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आओ चलो अब हम मरने चलें,जीवन में अपने कुछ करने चलें।

29 जुलाई 2016

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आओ चलो अब हम मरने चलें,जीवन में अपने कुछ करने चलें। 

हर तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला ,हर घडी घटनाओं का अम्बर काला। 

बलात्कार,खून,रंजिश,डकैती ;दुश्मन ही नहीं अब भाइयों में भी होती। 

नेताओं में ईमान था भला कहाँ;कहो पहले भी कब सहज-सुलभ रहा। 

अब तो वो नंगई में उतारू हो रहे;सत्ता की खातिर सारे कुकर्म कर रहे। 

यही हाल तथाकथित बुद्धिजीवियों का है;मीडिया तो दो हाथ आगे खड़ा है। 

तो यही देख,सुन,और झेल कर ,करता हूँ आह्वाहन सबका हाथ जोड़ कर। 

मुझे मालूम है मेरे इस बुलावे में;कुकर्मी,बुद्धिजीवी पड़ेंगे नहीं बहलावे में। 

आएंगे तो बस भोले-भाले लोग;या की फिर आतंक मचा रहे लोग। 

दरअसल आतंकी को तो पक्का है;हूरों का संग मिलना ही मिलना है।

ऐसी घुट्टी उनके आका पिला रहे;चाहे खुद दुनिया में रहते जश्न मना रहे।

हाँ पर एक ऐसी कौम बड़ी है;जो बिन लालच मरने तत्पर तैयार रही है। 

निरीह बकरे के जैसी,एक आदेश पर ;खुद की गरदन दुश्मन से कटवाने पर।

हाथ बंधे,मुख बांधे,कभी न उफ़ करते;मरने को तैयार  पत्थरबाजों के चलते। 

यद्यपि कुकर्मी,बुद्धिजीवी,दलाल मीडिया वाले;उड़ाएंगे उपहास चाहे हम हों या फ़ौज़ वाले। 

फ़ौज़ ही करती अत्याचार ऐसा ये फैलाएंगे;और हमारी बेमौत आत्महत्या बताएंगें। 

माना मौत हमारी आत्महया ही होगी;पर वो तो मज़बूरीवश एक बार ही होगी। 

लेकिन देशद्रोहियों को कैसे हम समझाएं;इनके टूटे आईने कैसे इनको दिखलायें। 

सांस-सांस पर आत्महत्या करते जो रहते ,राष्ट्रद्रोह के डी.एन.ए. संग ही जो जीते रहते। 

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रचनाएँ
astrokavitarkesh
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यह ब्लॉग जोतिष,अध्यात्म,साहित्य को समर्पित है.
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