हर समस्या का समाधान होता है , कहना आसान है मगर असल में कर पाना हर बार उतना भी सरल नहीं होता ! खासकर तब जब वो भीड़ का उन्माद हो या फिर कट्टर धार्मिकता से पैदा किया गया जूनून ! समाधान असम्भव तब हो जाता है जब समस्या जबरन पैदा की गयी हो ! कहा भी जाता है की पागलपन का कोई इलाज नहीं !लेकिन इस चक्कर में किसी पागल को सड़क समाज में खुला तो नहीं छोड़ दिया जाता ! समस्या छोटी हो या बड़ी उसकी अनदेखी तो कभी नहीं की जाती ! फिर चाहे वो किसी मोहल्ले का असमाजिक गुंडा हो ,ताकतवर डॉन ,अराजक सफेदपोश नेता या फिर धर्म का चोला ओढे अधर्मी !
कश्मीर की समस्या के जड़ में जाएँ तो उसके बीज में ही विकृति है ! यह सही है की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय यह छोटा पौधा ही था जिसका इलाज आसान होता मगर तब के लोग चूक गए या फिर वे व्यकिगत लाभ हानि के चक्कर में फंस गए थे , इस पर अब बहस करने का कोई लाभ नहीं ! लेकिन इससे सबक तो लिया ही जा सकता है ! दिल्ली को मौके तो और भी कई बार मिले , बांग्लादेश की आजादी के समय एक सुनहरा अवसर था वो भी गवां दिया गया ! बाद में आया जगमोहन का मामला , अब उनको अचानक हटाने को क्या कहा जाए, वो भी तब जब वो समस्या को पूरी तरह नियंत्रित करने के निकट पहुंच गए थे ! और उन्हें हटाया भी गया तो किसके कहने पर और क्यों ? जो इतिहास को नहीं पढ़ते वो भविष्य नहीं रचते ! सवाल तो और भी कई उमड़ते हैं और जब जवाब नहीं मिलते तो बेचैनी होती है ! आतंकवादी का इलाज अगर गोली है तो आतंकवादी को पैदा करने वाले का भी कोई इलाज तो होगा ! और अगर नहीं है तो उसे कम से कम सरकारी सुरक्षा कवच तो नहीं दिया जाना चाहिए ! जो जहर उगल रहा है उसकी सलामती की चिंता क्यों ? वैसे भी उसे किससे खतरा है ? उसके अपने लोगों से ? भीड़ को नियंत्रित करने के लिए भीड़ को बहकाने वाले पर नियंत्रण एकमात्र उपाय होता है औार अगर वो दुश्मन का पाला हुआ है तो हम भी इतने चतुर चालाक तो होने ही चाहिए की दो चार अपने भी पाले हुए भीड़ में हों !और हमारे पाले हुए इतने सक्षम होना चाहिए की वो भीड़ का रुख मोड़ सके ! और अगर वो ऐसा कर पाने में नाकाम हैं तो उन्हें पाले रखने का क्या औचित्य ?
ऋषि कश्यप का कश्मीर और श्री की नगरी , यहां के कण कण में शिव हैं सदियों से बह रही हवाओं में सनातन संस्कृति की खुशबू ! अपनी पुस्तक "स्वर्ग यात्रा "को लिखने के दौरान यहां खूब घूमा और पढ़ा हूँ ! सोचता हूँ उस अनुभव का फायदा उठाते हुए कश्मीर समस्या पर एक उपन्यास लिखूं ! चूंकि उपन्यास का फलक बड़ा होता है तो इसमें अपने भीतर उमड़ रहे सवालों के साथ साथ तर्क विचार तथ्य को स्थान मिल पाएगा ! काल्पनिक और नाटकीय ही सही, इस समस्या को लेकर कुछ समाधान भी सुझाए तो जा ही सकते हैं ! आखिरकार कल्पना से ही योजना बनती है जिसका फिर क्रियान्वन किया जाता है ! कल रात ही एक रोचक और रोमांचक प्लाट बन कर तैयार हुआ है जिसमे राजनीति सामाजिक धार्मिक समस्या को एक राजनेता और सुरक्षा इंटेलिजेंस का हेड मिलकर हल करते हैं ! तो दोस्तों तय रहा , इस वक्त लिखे जा रहे उपन्यास "तीसरी पारी" को समाप्त करने के बाद अगला उपन्यास लिखूंगा "तेरा नहीं मेरा नहीं ... वो कश्मीर हमारा है "