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प्रकृति, पर्यावरण और हम: कुछ कड़वे प्रश्न और कुछ कड़वे उत्तर

28 जून 2016

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पर्यावरण के सम्बन्ध में चर्चा करते हुए हमने कई पहलू देखे| वन, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संवर्धन के कई प्रयासों पर संक्षेप में चर्चा भी की| कई व्यक्ति, गाँव तथा संस्थान इस दिशा में अच्छा कार्य कर रहे हैं| लेकिन जब हम इस सारे विषय को इकठ्ठा देखते हैं, तो हमारे सामने कई अप्रिय प्रश्न उपस्थित होते हैं| पीछले लेख में जैसे बात की थी कि एक पेड़ के काटने का मार्केट में मिलनेवाला दाम एक पेड़ लगाने के लाभ से कई गुणा अधिक है| इसलिए हम चाहे कितने भी पेड़ लगाए या वन संवर्धन करें, उनके टूटने की गति उससे अधिक ही रहेगी| इस लेख में ऐसे ही कुछ कड़वे प्रश्न और कड़वे उत्तरों की बात करते हैं|


जैसा कि हमने देखा आज जो देश पर्यावरण के सम्बन्ध में अग्रणि हैं वे ऐसे ही देश हैं जहाँ मानवीय बर्डन प्रकृति पर कम है| अर्थात् अपार प्राकृतिक सम्पदावाले कम आबादी के देश| इसी तथ्य में एक अर्थ में इस पूरी समस्या की जड़ और उसका समाधान भी है| हमारी आबादी और उसका प्रबन्धन कैसे करना यह एक बहुत अप्रिय प्रश्न है| और उल्लेखनीय है कि कोई इस पर बात भी करना नही चाहता है| उल्टा आज तो हर समाज और हर राजनेता अपने अपने समाज के लोगों की संख्या बढ़ाने पर ही जोर दे रहे हैं| लेकिन अब स्थिति बहुत ही विपरित हो रही है| एक समय में 'हम दो हमारे दो' या 'हम दो हमारा एक' ऐसी बातें ठीक थी| आज के समय में प्रकृति पर इन्सान का बर्डन और इन्सान का इन्सान पर होनेवाला बर्डन देखते हुए वस्तुत: आज ऐसे कपल्स का सम्मान किया जाना चाहिए जो माता- पिता नही बनना चाहते हैं| सिर्फ सम्मान नही, सरकार द्वारा ऐसे लोगों के लिए इन्सेन्टिव भी शुरू किया जाना चाहिए| क्यों कि अगर इसी क्रम से आबादी बढ़ती रही तो आनेवाली पिढियों को कुछ भी नही मिलेगा| एक ज़माने में जैसे आक्रमक ताकतें सारी दुनिया पर आक्रमण करती थी, उसी तरह इन्सान पूरी धरती पर आक्रमण करता जा रहा है| इसलिए अगर कुछ ठोस परिवर्तन लाना हो तो इन्सान के द्वारा प्रकृति पर हो रहे आक्रमण को रोकना ही होगा और उसके लिए जनसंख्या कम करना एक बेहद अहम पहलू है|


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