बस दलपतपुर आकर रुक गई। सवारियों का आवागमन चरम सीमा पर था। बस ठसाठस भरी थी।
लेकिन फिर भी कंडक्टर का आवाज दे-देकर यात्रियों को बुलाना वातावरण में कोलाहल पैदा कर रहा था। एक बूढ़ी औरत के बस के पायदान पर पैर रखते ही कंडक्टर ने सीटी दे दी। कंपकंपाते हाथों से बुढि़या की पोटली सड़क पर ही गिर पड़ी।
‘रुकके भय्या...’ वह बूढ़ी चिल्लायी।
बस रुकी और वह पोटली उठाकर बस में चढ़ गई।
मेरे बराबर में बैठे एक बूढ़े ने जेब से बीड़ी निकालकर जलायी और धुुंआ छोड़ने लगा।
बस एकाएक फिर रुकी और एक नवयुवक नेता बस पर चढ़ा।
कंडक्टर उसे देखते ही उत्साहित स्वर में बोला-‘आईए सरपंच जी! कहां तक जाना है... ? बहुत दिनों में दर्शन हुए...’
बस में चढ़ते हुए नेता जी गर्व से बोले-‘मंत्री जी के पास जाना है...। विकलांग व्यक्तियों के उद्वार के लिए कई योजनाओं पर विचार-विमर्श करना है...।’ ‘अपना-अपना टिकट ले लो...।’ कंडक्टर जोर से बोला।
‘क्या हमसे भी टिकट लोगे...?’नेता जी मुस्कराकर बोले।
‘नहीं नेता जी ! आप मुझ शर्मिन्दा न करें। बस आपकी ही है।’
‘तभी तो बैठने की जगह भी नहीं है। लगता है लखनऊ तक का सफर खड़े होकर करना पड़ेगा।’ नेता जी बोले।
यात्रियों को सुनाते हुए कन्डक्टर उच्च स्वर में कहने लगा-‘सरपंच जी आप बहुत दयावान हैं। विकलांगों के बारे में क्या-क्या नहीं कर रहे हैं ...। ’
उसने सोचा होगा शायद यह सुनकर कोई यात्राी जगह दे दे। कन्डक्टर यात्रियों के पास पहुंचकर टिकट देने लगा।
मेरे बराबर में बैठे बढ़े से बोला-‘कहां जाना है?’
‘इधर बस पनवडि़या तक ही भईया...।’ बूढ़ा बोला।
‘लाओ- दो रुपए।’
‘ लो...भय्या!’
‘ यह तो एक रुपया नब्बे पैसे हैं, दस पैसे और लाओ।’ कन्डक्टर बोला।
‘और नहीं हैं...भय्या! बस इतने...’
कन्क्टर बीच में ही टोकते हुए बोला-‘ पैसे नहीं थे तो बस में क्यों चढ़े...पूछता नहीं तो इतने भी नहीं देते...।’
ऐसा कहकर वह मुड़ा और उसकी दृष्टि नवयुवक नेता पर गई। मुड़कर पुनः बूढ़े से बोला-‘यदि पूरे पैसे नहीं हैं तो खड़े हो जाओ...।’
वह बूढ़ा सहमा सा खड़ा हो गया और कन्डक्टर ने उस नवयुवक नेता को बैठा दिया।
यह देखकर मुझे बहुत गुस आया। लेकिन कुछ न कर सकी। मन में सोचकर रह गयाी-इस बूढ़े ने तो फिर भी कुछ पैसे दिए हैं और यह नेता...!
थोड़ी देर बाद कन्डक्टर ने पनवडि़या के यात्रियों को सचेत करते हुए कहा‘पनवडि़या वाले आगे आ जाओ...।’
तभी बस रुकी और वह बूढ़ा पंगु था, वैशाखी का सहारा लेकर बस से उतर गया।
बस एक झटके से आगे बढ़ गई और मैं स्तब्ध सी मन में सोच रही थी-‘अधिकार किसका है और पा कौन रहा है...।’