अरे महाराज... कहां चल दिए। रुकिए तो ... गाड़ी कभी भी चल पड़ेगी।
उस युवा साधु को छोटे से स्टेशन से आगे बढ़ता देख दूसरे साधु चिल्ला उठे।
लेकिन उस पर तो जैसे अलग ही धुन सवार थी। वह आगे बढ़ता ही जा रहा था।
दूसरे साधु पीछे - पीछे चिल्लाते हुए लगभग दौड़ने लगे।
महाराज , आपको कुछ भ्रम हो गया है क्या। आप कहां जा रहे हैं। आप भूल रहे हैं कि हमें पुरी धाम जाना है..।
इस पर वह साधु बोला.. भूल नहीं रहा हूं, कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हूं। मित्रों पता नहीं क्यों मुझे लग रहा है कि मैं यहां पहले कभी आ चुका हूं।
इस पर दूसरे साधु हंस कर बोलने लगे... आज आप कैसी बहकी - बहकी बातें कर रहे हैं।
लेकिन अपनी धुन में आगे बढ़ता जा रहा वह एक तिराहे पर जा कर खड़ा हो गया। पास से गुजर रहे एक ग्रामीण से उसने पूछा।
क्या इस रास्ते के आगे एक स्कूल है। जिसके बगल वाले मैदान पर साप्ताहिक हाट लगती है।
ग्रामीण के हां कहने पर पीछे मौजूद दूसरे साधु हैरान रह गए।
कुछ और आगे जाकर वह नौजवान एक मकान के सामने खड़ा हो गया।
इससे घर के लोगों के साथ ही ग्रामीणों में भी हड़कंप मच गया। क्योकि गांव में साधुओं का आना - जाना तो वैसे आम बात थी। लेकिन यहां माजरा कुछ और था। एक साधु के पीछे - पीछे दूसरे कई साधु उसे किसी गलती का एहसास करा रहे थे। लेकिन वह कुछ सुनने को तैयार नहीं था।
ग्रामीणों की भीड़ के बीच नौजवान साधु बोला... इस गांव का सब कुछ मुझे जाना - पहचाना क्यों लग रहा है। शायद यह मेरा घर है। मेरे माता - पिता और भाई - बहन को बुलाया जाए।
इस पर ग्रामीणों ने कहा ... इस घर पर अब सिर्फ राजाराम अपने परिवार के साथ रहता है।
बुलाए जाने पर राजाराम पहुंचा, लेकिन साधुओं की मंडली को देख वह कुछ समझ नहीं पाया। अचकचाते हुए उसने पूछा... जी , आप कौन..।
इस पर वह युवा साधु बोला... तुम्हारा छोटा भाई शालिकराम कहां है , बता सकते हो..।
जवाब में राजाराम ने कहा... उसकी मौत तो कई साल पहले हो चुकी है। तब वह 12 साल का था।
इस पर साधु बोला... क्या तुम लोगों ने उसका अंतिम संस्कार किया था। राजाराम ने जवाब दिया ... नहीं सर्पदंश से मौत के बाद आंचलिक परंपरा के अनुसार हमने उसके शव को पास बहती नदी में बहा दिया था।
इस पर नौजवान ने दिमाग पर जोर देते हुए कहा .. वह मैं ही हूं। मैं मरा नहीं था।
नियति की इस विडंबना से सभी की आंखें फटी रह गई।
विश्वास न होते हुए भी राजाराम को उसकी बातों पर यकीन करना पड़ा। खबर सुन कर दोनों की बहन जयश्री भी ससुराल से दौड़ी - दौड़ी मायके पहुंची, और कई साल पहले मृत मान लिए गए अपने छोटे भाई को जीवित पाकर खुशी से झूम उठी। वह समझ नहीं पा रही थी कि काल के इस विडंबना पर वह रोए या हंसे। कभी वह फूट - फूट कर रोने लगती तो कभी अपने भाईयों से लिपट कर खिलखिला उठती।
स्पष्ट था तत्कालीन परिस्थितयों में सर्पदंश से मृत मान लेने के चलते बगैर पूरी डाक्टरी जांच के जिस बालक को परंपरा के तहत नदी में बहा दिया गया था, वह किसी तरह जिंदा बच गया।
हालांकि होश आने पर उसने खुद को साधुओं के बीच पाया। स्मृति विलोप का शिकार शालिकराम सब कुछ भूल चुका था। लेकिन दूसरे साधुओं के साथ पुरीधाम जाने के क्रम में परिचित परिदृश्य से उसकी चेतना लौट आई, और आहिस्सा - आहिस्ता उसे सब कुछ याद आ गया।
भौंचक नजर से सब कुछ देख रही भीड़ के बीच शालिकराम के साथी साधुओं ने पूछा... अब क्या इरादा है महाराज, लौटना है या ...
शालिकराम ने जवाब दिया... अब मुझे कहीं नहीं जाना, नियति की निष्ठुरता ने पहले ही मेरे जीवन के कई साल मुझसे छीन लिए। अब इतने सालों बाद मेरी घर वापसी हुई है.. अब मैं यहीं रहूंगा...।
युवा साधु ने अपना फैसला सुना दिया था...
------------------------------
लेखक बी.काम प्रथम वर्ष के छात्र हैं।