाश में जुट जाता है. पर जैसे-जैसे मानवीय मस्तिष्क ने उन्नति की, रोज रोज बाहर शिकार करने जाना एक दुविधा, एक कठिनाई लगने लगी. "आवश्यकता आविष्कार की जननी है", कहावत को साकार करते हुए जननियों और विस्तृत रुप से जनानियों ने ”पति” का आविष्कार किया. यानि वह प्राणी जो अपने आप शिकार होने के लिये तत्पर हो और धारावाहिक रुप से प्रतिदिन जीवनपर्यन्त बिना किसी प्रतिरोध के सफल शिकार होता रहे. यहां उल्लेखनीय तथ्य है कि विधाता ने ”वनस्पति” का निर्माण किया तथा विधाता की सबसे उत्कृष्ट (?) रचना नारी ने ”पति” का. वैसे भी वनस्पति और पति में अधिक अंतर नहीं है. दोनों ही अपने चरने वालों का प्रतिरोध नहीं कर पाते.
पति बनने के बाद पुरुषों को लगा कि वे ठगे गये, पर बेचारे, पति शब्द के मोह से मुक्त होने का साहस नहीं कर पा रहे थे. वैसे भी पति और साहस दो विपरीत ध्रुवों के समान है. ऐसे में कतिपय मौलिक सोच वालों ने पतिपने का विस्तार किया और कुछ नये पति भी बना डाले जैसे लखपति, भूपति, धनपति, राष्ट्रपति आदि.
यूं, करोड़पति, लखपति, बन जाने में अतिरिक्त सुविधा है कि आप जब चाहें इस पतिपने को लतिया सकते हैं कि हटाओ, हम नहीं रहते करोड़पति, लखपति. इस्तीफा देकर राष्ट्रपति पद भी त्यागा जा सकता है. पर जो बेचारे मात्र पति हैं और जिनकी सेवा में यह लेख समर्पित है, वे इस सुविधा से नितान्त वंचित हैं. एक बार जो पतियाये तो उन्हें जीवन भर पतियाना पड़ता है, यानि पति बने रहना पड़ता है. कई चेहरे देखकर तो लगता है कि ये पैदा ही पति हुये थे और पति ही मर जायेंगे. बेचारे, मानुस जन्म मिला भी तो पति हो गये और होते ही चले गये. हे पति, हा पति, हो पति.
अक्सर तो पुरुष जानबूझ कर पति बनता है. बनते समय अकड़ता है, गर्व से ऐसे फूल जाता है कि कमीज, शेरवानी, सूट के बटन त्राहि-त्राहि करने लगते है. और जब विवाह की वेदी पर तलवार थामे चढ़ता है तो कई भुक्तभोगी पतियों के मुंह से आह निकल जाती है कि हाय, यह विवाह वेदी नहीं बलिवेदी है जहां ”या देवी सर्वभूतेषु” पत्नी के रुप में संस्थित होकर इसकी बलि लेने वाली है. ”हे ईश्वर, इसे क्षमा करना, यह भी नहीं जानता कि यह क्या कर रहा है ?”
देवनागरी लिपि में तो ”पति” शब्द से ही एक दयनीयता झलकती है, एक विरोधाभास टपकता है तथा एक अंतर्द्वंद का परिचय मिलता है. पति के अक्षरों पर गौर करें तो ”प” एक सीना फुलाये, गर्व से तनकर खड़े रणबांकुरे सा लगता है पर ”इ” की मात्रा से गुजरते ही ”त” से सामना हो जाता है. ”त” बड़ा बेचारा वर्ण है. ऐसा लगता है मानो ”प” को उल्टा लटका दिया हो. जहां ”प” में दर्प का भाव है, वहीं ”त” का दर्प धूल धूसरित हो चुका लगता है. ”प” आत्मविश्वास से भरा, सर उठाये, महत्वाकांक्षा से ओतप्रोत है, तो ”त” विनीत भाव से नत ग्रीवा, घुटनों में मुंह छुपाये औंधा पड़ा लगता है. वाह रे भाषा, एक ही शब्द में पति की सारी दुर्दशा का यथार्थ चित्रण हो जाता है.
जैसे शोषित शोषक के बिना अधूरा है, समाजवाद पूंजीवाद के बिना अधूरा है तथा शिकार शिकारी के बिना अधूरा है वैसा ही कुछ पति भी पत्नी के बिना अधूरा है. पर यह भी क्या वैचित्र्य है कि पति में जो ”त” बेचारा लगता है , ”पत्नी” में उसकी भूमिका बदल जाती है. ऐसा लगता है ”न” ने अपने हाथ में तलवार पकड़ी है. जरा सोचिये, यहां आधा ”त” इतना घातक लग रहा है तो पूरा ”त” तो पति का ”पतन” ही कर देता.
पति पत्नी का संबंध भी विचित्र है, इसमें कहीं संतुष्ट असंतोष है, तो कहीं असंतुष्ट संतोष है. कहीं स्वीकृत असहमति है, तो कहीं अस्वीकृत सहमति है. वैसे एक साधारण तरीके से कहा जा सकता है कि यह संबंध असहमति-सहमति का है. एक आदर्श पति को चाहिये कि वह आरंभ में अपनी पत्नी से असहमत हो, पर थोड़े विरोध के बाद सहमत हो जाये. चूंकि पूर्ण सहमति नैराश्य का प्रतीक है, उसमे अकर्मण्यता का भाव है अतः थोड़ी असहमति दिखा देने से पौरुष को खुराक मिलती रहती है, और पतिपने के अहं के गुब्बारे में थोड़ी हवा भर जाती है. पर जैसा कि ज्ञानी जनों ने कहा है, असहमति का स्थायी भाव उचित नहीं, यह विद्रोह का पथ है जो पतियों के लिये सर्वथा वर्जित है. फिर गृहस्थी के बबूल वन में अहं के गुब्बारे का अधिक देर फूला रहना भी ठीक नहीं है. फूट जाने का खतरा मंडराता रहता है. अगर एक बार गुब्बारा फूट गया तो फिर कभी फूल नहीं सकेगा, सदैव पिचकावस्था में ही लीन रहेगा. अतः समझदारी इसी में है कि यदा-कदा अहं का गुब्बारा फुलाया, थोड़ा असहमत हो गये, पुनः गुब्बारा पिचका लिया और समर्पण कर दिया. गुब्बारा सुरक्षित अपनी जेब में, कांटें भी यथा स्थान.
कई सुखी गृहस्थियां इसी खेल पर आधारित हैं. खुर्राट पत्नियां तो यह खेल समझने भी लगीं हैं. वे भी यदा कदा अहं के गुब्बारे को एक निश्चित सीमा तक फूलने का अवसर दे देतीं हैं. वे जानतीं हैं कि असहमति का यह क्षणिक भाव कूकर की सीटी है जो दाल पकने की घोषणा करती है. असहमति की हवा थोड़ी थोड़ी न निकली तो एक दिन कूकर फट सकता है, सफल पत्नीत्व खतरे में पड़ सकता है अतः बजने दो सीटी. एक बार जोर से शूंऽऽऽऽ बजेगा और फिर सारी हवा निकल जायेगी.
कमोबेश, यह चूहे बिल्ली का खेल हर घर में खेला जा रहा है. हर चूहा नुमा पति अंतिम रूप से बिल्ली रूपेण पत्नी की दया पर ही निर्भर है. कभी कभी कोई बिल्ली थोड़ी छूट दे देती है, चूहे को जरा छटपटाने देती है, बेचारे चूहे को जरा सा मुक्ति का अहसास होता है. बिल्ली फिर से चूहे पर अपना पंजा रख देती है और अदा से मुस्कुराती है. कई चूहे तो इस मुस्कुराहट पर ही जान दे देते हैं और सफल पति की पदवी का कफन ओढ़ लेते हैं.
वैसे मानव सभ्यता के आरंभ से ही कई प्रश्न हमारी मेधा का नियमित पीछा कर रहे हैं जैसे, मानव पूंछ व सींग विहीन क्यों है ? अगर पूंछ होती तो पैंट कैसे पहनी जाती या सींग होते तो कंघा कैसे किया जाता, वगैरह वगैरह. पर विवाह होने के बाद मुझे भी समझ में आने लगा कि सूक्ष्म रूप में सींग व पूंछ हम सभी के साथ अभी तक चस्पा हैं, तभी तो हर पत्नी पति को सींग मारती प्रतीत होती है तथा हर पति पत्नी के आगे दुम हिलाता सा नजर आता है. यूं भी गृहस्थी के कलेवर में पति की भूमिका पूंछ की ही है. पूंछ जंतु का संतुलन साधने का साधन है तथा यहां बेचारा पति भी गृहस्थी का संतुलन साधने के लिये इधर उधर होता रहता है. पूंछ की ही भांति पति भी भिन्न भिन्न् आकार प्रकार व रंग के पाये जाते हैं. कुछ लोमड़ी की पूंछ से झब्बेदार, कुछ चूहे की पूंछ से पतले, कुछ खरगोश की पूंछ से रेशमी नाजुक तो कुछ छिपकली की पूंछ जैसे पुष्ट पर गिलगिले. जैसे जंतु जगत में पूंछ सामाजिक हैसियत का प्रतीक है, पति भी किटी पार्टियों में एक प्रतीक मात्र बन कर रह गया है. पति का (पत्नी विहीन) स्वतंत्र अस्तित्व छिपकली की कटी दुम से अधिक महत्व नहीं रखता. जरा देर दिशाहीन, संभ्रमित सा छटपटाता है और फिर निष्प्राण, निस्तेज हो जाता है.
पति व पत्नी द्वंद समास का आभास देते हैं. जैसे हार-जीत, रात-दिन, काला-गोरा आदि. इन सभी में गौण पक्ष पहले प्रकट होता है व गुरु पक्ष बाद में. पति-पत्नी भी अपनी प्रकृति के अनुसार विपरीत ही पाये जाते हैं. पति को यदि हरा रंग पसंद है तो पत्नी को लाल. पति को चाय पसंद है तो पत्नी को कॉफी. पति ऊटी जाना चाहेगा तो पत्नी मनाली. और जैसा कि पूर्व में भी इस शाश्वत सत्य का उद्बोधन हो चुका है, अंततः पति समर्पण कर देता है , ले भागवान, जैसी तेरी मर्जी ...”. तत्समय वह ईसा की सलीब पर लटकी मुद्रा सा प्रतीत होता है. दोनों हाथ फैले हुए, आंखों में स्थायी खालीपन व चेहरे पर दार्शनिकों जैसी लाचारी.
यह लेख मैंने भी अपनी पत्नी को प्रसन्न करने की असफल कोशिश के रूप में ही लिखना आरंभ किया था. उपसंहार तक पंहुचते पंहुचते पत्नी को पढ़ाना चाहा. मुझे आशा थी कि मेरे विनोदवृत्ति में लिखे लेख से पत्नी प्रसन्न होगी, गुदगुदायेगी और मैं उसकी प्रागैतिहासिक कालीन मुस्कुराहट देख सकूंगा, फिर से सफेदी को अग्रसर केशघटाओं से बिजलियां गिर सकेंगीं और मैं फिर से अतिरिक्त स्वास्थ्य को प्राप्त गालों पर लालिमा खोज सकूंगा. पर हाय रे पत्नी की व्यावहारिकता ! लेख पढ़कर उन्होंने बड़ी अदा से कहा , ”सुनो, यदि यह लेख कहीं छप-वप जाये तो पारिश्रमिक से मेरे लिये एक बढ़िया सी साड़ी ला दोगे, नाऽऽ”. मित्रों, यह ”नाऽऽ” मुझे प्रेम के आरम्भिक दिनों से आजतक शाश्वत रूप से सदैव महंगी ही पड़ी है.
फिर भी, अंत में मैं इस लेख के माध्यम से उन सभी पति-पत्नियों को धन्यवाद देता हूं जो क्रमशः सर्वहारा और बुर्जूआ वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हुए अपने दाम्पत्य की नीरसता को झगड़े, ताने, उलाहने, धमकी (समय, स्थान, कालानुसार मैके जाने की, जान देने की) इत्यादि नाना प्रकार की वीरोचित रसिक प्रवृत्तियों से भंग करते हैं. इन अनुष्ठानों से पड़ोसियों का मनोरंजन तो होता ही है, साथ ही उन्हें भी इसी तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन व भागीदारी की प्रेरणा भी मिलती है. कुल मिलाकर समाज में एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण होता है. अतः ऐसे सभी समाजसेवी दम्पत्तियों को सादर श्रद्धांजलि. ओऽम शांतिः, शांतिः, शांतिः !