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आहार शास्त्र के नियम - 3 -

4 जुलाई 2016

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आहार की व्याख्याए कार्य व महत्व

 

       निरोगत्व व आहार का परस्पर संबंध ध्यान में आने के बाद आहार का अर्थ और उसका महत्व देखते हैं। चरकसंहिता में निरोगत्व यह नियोजित आहार, शांत निद्रा एवं संयम इन तीन बिंदुओं पर आधारित है ऐसा कहा गया है। हम जब आहार का विचार करते हैं तब निरोगत्व के केवल एक ही अंग को देखते हैं यह ध्यान में रखना चाहिए। निरोगत्व के लिए ’आहार’ यह महत्वपूर्ण घटक है यह जानने के बाद हम आहार की व्याख्या देखें-

       शरीर पोषण, संवर्धन हेतु तथा क्षुधा व तृष्णा तृप्ती हेतु तथा प्राण रक्षणार्थ जिन बाह्य सृष्ट द्रव्यों की प्राणिमात्र को आवश्यकता होती है उन द्रव्यों को आहार अथवा अन्न ऐसी संज्ञा है। इसी व्याख्या में आहार का शारिरिक कार्य एवं महत्व प्रकट होता है। योगशास्त्र में भी इस व्याख्या को मान्यता देकर उसे अधिक व्यापक किया गया है। पचनेंद्रियों के साथ ही ज्ञानेंद्रिय जो-जो भी ग्रहण करते हैं वे सभी आहार के विषय हैं ऐसा योगशास्त्र मानता है।

     

       अन्न का ’देहधारणात्मक स्वरूप’ शांडिल्य एवं छान्दोग्य उपनिषद् में वर्णित है। छांदोग्य उपनिषद् में अन्न का महत्व बताते हुए कहा गया है कि मानव ने 15 दिवस अन्न सेवन नहीं किया तो उसकी दृष्टि मंद होती है, कर्ण बधीर होते हैं तथा सद्-सद्विवेक बुद्धि लुप्त होने लगती है। परंतु वही मनुष्य फिर अन्न ग्रहण करने लग जाये तो उसे दिखने, सुनाई देने लगता है तथा उसकी विवेक शक्ति पूर्ववत होने लगती है। छांदोग्य उपनिषद् में आहार के लाभ का वर्णन करने वाला एक श्लोक दिया गया है-

आहारः प्राणिनः सद्योबलकृदेहधारकः

आयुस्तेजः समुत्साहः स्मृत्योजोऽग्निविवर्धनः।।

       

आहार प्राणियों को नूतन शक्ति एवं देहधारण करने की शक्ति प्रदान करता है। आहार से ही आयुष्य, तेज, उत्साह, स्मृती, ओज (जीवनीशक्ति), शरीराग्नि अर्थात जठराग्निी की वृद्धी होती है। भोजन का कार्य शरीरवर्धन, क्षतिपूर्ती, शक्तिउत्पादन व तनुरक्षात्मक ऐसा होता है।

 

       आहार से आत्मिक, मानसिक व शारिरिक समाधान मिलता है। अन्न का उपयोग दंड अथवा उपहार रूप में किया जा सकता है। उदाहरणार्थ- विद्यार्थी अभ्यास न करे तो पालक उसे ’आज भोजन नहीं मिलेगा’ इस रूप में दंड देते हैं। दान के सभी प्रकारों में ’अन्न-दान’ यह श्रेष्ठतम दान है क्योंकि किसी अन्य दान के द्वारा मनुष्य मन की तृप्ती संभव नहीं है। जबकी अन्न दान के उपरांत भोजन करने वाला तृप्त हो जाता है। सहभोजन से परस्पर आत्मियता बढ़ती है।

 

मनुष्य का आहार

 

        इस जगत के प्रत्येक प्राणी को आहार (भोजन) की आवश्यकता होती है, देवता भी इससे अपवाद नहीं हैं ऐसा सुश्रुत कहते हैं। अन्न सेवन यह प्राणीमात्र की स्वाभाविक प्रक्रिया है परंतु अन्य प्राणियों व मनुष्य के आहार ग्रहण में विशेष अंतर होता है। मनुष्य का अन्न मुख्यतः रसप्रधान है अतः ’रसना’ को महत्व प्राप्त हुआ है। पदार्थ का स्वाद जिव्हा (रसना) से पता चलता है। पदार्थ स्वादिष्ट हुआ है यह जिव्हा हमें बताती है और ज्यादा खाने का मोह होता है। अतः इस रसना के ही कारण आहार के नियम तोड़े जाते हैं। मूलतः जिव्हा ने केवल स्वाद बताना है कितना खाया जाए यह नहीं। मधुर रस से रक्त वृद्धि, आम्लरस से मज्जा वृद्धि, लवणरस से अस्थि वृद्धि, कटुरस से मेदोवृद्धि, पित्तरस से मांस वृद्धि तो काशायरस से रसमात्रा वृद्धि होती है। परंतु जिव्हा गलती करती है जिसके कारण रोगोत्पत्ती होकर शरीर को पीड़ा होती है। ’6 इंच कि जिव्हा 6 फूट के शरीर को नचाती है’ ऐसा आचार्य विनोबा भावे मार्मिक विवेचन करते थे। जिव्हा का दूसरा नाम ’सूरसा’ भी है। मनुष्य इसी ’सुरसा’ राक्षसी में अटककर आरोग्य के नियमों का घात करते रहता है।

गृह कि गृहिणी अन्नशाला में रमती है अतः ’अन्नपूर्णा’, तो किसान धूप, ठंड, बरसात इत्यादी में खेतों में कठोर परिश्रम कर अन्न उपजाता है अतः ’अन्नदाता’, ऐसा हमारी संस्कृती कहती है।

 

आहार का वर्गीकरण

 

       सामान्यतः आहार का वर्गीकरण अनेक प्रकारों से किया जाता है परंतु भारतीय जीवनशैली में आहार के दो सरल वर्ग वर्णीत हैंै। चरकमुनी के अनुसार- 1. हितकर व 2 अहितकर ऐसे दो वर्ग हैं। हितकर आहार आरोग्य व प्राणों का रक्षण करता है तो अहितकर आहार रोग व मृत्यु का कारण सिद्ध होता है ऐसा चरकमुनी कहते हैं। शरीर के सप्त धातुओं को सम स्थिती में रखने वाला व विषम हो गए धातुओं को समस्थिती में लाने वाला आहार यह ’हितकर’ है। विदेशी पद्धति में स्निग्ध, पिष्टमय, प्रथिन, खनिज, पानी एवं जीवनसत्व ऐसा वर्गीकरण मिलता है जो क्लिष्ट होेने के कारण जनसामान्य को सहजता से समझ नहीं आता है। परंतु हितकर व अहितकर पदार्थ व्यवहारमात्र से पता चल जाते हैं। इस कारण से भी ’भारतीय आहार वर्गीकरण पद्धती’ यह उपयोग मे सहज, सरल सिद्ध होती है।

 

आहार संबंधी सर्वसामान्य नियम

 

       आहार से ही आरोग्य संवर्धन होता है यह विधान सत्य होने पर भी यदि अयोग्य पद्धति से आहार लिया जाए तो रोग होना निश्चित ही है। रोग होने के कई कारण हो सकते हैं। उनमें से अयोग्य आहार यह एक प्रमुख कारण होता है। इसी लिए आहार की अयोग्य पद्धती की स्पष्ट जानकारी होना अत्यावश्यक है। ’आहार संभवः रोगा’ ऐसा मुनीवर तो ’अन्न तारक, अन्न मारक।  अन्न है नाना विकारक’ ऐसा संत हमें बताते हैं। आहार के संदर्भ में एक बिंदु याद रखना अत्यावश्यक है कि ’आहार के नियम पालने मात्र से आरोग्य के सभी साधन साध्य हो गए’ यह धारणा अयोग्य है। प्रायः देखने में आता है कि नियम मालूम हो जाने पर भी उनका प्रत्यक्ष अनुपालन होगा ही ऐसा नहीं होता। आयुर्वेद में इसे ’प्रज्ञापराध’ कहा गया है। आयुर्वेद में ’प्रज्ञापराधो हि मूलं रोगाणाम्’ ऐसा कहा गया है। रोग का मूल कारण प्रज्ञापराध हो तब भी मन के रोग प्रज्ञापराध से ही होते हैं ऐसा विषद् करने वाला एक श्लोक है-


ईर्षाशोक भयक्रोधमानद्वेषःदयश्च ये।

मनोविकारास्तेऽप्युक्ताः सर्वे पज्ञापराध जा।।

 

अर्थात, ईष्र्या, शोक, भय, क्रोध, मान, द्वेष इ. मनोविकारों के लिए उपयुक्त वृत्ती प्रज्ञापराध से ही उत्पन्न होती है। सिगरेट पीना अपायकारक है, रात्री जागरण से आम्लपित्त दोष होता है इ. उपदेश डाॅक्टर लोग हमें देते रहते हैं। पाश्चात्य जीवनशैली के प्रभाव से आरोग्य के नियमों का उल्लंघन होता है। यद्यपि यह शैली अज्ञानकारी है फिर भी उससे निसर्ग के नियम तो तोड़े ही जाते हैं और नियम तोड़ने का दंड रोग के रूप में मिलता है। मोह के कारण भी हमें नियमों की जानकारी होने के पश्चात भी हम उनका पालन नहीं करते। जिव्हा पर भोजन अधिकतम दो मिनट रहता है, जबकि पेट में उसका वास्तव्य प्रायः 8 घंटे रहता है। हम पेट भरा होने पर ’ना’ कहता रहता है फिर भी खाते रहते हैं। ऐसे समय हम पेट के द्वारा दी जा रही सूचना (परामर्श) न मानते हुए जिव्हा कि इच्छा मानते रहते हैं। कौन क्या खाए यह सभी का वैयक्तिक प्रश्न है। आहार यह घर के संस्कारों पर निर्भर करता है। इस कारण कौनसा आहार लिया जाए इसकी अपेक्षा किस पद्धति से लिया जाए यह देखना समीचिन होगा। आहार कैसा होना चाहिए इसका उत्तर ’वह षड्रसात्मक व सप्तधातुवर्धक’ हो। आहार में अनाज, द्विदल (दाल), साग (सब्जी), फल व दूध का समावेश हो। भोजन चतुर्विष्ट अर्थात चर्वण (चबाना), पेय, चाटन और चूसने जैसी क्रियाएं करने योग्य हों। मध्यान्न का भोजन पौष्टिक तो रात्री के समय का आहार पचन के लिए हल्का हो। आहार पद्धति की नियमावली देने के पूर्व यह ध्यान रखा जाए कि ऐसी नियमावली सर्वसामान्य परिस्थिती तथा सर्वसाधारण प्रकृति के निरोगी लोगों के लिए है। आहार यह देश, काल, प्रकृती, अवस्था, व्यवसाय, उत्पन्न, जीवनशैली इ.के अनुसार व्यक्तिशः बदलता है। दलदली प्रदेश में रहने वाले, समुद्र के निकट रहने वाले, पहाड़ी पर वास्तव्य करने वाले, उष्ण प्रदेश के रहिवासी, गिलावटभरे वातावरण में रहने वाले, जंगल में जीवन व्यतीत करने वाले इन सभी का आहार अलग-अलग होता है और वह वैसा होना भी चाहिए। विशिष्ट प्रदेश की पैदावार, वहाॅं के लोगों के आरोग्य की दृष्टि से हितकारी होती है ऐसी आयुर्वेद की धारणा है। प्रदेश के अनुसार आहार ऋतु आधारित भी होता है। हेमंत और शिशिर ऋतु में भारी पौष्टिक पदार्थों का पाचन सरलता से होता है तो ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में पाचन हेतु हल्के व द्रव पदार्थ हितकारी होते हैं यह विदित ही है। आयुर्वेद में ऋतु अनुसार आहार में इष्ट परिवर्तन का विस्तृत वर्णन किया गया है। वात, पित्त, कफ ये तीन प्रकृति के लोग होते हैं ऐसा प्रकृतिनुसार वर्गीकरण आयुर्वेद में किया गया है। कफ प्रकृति के लोगों का आहार कम, पित्त प्रकृति के लोगों का अधिक तो वात प्रकृति वालों का विषम होता है। कफ प्रवृत्ती के लोगों ने ठंडे, स्निग्ध, भारी, बहुत मिठे पदार्थों का सेवन कम करना चाहिए तो पित्त प्रकृति के लोगों ने गरम, मसालेदार, तिखे व खट्टे पदार्थों का अति सेवन टालना चाहिए।

 

कुछ पदार्थ विशिष्ट काल-ऋतु में हितकारी तो कभी-कभी वे ही पदार्थ अन्य समय में अहितकारी सिद्ध होते हैं। उदा. पलाण्डु (प्याज) यह वर्षा ऋतु में अहितकारी तो ग्रीष्म में हितकारी होता है। केला यह प्रातः स्वर्ण गुणकारी, मध्यान्ह में रजत गुणकारी और रात्री खाया जाए तो ताम्र गुण देने वाला पदार्थ है ऐसा आयुर्वेद का मत है। रोगी व निरोगी के आहार में अंतर रहना चाहिए। आहार मनुष्य की अवस्था पर आधारित हो बाल्यावस्था में शरीर पोषण तथा वृद्धि हेतु उपयुक्त तो तारूण्य में अधिक ऊर्जादायी आहार लेना लाभदायी है। वृद्धावस्था में पाचन क्रिया मंद हो जाती है अतः शरीर टिकाये रखने हेतु सहाय्यभुत मर्यादित आहार लगता है। मेहनतकश लोग और बैठे कार्य करने वालों के आहार में अंतर होता है। इसी प्रकार व्यक्ति के उत्पन्नानुसार (कमाई) आहार परिवर्तन दृष्टिगत होता है। ।तजपबसम.3.4716

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